03 May 2015

आधुनीकीकरण का स्वरूप


आधुनीकीकरण का स्वरूप


भारत में आधुनिकता  के प्रभाव से जो प्रतिक्रिया हुई, उससे पुरानी परम्परा और संस्कृति के प्रति
नया बोध् उत्पन्न हुआ, उसकी पुनव्र्याख्या और  पुनरुत्थान के प्रयत्न हुए तथा उसे नया रूप
देने की कोशिश की गयी।आधुनिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीयता की भावना इतनी बढ़ी और इसे नये अर्थ और रूप देने का प्रयास किया गया। भारत में यह बात नहीं स्वीकार की गयी कि आधुनिकता का अर्थ पुरानी बातों को जड़मूल से नष्ट करके एकदम नयी बातों को अपनाना है। दूसरी ओर यहाँ यह रूख भी
नहीं रहा कि नयी बातों में कोई तत्त्व नहीं और पुरानी परम्परा और पुराने मूल्य ही शाश्वत
और सही हैं। अगर कहें कि भारत ने मध्यमार्ग ग्रहण किया और कुछ पुरानी बातों को बनाए रखने के साथ-साथ नयी बातों को भी स्वीकार किया, यह भी भारत में हुई प्रतिक्रिया का सही वर्णन नहीं। कुछ लोगों ने इसको इस
तरह कहा है कि भारत में प्राचीन परम्परा को लोकतान्त्रिाक रूप दिया गया। मगर इस मत
में प्राचीन परम्परा को अत्यध्कि महत्त्व दिया गया और इस पर सही ध्यान नहीं दिया गया कि आधुनिकता मूल्यों और संस्थाओं ने पुरानी परम्परा के प्रति गौरव के भाव को जगाने और उसे आधुनिकता अर्थ देने में कितना योगदान दिया। पुरानी परम्परा यूं ही स्वयं नहीं जीवित हो गयी। इसलिए हमें पुरानी परम्परा और
आधुनिकता को अलग-अलग न लेकर उनके परस्पर सम्बन्ध् पर, उस प्रक्रिया पर, जिस से ये सम्बन्ध् बने और एक-दूसरे के लिए उनकी उपयोगिता पर विचार करना चाहिए। जब एक प्राचीन समाज अपनी समृ( परम्परा
और विविध्ता को त्यागे बिना, अपने में नये युग के अनुरूप परिवर्तन करके अपने को जीवित रखने का प्रयत्न करता है तो नये और पुराने का यह मिश्रण क्या रूप धरण करता है, इसे समझना आवश्यक है।
परिवर्तन कब शुरु हुआ, इसकी कोई तारीख या समय बताना कठिन है खासकर भारत के लिए, क्योंकि यहाँ के समाज की यह विशेषता है कि, इसका कुछ अंश तो एकदम जड़ हो गया और कुछ अंश गतिशील
बना रहा। यह कहना हास्यास्पद है कि भारत 
का समाज एकदम जड़ और निर्जीव हो चुका था और विदेशी शासन के ध्क्के से इसमें
पिफर चेतना आयी। हमने देखा है कि मुस्लिम आक्रमण और मुगल शासन की स्थापना ने
पुरानी व्यवस्था को गहरा ध्क्का दिया। इसके बाद विदेशी अँग्रेजों का औपनिवेशिक शासन स्थापित हुआ, जिसके अन्तर्गत सारे देश में एक केन्द्रीय सत्ता स्थापित हुई, कानून और
व्यवस्था कायम हुई और सामाजिक और  बोद्धिक  क्षेत्रा में व्यापक परिवर्तन हुए, जिससे
विदेशी शासन के विरोध् में राष्ट्रीय आन्दोलन का जन्म हुआ, तथा नये राष्ट्र की नींव पड़ी। इस दृष्टि से देखने से यह बात असन्दिग्ध् है कि परिवर्तन की मुख्य प्रेरणा अँग्रेजी राज्य के माध्यम से भारत में पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान विचारधरा, शिल्प और संस्थाओं के प्रवेश से प्राप्त हुई। हमने यह भी देखा है कि जहाँ एक ओर
भारत में पाश्चात्य उदार और समाजवाद विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा वहाँ दूसरी ओर उसका गहरा विरोध् भी हुआ। इन दोनों विरोधी विचारधराओं के सम्मिलित प्रभाव से समाज में ऐसे परिवर्तनों को स्वीकार किया
