02 October 2016

 गांधी की खोज में 
मणीन्द्र नाथ ठाकुर



एक बार प्रसिद्ध राजनैतिक चिंतक रणधीर सिंह से जे एन यू के एक रात्रि भोजन के बाद होने वाली  बातचीत में किसी  ने पूछा कि क्या गांधी उदारवादी थे, या गांधी मार्क्सवादी  थे; क्या गांधी आज भी प्रासंगिक हैं? उनका जवाब भी उतना ही अच्छा था कि ‘ गांधी न तो मार्क्सवादी थे, न ही उदारवादी थे, और  इसलिए वे प्रासंगिक हैं’।
पूरी दुनिया को गांधी देर से समझ में आ रहे हैं तो मेरे साथ भी ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं है। पाँचवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा तक लगभग हर बरस दो अक्टूबर को गांधी के बारे में कुछ न कुछ भाषण देने की आदत सी हो गयी थी। कभी लगता था कि वे  महान व्यक्ति थे और कभी लगता था कि चालाक थे। दोस्तों के बीच ख़ूब बहस होती थी। लेकिन बचपन से ही गांधी  हमारे जैसे बहुत से बच्चों की चेतना के हिस्से थे। गांधी के दर्शन से रू-ब-रू होना शुरू हुआ जब मैंने विज्ञान विषयों को छोड़ कर राजनीति विज्ञान पढ़ना शुरू किया। फिर मार्क्सवाद ने चिंतन को झकझोर दिया। युवावस्था में तो लगने लगा कि गांधी केवल पूँजीपतियों के लिए काम करते थे और उन्होंने भारत में आमूल परिवर्तन को होने से रोक दिया। लेकिन इस समय भी मन के किसी कोने में  ऐसा लगता था कि मामला इतना सरल भी नहीं है। रणधीर सिंह के मार्क्सवाद से प्रभावित होने के चलते गांधी से संवाद कभी बंद नहीं हुआ। फिर गांधी को पढ़ाने का मौक़ा मिला। इस दौरान भी अम्बेडकर ने प्रभावित किया और गांधी की आलोचना मन में बनी रही। तय किया कि मार्क्स, अम्बेडकर और गांधी को एक साथ पढ़ाया जाए, ताकि तुलनात्मक अध्ययन  हो सके। इस मायने में जेएनयू  ने बड़ी मदद की। एक तो अपने मन मुताबिक ऐसा पाठ्यक्रम बना पाना सिर्फ यहीं सम्भव था और यहाँ का माहौल, यहाँ के छात्र सभी इस प्रयोग के लिए उपयुक्त थे। कई वर्षों तक जूझने के बाद अब मुझे लगता है कि मेरी थोड़ी गति इसमें हो गई है। गांधी की बातें मेरी समझ में थोड़ी-थोड़ी आने लगी हैं। इस संदर्भ में मैं कुछ  उदाहरण देना चाहूँगा। 

