शंकर शरण
एक हिन्दी प्रकाशक ने न्यायालय से सच्चिदानन्द
वात्स्यायन (अज्ञेय) की
कुछ पुस्तकें अन्य प्रकाशनों द्वारा
छापने पर रोक लगाने का मुकदमा किया है। ये पुस्तकें हैं, ‘शेखर – एक जीवनी’, ‘नदी के द्वीप’ और ‘अरे यायावर रहेगा
याद?’ ।
इस प्रकाशक का कहना है कि उसे छः वर्ष पहले इन पुस्तकों को प्रकाशित करने का
अधिकार वत्सल निधि न्यास ने दिया था, जो अज्ञेय की पुस्तकों का अधिकारी है।
लगता है, लेखक प्रकाशक के संबंध पर अज्ञेय ने जो
चालीस-बयालीस वर्ष पहले लिखा था, वह अब भी वैसा ही
है। अज्ञेय के शब्दों में, ‘प्रकाशक और लेखक
का संबंध साँप और नेवले का है, अथवा साँप और मेढ़क का, अथवा साँप और छछूंदर का –
इस बारे में बहस हो सकती है; लेकिन सच मानिए कि हर हालत में
साँप प्रकाशक ही है!’ फिर अज्ञेय ने जोड़ा था कि यह
लेखक की प्रतिभा पर निर्भर है कि वह क्या रहता है।
अब कल्पना करने की बात है कि किसी दिवंगत लेखक
की स्थिति ऐसे प्रकाशक के समक्ष क्या है, जिस का लेखक के जीते-जी कोई संबंध न रहा?
अज्ञेय की अनेक महत्वपूर्ण कृतियाँ दिल्ली के राजपाल एंड संस तथा नेशनल पब्लिशिंग
हाउस से दशकों से प्रकाशित होती रहीं। राजपाल से उन की 14 तथा नेशनल से 12
पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं। वस्तुतः ‘शेखर – एक जीवनी’और ‘अरे यायावर रहेगा याद?’लंबे समय से नेशनल द्वारा ही प्रकाशित
होती रही हैं। अभी भी इन पुस्तकों के अधिकार नेशनल के ही पास हैं। नेशनल के
अनुसार, ‘वत्सल निधि’ ने उसे कभी वापस
नहीं लिया।
इसलिए यह याचिका दायर करने वाले प्रकाशक की स्थिति कई तरह से संदिग्ध है,
जिसे अज्ञेय ने केवल एक पुस्तक दी थी, वह भी दूसरा संस्करण नहीं दिया। यह अकारण
नहीं था। कहीं पर स्वयं अज्ञेय ने यह कहा है कि अमुक
प्रकाशकों से उन की पुस्तकें न छापी जाएं। पर आज उस की अवज्ञा हो रही है। ऐसे लोग अज्ञेय
की पुस्तकों पर दावा कर रहे हैं जिन्होंने जीते-जी अज्ञेय को उपेक्षित, निंदित
किया था। अज्ञेय के निकटवर्ती अनेक लेखक, विद्वान अभी मौजूद हैं। वे पुष्टि कर
सकते हैं कि जिस प्रकाशक ने यह याचिका दायर की है, उसे अज्ञेय कभी प्रकाशन की
अनुमति न देते।
अज्ञेय के जीवन, विचार और संबंध-शैली से
परिचित सभी लोग जानते हैं कि कुछ प्रकाशकों से उन का आत्मीय संबंध रहा था। ये
प्रकाशक आज भी कार्यरत हैं। अतः कोई गड़बड़ है कि ऐसे प्रकाशक को अज्ञेय की
पुस्तकें दे दी गई, जिसे स्वयं अज्ञेय ने नहीं दिया था। क्या यही समझें कि लेखक के
दिवंगत हो जाने पर साँप ने उस के साथ भी मनमानी का प्रबंध कर लिया, जो लेखक के
जीते-जी नहीं हुआ होता?
अज्ञेय का संपूर्ण लेखन उस युग में हुआ जब
दुनिया में मार्क्सवादी लेखकों की गुटबंदी और प्रचार का दबदबा था। पर अज्ञेय
स्वतंत्र चेतना के कवि थे। यद्यपि उन्होंने स्वयं क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया
था, जेल में रहे थे और उन्हें फाँसी की सजा संभावित थी। वे चंद्रशेखर आजाद और भगत
सिंह की टोली के सक्रिय सदस्य थे। जब भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बनी, उस
में भी अज्ञेय शामिल थे। लेकिन लेखक रूप में अज्ञेय खुली दृष्टि और स्वतंत्र थे।
वे साहित्य में राजनीतिक गुटबंदी पसंद नहीं करते थे। इसीलिए, भारत में वामपंथियों
ने स्थाई रूप से अज्ञेय के विरुद्ध घृणा अभियान चलाए रखा था। इस के बावजूद अज्ञेय
के लेखन की प्रसिद्धि देश-विदेश में फैलती रही।
यदि अज्ञेय के विरुद्ध वह अभियान न चला होता,
तो और पाठकों तक उन का लेखन पहुँचा होता। तब संभवतः उन्हें यहाँ और दुनिया में भी
वह स्थान मिलता जिस के वे सर्वथा योग्य थे। यहाँ टैगोर के बाद वैसी बहुमुखी, परिश्रमी
प्रतिभा अज्ञेय ही थे। अब यह वे भी मानते हैं जिन्होंने अज्ञेय के रहते उन का
तिरस्कार किया था। पर कैसी विडंबना कि वही अब अज्ञेय पर ‘कब्जा’ जमाने की कोशिश कर रहे हैं!
