आधुनिक भारत और नेहरु
नेहरू ने 1942-44 के दौरान
अहमदनगर की जेल में रहने की अवधि में ‘भारत- एक खोज’ की रचना की थी। पर ऐसा लगता है कि इतिहास ने उनकी नियति भारत की खोज से अधिक भारत के नवनिर्माण की दिशा में मोड़ दी थी। नेहरू किसी शान्त, स्थिर या परिवर्तहीन देश के नहीं बल्कि
बुरी तरह से उबलते और स्वयं को बदलने के लिए आतुर देश के मुखिया के रूप में उभरे
थे। वह अपनी सम्पूर्ण बौद्धिक प्रतिभा और राजनीतिक अनुभवों से उस भारत को राष्ट्र
के रूप में संगठित कर रहे थे जहाँ धर्म और छोटी-छोटी जातिगत पहचानें कई तरह के
हिंस्र टकरावों में उलझी थीं। हिन्दुओं और मुस्लिमों के साम्प्रदायिक संगठन किसी
भी छोटी घटना को तूल देकर कत्लेआम का आयोजन कर सकते थे। अँग्रेजी साम्राज्यवाद
द्वारा भारत को साम्प्रदायिक रूप से बाँटने और भारतीयों को आपस में लड़ाने के प्रयास काफी हद तक सफल हो चुके थे। इसी कारण भारतीय समाज की संस्कृतियों व धर्मों की विविधता को मूलतः विविधता के रूप में न देखकर उसे
अलगाव या विभाजन के रूप में स्वीकार
किया जाता था। गाँधी के अहिंसा सम्बन्धी आह्वान किसी पवित्र धार्मिक सन्त की अनसुना कर देने योग्य आवाज से अधिक कुछ
नहीं रह गये थे। वह अक्सर ही अपने महात्मापन में कैद हो जाते थे और भारतीय समाज
जिन सत्यों से आवेष्टित था, उससे स्वयं को अलग कर लेते थे। तब नेहरू ने ज्यादा व्यवहारिक चातुर्य से भारत
को धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में परिभाषित करने का ऐतिहासिक योगदान दिया। 1954 के आम चुनावों में उन्होंने कहा- ‘मैं अगले दस चुनाव हार जाने के लिए तैयार हूँ पर किसी भी कीमत पर साम्प्रदायिकता और जातिवाद से
समझौता करने के लिए नहीं तैयार हूँ।’ नेहरू में राजनीतिक शुचिता के लिए भी गहरा सरोकार था और मध्यप्रदेश के रीवां में एक बार वे अपने काँग्रेसी
उम्मीदवार के पक्ष में भाषण देने गये थे। वहां उन्हें पता चला कि वह उम्मीदवार कुछ विवादास्पद मसलों में
पफंसा है तो उसको हराने की अपील कर आये थे। प्रधानमंत्री मोदी विदेश
में जाकर भारतीय संस्कृति की धार्मिक बहुलता की रक्षा करने की सौगन्ध खाते हैं, पर पीछे उन्हीं के संगठन के लोग चर्च, मस्जिद और अल्पसंख्यकों के खिलापफ रोज हिंसा करते हैं, और मोदी एक सियासी चुप्पी ओढ़ लेते हैं। जाहिर है कि वर्तमान भारत खतरनाक दिशा की ओर बढ़ रहा है जहाँ वह
लोकतन्त्रा को छोड़कर अल्पसंख्यकों के दमन, नागरिकों के
अधिकारों के हनन और मानवाधिकार उल्लंघन को बढ़ावा देने लगेगा। इसी तरह नेहरू का
समाजवादी भारत का स्वप्न इस समय सबसे कम स्वीकार और किया जाने वाला और सबसे कम
सम्मानित स्वप्न के रूप में देखा जाता है। समाजवादी भारत केवल एक अधूरा प्रोजेक्ट
नहीं बल्कि पूरी तरह से तिरस्कृत प्रोजेक्ट में बदल गया है। भारत में राजकीय