बहुत दिनों से सोच रहा था कि  इस घोर पूँजीवादी और उपभोक्तावादी युग में जहाँ हर काम फ़ायदे के लिए किया जाता है चाहे वह मानव विरोधी क्यों नहीं हों, तो ऐसे में मनुष्य के पास अपनी रक्षा का क्या उपाय है। हर्बर्ट मार्कूज़ का विचार सही जान पड़ता है कि इस उपभोक्तावादी समाज में हम सुतुर्मुर्गीय व्यक्तित्व हो गए हैं; हमारी अस्मिता ही उपभोग की क्षमता से निर्धारित होती है। फिर हमारा स्वराज कैसे हो सकता है? गांधी ठीक कहते थे कि यदि स्वराज नहीं है तो तुम मनुष्य नहीं हो और स्वराज के लिए श्रम और संयम ज़रूरी है। जिस तरह से बाज़ार हमें केवल उपभोक्ता की अस्मिता में तब्दील कर रहा है, उससे बचने का यही नुस्ख़ा सही लगता है।   भारत के जाने माने हृदय रोग  विशेषज्ञ डाक्टर एस सी मिनोचा एक बातचीत में मुझसे कह रहे थे  कि  हमें अब पता चल रहा है कि चार रेफ़ायंड चीज़ों ने हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला है: रेफ़ायंड तेल, मैदा, चावल, और चीनी। कहने लगे हमें सरसों तेल और वह भी कच्ची घानी का खाना चाहिए। मैं आश्चर्य चकित था कि डाक्टर कह क्या रहे हैं? मैंने डाक्टर हबीबुल्ला, जो हृदय रोग के बड़े महारथी थे, का हवाला देते हुए कहा कि मेरे सामने उन्होंने  एक रोगी को लगभग डाँटते हुए कहा था: बिहारियों से मैं तबाह हूँ। वे सरसों तेल खाते हैं, उसका छोंका लगाते हैं और इससे जी नहीं भरता है तो सरसों की चटनी भी खाते हैं। डाक्टर मिनोचा का जवाब था, उस समय उन्हें क्या किसी और  को भी  यह पता नहीं था कि रेफ़ायंड तेल के प्रचार प्रसार के लिए पूरी दुनिया में उत्पादकों की लॉबी काम कर रही है। इसके दुष्प्रभाव से सम्बंधित सूचनाओं को छुपाया गया। उन्होंने बताया कि बास्किन रॉबिंज़ आइसक्रीम कम्पनी के मालिक के बेटे जान रॉबिंज़ ने अपनी पुस्तक में पिता को अपराधी घोषित किया है क्योंकि उसका मानना है कि भोजन के नाम पर उनके पिता की कम्पनी सहित अन्य नामचीन अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ ज़हर परोस रही हैं। मैं तो सकते में आ गया। जी एम फ़ूड पर उनकी बातों को सुनकर तो मुझे डर सा लगने लगा। और अंतराष्ट्रीय मेडिकल रीसर्च और उसके प्रकाशकों की करतूतों को सुनने के बाद तो मेरे पास कुछ आगे कह पाने की हिम्मत ही नहीं हुई। क्योंकि बिना पूँजीपतियों की सहायता के न तो रीसर्च हो सकता है न ही प्रकाशन। मैंने पूछा इसका उत्तर क्या है? उन्होंने कहा गांधी। प्रकृति के नियमों का पालन करो, देश के भोजन की संस्कृति को समझो और तार्किक ढंग से उसका पालन करो। 

मुझे पहले लगता था कि गांधी राजनीति पर बात करते-करते भोजन पर क्यों बात करने लगते हैं। अब समझ में आता है कि उन्हें भोजन पर उपभोक्तावादी संस्कृति के हमले का आभास होने लगा था। बाज़ार की मध्यस्थता ने प्रकृति से हमारे संवाद को ख़त्म कर दिया है। हम ज़रूरत और चाहत में अंतर करना भूल गए हैं। चाहतें बाज़ार निर्धारित कर देती हैं और हम उसके पीछे भागने लगते हैं। उदारवादी अर्थनीति के दर्शन से निजात पाने के लिए हमें वापस गांधी को ध्यान से समझना पड़ेगा। दर्शनिकों को  समझने और उनसे सीखने के बदले हम उनके बीच के विवाद में फ़सने लगते हैं और उनको अपनी अस्मिता से जोड़ कर उनके नाम पर लड़ने भी लगते हैं। ज़रूरत शायद उनसे सीख कर अपनी जीवन दृष्टि को निर्धारित करने की है। गांधी भोजन की राजनीति को समझ ही नहीं रहे थे बल्कि उससे बचने के लिए पूरी रणनीति भी तैयार कर रहे थे। मार्क्स और अम्बेडकर को माननेवाले महानुभावों को इस बात पर ग़ौर करना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि जिस क्षेत्र में गांधी की समझ सही नहीं लगे  तो उसकी आलोचना नहीं करें। बल्कि इस विषय पर जापानी चिंतक कोज़िन कारातानी की बात सही है कि पढ़ने का एक तरीक़ा ट्रान्सक्रिटिकभी हो सकता है, जिसमें एक चिंतक के माध्यम से दूसरे को पढ़ा जा सकता है। 