गया, जिससे भारत आधुनिक संसार में अपना स्थान ग्रहण कर सके, साथ ही भारतीयता की भावना ने भी नया रूप, नया बल और नया अर्थ प्राप्त किया। इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण के नेताओं ने वर्तमान में परिवर्तन किया और भविष्य की नयी कल्पना की। राष्ट्र और समाज की नयी कल्पना का आधर केवल यही नहीं
था कि अतीत में हम क्या थे बल्कि यह भी था कि भविष्य में हमें क्या होना है। नये युग ने भारत में पहली बार एक राष्ट्रीय प्रमुख या नेतावर्ग को जन्म दिया। पहले गाँवों या कस्बों में स्थनीय मुखिया होते थे।
जो स्थनीय मामलों को निपटाया करते थे। इनके अलावा भी प्रतिभाशाली लोग होते थे जो अपने-अपने क्षेत्रा में समाज-सुधर के लिए काम करते थे। परन्तु अब ऐसे, प्रमुख लोगों  का उदय हुआ, जो पूरे देश के बारे में सोचते
थे, राष्ट्र के भविष्य पर और राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करते थे। ये लोग राष्ट्रीय लक्ष्यों,
उद्देश्यों और विचारधरा की बात करते थे। यह एक नयी बात थी। 
राष्ट्रीय स्तर पर सोचने वाले इन नेताओं ने स्वभावतः राष्ट्रीय स्तर पर संगठन करने
का प्रयत्न किया और देश की जनता तक पहुँचने की कोशिश की। कापफी समय तक राष्ट्रीय नेतावर्ग का काम शहरों में हुआ। इसके बाद इनको इस समस्या का सामना करना पड़ा कि वे एक प्राचीन समाज को कैसे आधुनिक रूप दें और अपनी बात ऐसी जनता के कान तक कैसे ले जाएँ जो आधुनिकता की भाषा
को नहीं समझती। उसे तो पुराने प्रतीकों  और उदाहरणों के जरिये ही समझाया जा सकता
था। हम बता चुके हैं कि गाँधी जी ने किस प्रकार दया, ध्र्म, मोक्ष, परमार्थ आदि पुराने प्रतीकों और आदर्शों के द्वारा जनता में सार्वजनिक कत्र्तव्य और देशप्रेम की भावना का संचार किया। ये सब ठेठ भारतीय प्रतीक थे। इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व ने अपने उद्देश्यों के लिए प्राचीन परम्परा का सहारा लिया। राष्ट्रीय नेतृत्व
के उदय से समाज की शक्ति संगठन का ढाँचा बदल गया।
यह नहीं समझना चाहिए कि इस प्रकार परम्परागत आदर्शों और प्रतीकों का सहारा लेकर आधुनिकता  की पूरी पति  को स्वीकार कर लिया गया। वास्तव में देश के सामने जो नये आदर्श और लक्ष्य रखे गये, वे भी एक
नहीं थे। उनमें से अनेक विकल्प परस्पर विरोधी भी थे। उदाहरण के लिए, देश में व्यवस्था रखने और अनुशासनपूर्वक विकास के लिए शक्तिशाली एकतान्त्रिये  व्यवस्था बनाम व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधरित प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतन्त्र, मजबूत केन्द्रिय सत्ता बनाम स्वायत्त इकाईयों का ढीला ढाला संघ, दलों की प्रतिद्वन्द्वित और बहुमत का राज्य अथवा अल्पसंख्यकों का विशेष हितों का प्रतिनिधित्व, अर्थव्यवस्था
पर सरकारी स्वामित्व या राष्ट्रीयकरण बनाम निजी उद्योग, उन्नत औद्योगिक देशों के लिए कच्चे माल का उत्पादन और निर्यात करके उनसे सहायता और विशेष व्यवहार प्राप्त करना या खुद पूरी तेजी से उद्योगीकरण करनाऋ और ऊँचे सुसंस्कृत वर्ग की शिक्षा प्रणाली या समाज में समानता को बढ़ावा देने वाली सर्व
