17 May 2015

सबलोग मई 2015


लोकतान्त्रिक मर्यादा के शिखर पुरुष  

                     कर्मेन्दु शिशिर

पण्डित जवाहरलाल नेहरू अपने समकालीनों में सम्भवतः सबसे अधिक आधुनिक सोच वेफ थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैण्ड में हुई थी और वे यूरोप को देखकर ही नहीं, जी कर समझ चुके थे। मगर वे इतिहास वेफ एक बड़े  अध्येता भी थे और उन्होंने भारतीय इतिहास को गहराई से समझा था। अपनी आत्मकथा मेरी कहानी में वे लिखते हैं, ‘‘पुरानी दुनिया खत्म होने जा रही है और एक नये संसार का निर्माण हो रहा है, किसी समस्या का जवाब ढूंढ़ने के  लिए यह जरूरी है कि पहले यह जान लिया जाय कि वह है क्या? निस्सन्देहसमस्या को समझना उतना ही महत्त्व रखता है, जितना कि उसका हल निकालना।’’ इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे वत्र्तमान समस्याओं को अच्छी तरह समझ रहे थे और उन्होंने साम्राज्यवाद, पफासिज्म और भारत में सम्प्रदायवाद के  खतरों को स्पष्टता से समझा था। वे किसानों और मजदूरों की समस्याओं को भीबारीकी से समझ रहे थे। उन्होंने इस पर गम्भीरता से विचार भी किया है। उनवेफ भीतर नये भारत के  निर्माण की जेनुइन तड़प भी थी। उनकी समस्या वह द्वन्द्व था कि वे किस प्रणाली से भारत का निर्माण करें? यूरोप के  अलावे उनके  सामने दो उदाहरण और थे, जिसे वे साफ-साफ देख रहे थे। लिखते हैं ‘‘रूसके  अलावा और जगह भी ‘नवीन योजनाओं’ और महान परिवत्र्तनों की चर्चाएँ हो रही हैं। पूंजीवादी  प्रणाली को सब प्रकार से कायम  रखने और मजबूत करने की प्रबल आन्तरिक इच्छा वेफ बावजूद प्रेसीडेण्ट रूजवेल्ट ने अत्यन्त साहस-भरी ऐसी योजनाएँ प्रचलित की हैं, जिससे अमेरिका का सारा जीवन ही बदल सकता है।’’ रूस और अमेरिका में हो रहेपरिवत्र्तनों, योजनाओं और प्रणालियों का यह द्वन्द्व तो समझ में आता है, जिसे वे भारत में आयात करने को लेकर प्रयत्नशील रहे। मगर जो बात हैरान-परेशान करती है कि वे मौलिक  भारत के  निर्माण के  लिए गाँधी जी की योजनाओं और प्रणालियों को अपनाने को लेकर क्यों नहीं उत्सुक हुए? आश्चर्य है कि महात्मा गाँधी उनके  विचार और व्यवहार में कभी आये ही नहीं। हर समय, हर पल उनसे एक दूरी बनती गयी और भारत एक अलग राह पर चलता चला गया। अगर आज महात्मा गाँधी स्वर्ग से भारत में लौट आते तो वे अपने  को बेहद अजाना और बेगाना महसूस करते। कहीं से उनको अपना भारत लगता ही नहीं।अब नेहरू जी की नये भारत वेफ निर्माण की उस शैली पर भी विचार करें-‘‘अगर किसी प्रमुख आवश्यक परिवत्र्तन के  रास्ते में स्थापित स्वार्थवाले बाधक हों तो क्या यह धर्म होगा कि जन-समूह को दुःखी तथा दरिद्र  रखकर उनको कायम रखने का प्रयत्न किया जाय? अवश्य ही हमारा उद्देश्य स्थापित स्वार्थों को आघात पहुँचाना नहीं है, बल्कि उनको दूसरे लोगों को हानि पहुँचाने से रोकना है। इन स्थापित स्वार्थों से समझौता हो सकना मुमकिन हो सकता हो तो वह कर लेना अत्यन्त वांछनीय होगा।’’ समस्या यहाँ थी। स्थापित स्वार्थों को बनाए रखकर उनसे समझौता करना उसी तरह की बात थी, जैसे कोई बिल्ली से समझौता करे कि वे चूहे को न खाए। परस्पर विपरीत वर्गीय स्वार्थों को बनाये रखना और समझौते की रणनीति की यह प्रक्रिया आज तक चलती चली आ रही है। पूंजीपति वर्ग, राजशाही और सामन्त, कट्टरवादी सभी को कायम रखकर आखिर नेहरू जी प्रगति और विकास की कौन सी और वैफसी परिकल्पना कर रहे थे? लेकिन वे इस खतरे से अनजान थे, ऐसा भी नहीं था। आगे वे लिखते हैं-‘‘यह समझौता इस प्रकार नहीं हो सकता कि नया स्थापित स्वार्थ कायम करवेफ पहले स्थापित स्वार्थ को हटाया जाय।’’ उनका विश्वास यह था कि मुआवजा देकर झगड़े से बचा जा सकता है क्योंकि वे किसी वर्गीय अशान्ति के  खिलापफ थे। नेहरू जी की सोच और कार्यप्रणाली में मुख्य पेंच यही था कि वे हर हालत में वर्गीय हितों में सामंजस्य स्थापित करने के  पक्षधर थे, जो नामुमकिन था। खुद आगे लिखते हैं -‘‘परन्तु दुर्भाग्य से सारा इतिहास यह बताता है कि स्वार्थ वाले वर्ग इस प्रकार से समझौता मंजूर नहीं करते’’। फिर  वे अन्ततः किस सोच और किस रास्ते का चयन करना चाहते थे? उनवेफ उद्देश्य को लेकर तो कोई संकट नहीं, संकट उसे मूत्र्त करने में था। उद्देश्य सापफ था ‘‘हमारा उद्देश्य किसी को वंचित करना नहीं, वरन् सम्पन्न करना है, वत्र्तमान दरिद्रता को सम्पन्नता में बदल देना है।’’ पं0 जवाहरलाल नेहरू जैसा विरल व्यक्तित्व क्या इन तमाम पक्षों वेफ प्रति उदासीन था? क्या उसे आनेवाले समय का अहसास नहीं था? उनकी ईमानदारी कहीं से सन्दिग्ध नहीं थी, तो क्या उनका मूल संकट असमंजस और द्वंद्व था? मेरी कहानी के  आखिरी हिस्से में उन्होंने आत्म निरीक्षण करते हुए अपने मानस और सोच वेफ बुनावट की खुद पड़ताल की है। यह पं0 नेहरू को समझने के  लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंश है। ‘‘मैं पूर्व और पश्चिम का एक अजीब-सा सम्मिश्रण बन गया हूँ, हर जगह बे-मौजूं, कहीं भी अपने को अपने घर में होने जैसा अनुभव नहीं करता। शायद मेरे विचार और मेरी जीवन-दृष्टि पूर्व की अपेक्षा पश्चिमी अधिक हैं, लेकिन भारतमाता अनेक रूपों में अपने अन्य बालकों की भांति, मेरे हृदय में भी विराजमान है, और अन्तर के  किसी कोने में, कोई सौ ;या संख्या वुफछ  भी होद्ध पीढि़यों वेफ ब्राह्मणत्व वेफ संस्कार छिपे हुए हैं। नेहरू जी की इस स्वीकारोक्ति से उनको विद्वानों ने कोई क्षमादान नहीं बक्शा । प्रसि इतिहासकार सर्वपल्ली गोपाल ने इस पर विचार करते हुए इस सवाल की गंभीर पड़ताल की  है। उन्होंने 1920 वेफ उनवेफ उत्तर प्रदेश में किसानों वेफ बीच जाने को लेकर लिखा है कि ‘‘उन्हें इससे मनोवैज्ञानिक सन्तोष मिलता था... वह खुद का पुनः भारतीयकरण कर रहे थे।’’ सर्वपल्ली गोपाल ने बेलाग-लपेट लिखा है कि ‘‘उन्होंने आर्थिक तथा जमीन सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन नहीं किया था और न ही उनके  पास जनसाधारण को देने वेफ लिए कोई आर्थिक विचारधारा थी। भारतीय राष्ट्रवाद को क्रान्तिकारी आयाम देने की बात उन्होंने नहीं सोची थी और निश्चय ही वह किसान विद्रोह की बात नहीं सोच रहे थे। वस्तुतः उनका पूरा प्रभाव सन्तुलन की ओर लगा हुआ था।’’ ‘सन्तुलन’ बनाये रखने का मूलमन्त्र ही काँग्रेसी शासन की संजीवनी बनी रही- देश भले कबाड़खाना बन जाए। सर्वपल्ली गोपाल उनकी विचार सीमाओं का ठीक-ठीक आकलन करते हुए इस निष्कर्ष तक आते हैं कि ‘‘नेहरू के  राजनीतिक विचार एक संकीर्ण खांचे में पफंसे हुए थे, जो कि अराजकतावाद और ग्राम सरकार, गाँधी और बट्र्रेंड रसेल का अधकचरा मिश्रण था।’’ इस पर वे विस्तार से विचार करते हैं। एक जगह वे लिखते हैं- ‘‘क्यों नेहरू ने माक्र्सवाद तक पहुँचकर भी, इसे इसकी  सम्पूर्णता में अस्वीकार कर दिया? इसका उत्तर व्यक्तित्व, माहौल और मानसिक अभिवृत्तियों का एक मिश्रित रूप है। नेहरू वेफ मस्तिष्क में बहुत गहरे उनका रोमानीपन था, जिसे उन्होंने कभी नहीं छोड़ा, प्रतिक्रिया करने वेफ लिए उनकी भावनाओं का जागना और अन्तग्र्रस्त होना जरूरी था। और इससे पता चलता है कि क्यों उनवेफ जीवन के  पहले तीस वर्षों में उनमें वुफछ भी असाधारण न था।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘तात्कालिक सन्दर्भों के  प्रति उनवेफ भीतर इतनी आत्मसचेत प्रसन्नता थी कि आगे  के रास्ते के लिए या अपने सुदूरगामी लक्ष्यों के  प्रति उन्होंने चिन्ता नहीं की। उन्होंने अपने लिए भावनात्मक राष्ट्रवाद का एकपालना बना रखा था, जिसमें वे झूल रहे थे।’’उनवेफ अनुसार पं0 नेहरू की विचारधारा में ही बुनियादी खोट थी। नेहरू जी अति आत्मविश्वास के  साथ एशियाई परम्परा और आर्थिक पिछड़ेपन वाले समाज में यूरोपीयपरम्परा का ऐसा परिवत्र्तन लाना चाहते थे-जो  प्रजातान्त्रिाक समाजवाद जैसा हो। सर्वपल्ली गोपाल वेफ अनुसार वे जीवनभर यही असम्भव और अतिमानवी प्रयोग करते रहे। आज हम कह सकते हैं कि उनवेफ पास भारत वेफ भविष्य रचने का कोई विज्ञानं नहीं था। नेहरू जी भले स्वप्नदर्शी हो सकते हैं, मगर वे स्वप्नशिल्पीकहीं से नहीं थे। पं0 नेहरू वेफ व्यक्तित्व में पूर्व और पश्चिम का यह सम्मिश्रण, यह द्वन्द्व आने वाले समय में पूरे भारत की नियति बन गयी। भारत का व्यक्तित्व न ठीक-ठीक पश्चिम जैसा बना,  न वह पूर्व जैसा बन पाया। एक मौलिक विकास की बात तो दूर की थी। आज भारत और इंडिया की मौजूदगी एक बड़ी समस्या वेफ रूप में सामने है। नेहरू अब नहीं हैं, मगर भारत है। उसे इस दोराहे पर अपने रास्ते का चयन करना है। नेहरू जी ने जिस ब्राह्मणत्व वेफ संस्कार की चर्चा की है, उसकी जड़ें भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को दशकों तक प्रभावित करती रही। नेहरू जी और इन्दिरा गाँधी की राजनैतिक व्यवस्था में वेफन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और तमाम तत्कालीन बड़े पदों पर सवर्णों खासतौर पर ब्राह्मणों का आधिपत्य बना रहा। ब्राह्मण, दलित और मुसलमान वेफ नाम पर काँग्रेस दशकों तक राज करती रही। डाॅ राममनोहर लोहिया वेफ लगातार चेताये जाने वेफ  बावजूद भारतीय सामाजिक यथार्थ को झुठलाया  

                                                                                                                                                     कर्मेन्दु शिशिर                                     लेखक  राष्ट्रीय नवजागरण के अध्येता और                                                                              प्राध्यापक हैं।                                                              +919431221073                                  

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