इसी तरह धर्म के बारे में गांधी की बात मुझे तब समझ में आयी जब मैं क़ुरान, बाइबिल और गीता को एक साथ पढ़ने का प्रयास करने लगा। गांधी जब कहते हैं कि सभी धर्मों में एक ही बात है तो मुझे लगता था कि तत्कालीन राजनीति में धार्मिक बहुलता के लिए यह सब कहा करते होंगे। लेकिन इन ग्रंथों को ग़ौर से पढ़ने पर पता चलता है कि गांधी एक दृष्टिकोण की बात करते थे; इनमें उपलब्ध मनुष्य की अवधारणा के बारे में बात करते थे; धर्म को सामूहिक अस्मिता से नहीं बल्कि मानवीय अस्मिता से जोड़ते थे। हिंद स्वराजमें उन्होंने  विचार दिया है कि लोगों के  धर्म विमुख होने से उन्हें चिंता होती है। नेहरु जैसे लोग भी गांधी के इस बात से सहमत नहीं थे। सर्व धर्म समन्वयका उनका विचार ज़्यादातर लोगों को केवल यूटोपिया  ही लगता है। लेकिन गांधी के इस विचार का  ठोस ऐतिहासिक आधार था; इसका एक ऐशियायी संदर्भ था। रूमी जैसे लोग उनके विचारों के श्रोत थे, कहा जाता है की रूमी के जनाज़े में हर धर्म के लोग शामिल थे। गांधी धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ करते थे। गीता को पढ़ने के लिए उन्होंने संस्कृत विशेषज्ञों  से सम्पर्क नहीं किया। कहा कि गीता तो माता है, जो मेरी वैचारिक और नैतिक समस्याओं का समाधान करती है। उसे इसी भाव से पढ़ने की ज़रूरत है। उनके लिए धर्म ग्रंथ तो ज्ञान ग्रंथ हैं, अस्मिता ग्रंथ नहीं हैं। यदि क़ुरान के पहले अध्याय  को ध्यान से पढ़ें तो गांधी की बात समझ में आ जाती है। उसमें मानवता के लिए जो अपील है, गांधी के अनुसार वही धर्म का सार है। गांधी का हिंद स्वराजधर्म के एक दृष्टिकोण का प्रतिपादन है। लैटीन अमेरिका में मार्क्सवादी क्रांतिकारियों ने जिस लिबरेशन थीयोलोजी को अपने क्रांति संघर्ष के लिए उपागम बनाया, गांधी उसके प्रतिपादक माने जा सकते हैं।  आज के युग में गांधी के दृष्टिकोण से धर्म ग्रंथों का समन्वित पुनर्पाठ आवश्यक है। शायद आतंकवाद से मुक्ति का भी यही मार्ग है। जिस धर्मान्धता का उपयोग सम्प्रदायवादी करते हैं उसका यही उचित काट हो सकता है। 