साधरण की शिक्षा। भारतीयों में संसदीय लोकतन्त्रा की पेचीदा प्रणाली को चलाने की योग्यता है या नहीं, इस पर अँग्रेजों को सन्देह  था और कुछ भारतीय भी उनसे सहमत थे। महत्त्व की बात यह है कि अन्त में भारत ने कौन-सा रास्ता चुना और किस विचारधारा की जीत हुई।इस चुनाव को ब्राह्मण की उदार विचार की प्रवृत्ति और विचारों की विभिन्नता के प्रति सहिष्णुता की हमारी परम्परा, दोनों ने प्रभावित  किया। कुछ पुरानी दूषित परम्पराओं को त्याग दिया गया, जैसे समाज में ऊँच-नीच, घोर असमानता तथा कट्टर संकीर्णता को। दूसरी
ओर पुरानी परम्परा ने यह आत्मविश्वास उत्पन्न किया कि भारत के लोगों में विवेक और बुद्धि
का मार्ग ग्रहण करने की क्षमता है। इस बात पर भी सहमति थी कि भारतीय सभ्यता की समृ( परम्परा को बनाए रखने के लिए ऐसी शासन व्यवस्था को अपनाना चाहिए, जिससे देश के सभी मतों और सम्प्रदायों की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहे। आधुनिक अध्निायकतन्त्र या तानाशाही की व्यवस्था न तो इतने बड़े देश
की एकता कायम रख सकती थी ओर न उसकी भाषा, ध्रम संस्कृति की विविधता की ध्रोहर की रक्षा कर सकती थी। यह चुनाव सहज ही या स्थायी रूप से नहीं हो गया। उदाहरण के लिए बहुत से नेता मजबूत केन्द्रित एकात्मक सरकार के पक्ष में थे ;और हैंद्ध जो देश की केन्द्रियेविरोधी  शक्तियों पर अंकुश रख सके। देश के विभाजन ने ढीले ढाले संघ के पक्ष में ;जिसमें हिन्दू बहुमत और मुस्लिम बहुल प्रान्तों को बहुत स्वायत्तता
होतीद्ध सबसे बड़े तर्क को खत्म कर दियाऋ और ‘‘शक्तिशाली केन्द्र’’ का पक्ष और मजबूत कर दिया। लेकिन दूसरी ओर विकेन्द्रित व्यवस्था की धरणा भी बड़ी मजबूत थी और प्रभावशाली प्रान्तीय नेता जिन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को मजबूत बनाया था, केन्द्र को सारे अध्किार दे देने के विरुध   गन्धिवधि  परम्परा भी कन्द्रीकरण के विरुद्ध  थी और गाँवों को राष्ट्रीय शासन का आधर बनाना चाहती तथा गरीब और शोषित ग्रामीण जनता को देश की स्वतन्त्राता से होने वाले लाभों का उचित हिस्सा देना चाहती थी। देश के संविधन के
निर्माताओं को इन दोनों विरोधी विचारधराओं में सामंजस्य करना था। अतः उन्होंने ऐसी व्यवस्था की, जिसमें केन्द्र को व्यापक क्षेत्र 
और शक्ति-साध्नों में प्रमुख भाग और अवशिष्ट अध्किार दिए गये। साथ ही राज्यों को भी
कापफी अध्किार प्राप्त हुए। आगे चल कर एक और बात की गयी जिससे भारतीय राज्यव्यवस्था
के संघीय स्वरूप को और बल मिला। यह थी पंचायती राज ;लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरणद्ध की व्यवस्था। इसका आधर पुरानी परम्परा और गाँधी विचारधारा में था, लेकिन इसे लागू करने का श्रेय जवाहरलाल नेहरू को
था। इस पद्धती  पर भारतीय संघ व्यवस्था के साधरण स्वरूप पर हम आगे के अध्यायों में विचार करेंगे। यहाँ हम यह देखेंगे कि केन्द्र और परिधि  राज्य के   सम्बन्ध् को निश्चित करने में, परम्परा और आध्ुनिकता की प्रवृत्तियाँ, उनके प्रभाव से निर्मित राष्ट्रीय आन्दोलन की विचारधरा देश की परिस्थितियों तथा नेताओं
की दूरदर्शिता और विचार - इन सब का प्रभाव पड़ा। इस नयी व्यवस्था को चलाने में सबसे
महत्त्वपूर्ण भाग था एक मध्यवर्ती नेतृवर्ग का जो सबसे ऊपर के राष्ट्रीय नेताओं में और सबसे नीचे ग्रामीण नेताओं के सम्बन्ध् में जोड़ता है। इन बीच के आदमियों ने प्राचीनता और आधुनिकता में समझौता कराने में बड़ी  योग्यता का परिचय दिया है। भारत में राजनीतिक सौदेबाजी या मोलभाव की इस नयी प्रणाली