समाजवाद को लागू करने वाली एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्था योजना आयोग को पहले तो काँग्रेस ने कमजोर किया और अब
भाजपा ने उसे पूरी तरह से इतिहास का अंग बना दिया है। कुल मिलाकर भारत में
नेहरू की नीतियों और सियासत के लिए जगह कापफी घट चुकी है। इसका एक कारण तो यह है कि कोई विचारधारा किसी पीढ़ी या युग के द्वारा प्रयुक्त होने के बाद धीरे-धीरे अपनी आभा को खो देती है और वह नये
भौतिक यथार्थ का सामना नहीं कर पाती है। विचारों की आयु भी निश्चित होती है और
भविष्य पर एकाधिकार रखने की ताकत किसी विचार को नहीं प्राप्त होती है। अतीत में जो
विचार या विचारधारा जितनी आदर की पात्रा लगती है, वर्तमान में वही उपयोग के लायक नहीं
लगती है। कहने की जरूरत नहीं कि दुनिया में जिस तरह के मानव समाज हर चीज का
उपयोगिता के आधार पर आकलन करता है, उसी तरह वह विचारों की उपयोगिता न कि किसी आदर्शवाद के आधार पर स्वीकार
या खारिज करता है। इसलिए नेहरू के विचारों की उपेक्षा केवल नेहरू के विरोधियों के द्वारा नहीं बल्कि समाज के वर्तमान आर्थिक-राजनीतिक चरित्रा के द्वारा भी
होती है। नेहरू की खूबी यह भी थी कि वे आधुनिकतावादी होने के साथ-साथ समाज की
परम्पराओं को भी स्वीकार कर सकते थे। वे अतीत के बोझ को उतार पफेंकने के साथ-साथ
अतीत-इतिहास से सीखने के लिए भी तैयार रहते थे। उनकी
अँग्रेजी शिक्षा ने उन्हें जमीन की जीवन से काटने के स्थान पर जमीनी सचाइयों से बेहतर तालमेल कायम करने के लिए तैयार किया था। इसीलिए नेहरू के मन
में उन आधुनिकतावादियों के लिए तिरस्कार था जो विशिष्ट और शिक्षित होने के नाम पर
परम्परा-अतीत का नाम सुनते ही मुँह बनाने लगते थे। या जो कुछ बड़े महानगरों में
स्थायी आवास बसा लेने के कारण शेष भारत से स्वयं को अलग कर लेते
थे। नेहरू ने वामपन्थियों की भी अपनी ‘पुस्तक भारतः एक खोज’ में इस आधार पर आलोचना की है कि वे देशज परम्पराओं से संवाद करने की जरूरत को नहीं
समझते हैं और हर तरह के ज्ञान के लिए पश्चिम का मुँह ताकते हैं। पर कुछ विषयों पर
नेहरू भी एकांगिता के शिकार थे। जैसे कि नेहरू की धर्मनिरपेक्षता बहुत सराहनीय
लगने के बावजूद प्रायः यान्त्रिक और यूटोपियन प्रतीत होती थी क्योंकि वह भारतीय समाज के
धर्मनिरपेक्षीकरण की पीड़ादायक प्रक्रिया को समझने के स्थान पर उसे ऊपर से
आरोपित की जाने वाली कोई वस्तु समझते थे। उन्हें यकीन था कि जैसे ही आर्थिक सवाल
प्रमुख होने लगेंगे, साम्प्रदायिक दल
पीछे हटने लगेंगे। लोगों के रोजगार, उद्योग, आवास के प्रश्नों
को जब भारतीय राज्य हल करने का संकल्प प्रकट करने लगेगा तो समाज अपने आप धर्मनिरपेक्षता के महत्त्व को स्वीकार कर लेगा। किसी बुनियादी
क्रान्ति के अभाव के बावजूद समाजवादी राज्य धीरे-धीरे धर्म का राजनीतिक प्रयोग करने वालों
को हाशिए पर पहुँचा देगा। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी सोच के