आंदोलन और नेतृत्व के संदर्भ में गांधी के विचारों के महत्त्व को ख़ास कर मैंने तब समझा जब हाल ही में एक राजनैतिक प्रयोग करने का मौक़ा मिला। बिहार के कुछ मित्र जिनमें प्रवासी होने का दर्द है, बिहार चुनाव के पहले एक राजनैतिक प्रयोग के लिए जमा हुए। आम आदमी पार्टी के प्रयोग ने उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया था कि कुछ ऐसा ही बिहार में भी सम्भव हो सकता है। मध्यमवर्गीय लोग जो अब तक राजनीति को काजल की कोठरी ही मानते थे, उसमें अपनी भूमिका तलाशने लगे थे। विमर्श के कई दौर चले। राजनीति की  एक आदर्शवादी अवधारणा की  कल्पना की गई, कुछ आम आदमी पार्टी  के प्रयोग से भी आगे। इस बातचीत की प्रक्रिया में मुझे गांधी की बहुत याद आयी। मैं सोचता रहा कि आख़िर गांधी कैसे लोगों के दिल तक पहुँचते थे, कैसे उनके पास  लड़ते-भिड़ते नेताओं को वे  शांत कर काम के लिए प्रेरित करते थे, कैसे स्वयं पर इतना नियंत्रन करते थे। लोगों ने तय किया कि हमें किसी ख़ास  जगह पर बैठ कर चिंतन करना चाहिए कि हम क्या करें। वह ख़ास जगह चुनी गई बुद्ध की ज्ञान भूमि बोधगया। सोचा गया कि शायद गांधी ओर बुद्ध की थोड़ी सी आभा हम भी समेट लेंगें। यह बात तो समझ में आयी कि इस अविश्वास, हिंसा और धोखा की राजनीति का जवाब हमें प्रेम, लोक कल्याण, जनसेवा की राजनीति से  देना होगा। गांधी की बात याद आयी  कि संघर्ष जितना अंदर है उतना ही बाहर है। गांधी बुद्ध के अष्टांग मार्ग की बात करते थे, आज की राजनीति उन आठों मार्गों को छोड़ कर कुपथ पर चलने का ही पर्याय है। सोचने की बात है कि गांधी ने कैसे इस कुपथ से रथ को सुपथ पर लाया होगा जो फिर रथ उन्हें वहीं छोड़ कर राजपथ पर निकल पड़ा; कैसे गांधी ने अपना आत्मबल इतना  संकलित किया होगा कि इन सब चीज़ों को देखते रह गए होंगे और फिर नया रास्ता खोजने में लग गए। बोध गया के एक गांधी आश्रम में लोगों से मिलने का मौक़ा भी मिला। इसे विनोबा जी ने बनवाया था। यहाँ नब्बे वर्ष से ऊपर के द्वारको जी से मुलाक़ात  हुई। आज के युग में इस आश्रम का कितना महत्व है कहना मुश्किल है। छोटा जीर्ण शीर्ण मकान और उसमें मुसहर बच्चों  के लिए किसी तरह से चलता एक विद्यालय। इसका भूत भले  ही बहुत वैभवशाली था, इसका वर्तमान तो यही था और भविष्य की कोई उम्मीद है ऐसा कहना कठिन है। लेकिन फिर भी वहाँ जाने पर मन गांधी के उस जादुई प्रभाव पर चला गया जिससे एक  बुज़ुर्ग व्यक्ति अपने जीवन को बांधे जी रहे थे। कितना कठिन होगा ऐसा जीवन जीना जिसका इतना प्रभाव अभी तक बचा है। 