को कुछ राजनीतिक आलोचक लक्ष्य नहीं कर सके। ऊपर के नेताओं और जनता के अगुओं में यह मोलभाव सीधा नहीं, उपर्युक्त मध्यस्थ वर्ग के जरिये होता है। यह मध्यस्थ वर्ग जिला या निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर काम करता है। ये मध्यस्थ दलालों की भांति महज सौदा ही नहीं पटाते, बल्कि ये दोनों पक्षों को एक-दूसरे
के सम्पर्क में लाते है और बताते हैं कि उन्हें क्या अवसर मिल रहे हैं। इस तरह वे नयी व्यवस्था के सर्वोत्तम संचालक और संगठक सिद्ध होता है  पश्चिमी लोकतन्त्रा में विभिन्न हितों का समुच्चयन या एकत्राीकरण राष्ट्रीय स्तर पर होता है जबकि पुराने ढंग की राजनीतिक व्यवस्था में हित व निष्ठाएँ अलग-अलग खंडों
में बंटी होती हैं। भारत में जो प्रणाली विकसित हुई है, वह इस से भिन्न है। इस में शक्ति
बिखरी हुई या अकेन्द्रित है ओर विकसित हुई है, एक व्यापक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक स्वतन्त्रा छोटी व्यवस्थाओं का रूप धरण करती है। इन छोटी व्यवस्थाओं से स्थानीय हितों की रक्षा होती है। पुराने समय में स्थानीय सामन्त या मुखिया और उनकी आश्रित प्रजा में जो सम्बन्ध् होता था, कुछ वैसा ही इस मध्यवर्ती
व्यवस्था का भी है। इसके साथ ही आधुनिकता राजनीतिक क्रिया-कलाप मे भी ये हाथ बँटाती 
हैं। इस प्रणाली को हम मध्यवर्ती समुच्चयन कह सकते हैं। आगे के अध्यायों में हम प्रशासनिक और दलीय प्रणाली में इस मध्यवर्ती समुच्चयन कह सकते हैं। आगे के अध्यायों में हम प्रशासनिक ओर दलीय प्रणाली में इस मध्यवर्ती शृंखला के स्थान पाने पर विचार करेंगे। इस समय इतना ही कहना कापफी है
कि पुराने और अनेकात्मक समाज में राष्ट्र निर्माण की क्रिया इस प्रकार की मध्यवर्ती प्रणाली को जन्म देती है, जो केन्द्र और इकाइयों में, पुरानी और नयी व्यवस्था में सम्बन्ध् जोड़ती है। इस मध्यवर्ती प्रणाली का
मुख्य काम नेता और जनता, सरकार और प्रजा, केन्द्र और जिला प्रदेश या जिलों के बीच मध्यस्थता करना है।
परम्परा और परिवर्तन की प्रवृत्तियों की परस्पर क्रिया पर विचार करते समय राजनीतिक विकास सम्बंधित कुछ और प्रश्न उठते हैं। एक तो यह कि परम्परा और आधुनिकता की इस दोहरी प्रणाली को केन्द्रीय प्रतीक कहाँ तक प्रभावित कर सकते हैं। नयी शिल्प विध्यिाँ और राजनीतिक तन्त्र के सामने पुराने आदर्श और
प्रतीक डगमगा रहे हैं। इस स्थिति में यह प्रश्न  महत्त्व का है। दूसरा प्रश्न यह है कि ऐसे अनेकात्मक समाज में राष्ट्रीयता का सच्चा बोध् कहाँ तक हो सकता है। तीसरा, यदि नयी अस्मिताएँ या निष्ठाएँ उदय होती हैं तो इसके साथ कौन से नये संघर्ष और अन्तर उत्पन्न होते हैं। तीसरे, ऐसी दोमुँही ;आगे ओर पीछे देखने
वालीद्ध व्यवस्था में भविष्य की ओर देखने की प्रवृत्ति कैसे लाई जा सकती है, जिससे आगे उठने वाली समस्याओं को देखा जा सके और उनका उपाय किया जा सके और उनको भविष्य के भरोसे न छोड़ा जाए।

                    
                                       रजनी कोठारी देश के शीर्ष राजनीतिक चिन्तक

रहे हैं। हाल ही में उनका निधन हुआ है। श्राधान्जली

स्वरूप उनकी पुस्तक का एक अंश प्रकाशित किया          
जा रहा है।

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