अन्तर्विरोधों पर स्वयं नेहरू के प्रशंसकों की नजर पड़ी है। विपिन चन्द्रा जैसे
इतिहासकार जो नेहरू को आधुनिक भारत के निर्माण का श्रेय देने का पक्ष लेते रहे हैं, वे भी मानते हैं कि
नेहरू की धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नीति कुछ अतिरेकी आत्मविश्वास पर आधारित थी। गत सदी के पूरे 40 के दशक में नेहरू मानते थे कि हिन्दू राष्ट्र या मुस्लिम
राष्ट्र की राजनीति कल्पना पर टिकी है और सचाई का सामना होते ही यह लुप्त हो
जाएगी। पर पफासीवाद या साम्प्रदायिकता को निकट से समझने
के प्रयासों के बावजूद वे यह नहीं देख पा रहे थे कि साम्प्रदायिक दल केवल
धर्म के आधार पर नहीं बढ़ते हैं बल्कि लोगों के बीच अपनी अपील को बढ़ाने के
लिए कई बार वे अपनी राजनीति में आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों को भी शामिल कर
लेते हैं। इसलिए जो नेहरू हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग जैसे साम्प्रदायिक दलों पर
ताना कसते थे कि उनके पास देश के लिए कोई सुचिंतित आर्थिक कार्यक्रम ही नहीं है, उन्हें भी बाद में दिखने लगा कि मुस्लिम बड़ी आसानी से
रेडिकल आर्थिक सुधारों, स्वतन्त्राता सम्बन्धी मांग या समानता सम्बन्धी विचारों को अपनी ‘टू-नेशन थ्योरी’ के साथ जोड़ने लगी। इस तरह साम्प्रदायिकता या साम्प्रदायिक दल अपनी विचारधारा
के अन्तर्गत प्रगतिशीलता के कुछ तत्त्वों को भी अपने भीतर समेटने की सपफल
कोशिश करते हैं। यह वर्तमान में भी दिखता है जहाँ आरएसएस-भाजपा एक ओर हिन्दुओं का ध्रुवीकरण
करते हैं तो दूसरी ओर अम्बेडकर के विचारों या गाँधी दर्शन के लिए भी समर्थन जताने
से नहीं चूकते हैं। साम्प्रदायिक-पफासिस्ट दल लम्बे समय तक
किसी एक मुद्दे पर अपनी ऊर्जा को नष्ट नहीं करते हैं बल्कि वे नए-नए उपायों को
अपनाते हैं ताकि उनका जनाधार किसी एक वर्ग या जाति तक सीमित रहने के स्थान पर
व्यापक रूप से फैलता चला जाए। इसीलिए आजादी के कई साल बाद नेहरू को अहसास हुआ कि
केवल शिक्षा अथवा प्रयोगशाला व तकनीकी विज्ञान के प्रसार से साम्प्रदायिकता को
नहीं रोका जा सकता है बल्कि शिक्षा की वैज्ञानिक अन्तर्वस्तु पर भी उतना ही जोर
देना पड़ेगा। भारत को धर्मनिरेपक्षता की राजनीतिक संस्कृति देने में भले ही नेहरू
सफल न हुए हों, पर भारत के शासन
तन्त्रा को धर्मनिरपेक्ष बनाने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। ढेरो संस्कृतियों और भाषाओं वाला भारत नामक राष्ट्र विविधता
से घृणा करने वाले टुच्चे और बौने दिमाग के नेताओं के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता
है। भारत को समझने के लिए आज भी नेहरू जैसे किसी उदारमना नेता की जरूरत है।
वैभव सिंह
लेखक आलोचक और प्राध्यापक है
+919711312374
vaibhavjnu@gmail.com
No comments:
Post a Comment