इस कठिनाई का अनुभव मुझे तब और होने लगा जब पिछले बिहार विधान सभा  चुनाव के दौरान हमलोगों ने यह  तय किया  कि चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेकर सीखने का मौक़ा लिया जाए।  चुनाव के दौरान दो  क्षेत्रों में कुछ गहन अध्ययन करने का मौक़ा मिला। एक था जमुई ज़िले का चकाई और दूसरा था मज्जफफरपुर ज़िले का बोचहा।चकाई में लगभग एक सप्ताह एक गांधी आश्रम में रहने का मौक़ा मिला। सर्वोदयी कार्यकर्ताओं से मिलने का भी मौक़ा मिला।देखकर दुःख हुआ कि इस जनतंत्र में गांधी के सिपाही कितने कमज़ोर हो गए हैं।उनके सिद्धांतों की रक्षा करने में कार्यरत ये आश्रम नवउदारवादी अर्थनीति के दौर में कितने बेकार से दिखने लगे हैं।यहाँ भी आश्रम जीर्ण शीर्ण अवस्था में था।लेकिन रहने में मज़ा आया।लगता था महानगरी  उपभोक्तावादी परिवेश की तुलना में  यहाँ हवा ज़्यादा शुद्ध  हो और हरियाली मन को मोहती हो।चुनाव के दौरान गावों में घूमने लगा तो समझ पाया कि ग़रीबों की आँखें अब भी गांधी को तलाश रहीं हैं। आश्रम भले ही जीर्ण शीर्ण हो गए हैं लोगों की उम्मीदें अभी बांकी हैं।मन बेहद विचलित हो रहा था कि हम मध्यमवर्गीयों में गांधी बन पाने की हिम्मत किसी में क्यों नहीं है।लोगों के विस्फ़ारित नयन हमारे चेहरों को भी पहचानने का प्रयास कर रहे थे।मुझे तो ख़ुद ही शर्म आ रही थी कि कहीं उन्हें गलतफ़हमी न हो जाए। गांधी का बाह्य संघर्ष को तो लोगों ने पढ़ा और देखा होगा, लेकिन उसके अंदर का संघर्ष उससे कहीं ज़्यादा रहा होगा, जिसे समझना अभी बाकी है।                        
इसी चुनाव के दौरान बोचहा क्षेत्र में एक नया अनुभव हुआ।गांधी के संघर्ष से निकले जनतंत्र की बदहाली को देखकर रोना आ रहा था। लोगों का विश्वास इस प्रक्रिया पर ख़त्म होता दिखा।तभी एक चमत्कार सा हुआ और मुझे लगा कि गांधी अभी ज़िंदा हैं उनके दिमाग़ों में। एक महिला जिसकी न जाति ही बहुसंख्यक थी और न ही बहुत धनी थी, फिर भी उनके लिए जन समर्थन देखकर आश्चर्य हुआ। लोगों ने जाति, धर्म, वर्ग, उम्र सबसे परे जाकर उन्हें समर्थन दिया। और मज़े की बात थी कि वह एक स्वतंत्र उम्मीदवार भी थीं। कारण क्या था? कारण था उनके साथ हुआ धोखा। पहले भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें टिकट देने की उम्मीद दिलाई, लेकिन वह सीट रामविलास जी की पार्टी लोजपा  को मिला।उनकी पार्टी ने उन्हें टिकट दे दिया था।लेकिन आख़िरी दिन वापस ले लिया। इस घटना ने लोगों को उनकी ओर मोड़ दिया।यह जो नैतिकता का ज़ोर है, शायद इसी के बल पर गांधीं ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी होगी। मुझे तो लगता था कि बदले संदर्भ में शायद इसके बारे में बात करना बेकार है।लेकिन इस घटना ने मेरे अंदर  गांधी के विचारों के प्रति एक उम्मीद जगा दी है।लंदन स्कूल ओफ़ इकॉनोमिक्स के एक सेमिनार में  मैंने बोचहा की इस घटना पर एक लेख पढ़ा और विद्वतजनों से आग्रह किया कि आप बताएँ कि इसका क्या मतलब है।शायद उन्हें गांधी की किरण इसमें दिखी नहीं और वे उपागम की उपयोगिता ढूँढते रहे।मुझे तो इसमें गांधी ही दिखते रहे।

आगे गांधी के विचारों के साथ कुछ प्रयोग करना चाहता हूँ।इस दो अक्तूबर को मैंने सोचा था इसका प्रारम्भ करूँगा।संयोग से बेगूसराय (बिहार) के एक गाँव से इस अवसर पर आने का आमंत्रण मिल गया है।नई खोज यह करनी है कि क्या बिहार की राजनीति में गांधीवादी प्रयोग की कोई सम्भावना हो सकती है।बिहार को दयनीय हालत से निकालने के लिए क्या किसी गांधी की ज़रूरत फिर से है? क्या सम्भव है कि चंपारण से फिर एक प्रयोग शुरू हो जो जनतंत्र के इस विद्रूप चेहरे  से लोगों को निजात दे पाए
 लेखक जेएनयू में प्राध्यापक और क्रिएटिव थ्योरी आन्दोलन के सदस्य हैं.
+919968406430 manindrat@gmail.com पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.



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