अपने अनुभवों में अज्ञेय ने यह भी कहा था, कि ‘यहाँ ऐसे निष्ठावान प्रकाशक भी हुए हैं जो लेखक के हितैषी भी हों और
सतसाहित्य के प्रणयन और प्रसार में योग दे सकें।’ क्या इस का
महत्व बताने की जरूरत
है? अज्ञेय
के अनुसार उन्हें ऐसे प्रकाशक भी मिले जो बंधु पहले थे, प्रकाशक बाद में। अतः
ध्यान रखना ही चाहिए कि निष्ठावान प्रकाशनों से अज्ञेय की पुस्तकें छपती रहें। इस
में यदि भूल हुई है, तो उसे सुधारना चाहिए।
दुर्भाग्यवश, अज्ञेय के दिवंगत होने के बाद उन
के द्वारा बनाए गए न्यास की स्थिति अच्छी न रही। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, डॉ. कर्ण
सिंह, इला डालमिया कोइराला, विद्यानिवास मिश्र, आदि सुयोग्य लोगों के बावजूद न्यास
का काम ठंढा पड़ गया। इन में तीन का असमय निधन भी हो गया। कारण जो भी हो, जिस
उद्देश्य से अज्ञेय ने ‘वत्सल निधि’ बनाई थी उस में कोई प्रगति न हो सकी। उलटे अज्ञेय की सभी पुस्तकें भी
सुंदर रूप में पाठकों को नियमित सुलभ रहें, यह भी न हो सका।
कम से कम यह तो सुनिश्चित करना ही चाहिए कि अज्ञेय की
पुस्तकें यथारूप छपती रहें। अपनी कई पुस्तकों में अज्ञेय ने अपने हाथ से कुछ
अर्थपूर्ण रेखा-चित्र बना कर जोड़े थे। उसे ‘अज्ञेय रचनावली’ में हटा दिया गया है। यह कितनी विचित्र और
गैर-जिम्मेदार बात है! कुछ अन्य संकलनों में तारीख तथा छापे की गलतियाँ भी मिलती हैं। इस से
अज्ञेय को अत्यंत क्लेश होता था। क्या आज तकनीक और साधन की उन्नति के बावजूद यह भी
ध्यान नहीं रखा जा सकता कि भारत के एक महान रचनाकार की पुस्तक त्रुटिहीन प्रकाशित
हो सके? इस के प्रति
लापरवाही दिखाती है कि अज्ञेय का वास्तविक मूल्य नहीं समझा गया है। उन की कविताएं,
निबंध, व्याख्यान, आदि पढ़ कर देखें। उन की मूल्यवत्ता हू-ब-हू बनी हुई है।
वस्तुतः कई सामाजिक समस्याओं पर अज्ञेय ने जो मार्ग बताया था, उस के सिवा
कोई विकल्प नहीं है। भाषा, शिक्षा और संस्कृति से जुड़े ज्वलंत प्रश्न तथा इन पर
समाज और सरकार की अलग-अलग भूमिका पर जिस गहनता से अज्ञेय ने लिखा था, उसे अभी तक यहाँ
कोई नहीं छू सका है। लेखक और सरकार का संबंध, अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक
आदान-प्रदान, जैसे विषयों पर भी उन का चिन्तन बहुमूल्य है। दुर्भाग्यवश इस का
व्यवहारिक मूल्य बहुत कम लोगों ने पहचाना है। जबकि अज्ञेय के काव्य की देन से अलग,
उन का सामाजिक चिन्तन भी एक बड़ी धरोहर है।
निस्संदेह, अज्ञेय का संपूर्ण लेखन न केवल भारतीय ज्ञान-परंपरा, वरन विश्व-साहित्य
की दृष्टि से भी क्लासिक श्रेणी में है। यदि वह सुलभ हो, तो उस की माँग उसी तरह
कभी खत्म नहीं होगी, जैसे टैगोर या टॉल्सटॉय की पुस्तकों के साथ है। इस पाठक का
अपना अनुभव है कि अज्ञेय की कविताएं, निबंध और व्याख्यान कितनी भी बार पढ़ने पर उस
का नयापन समाप्त नहीं होता। जो याद रहती हैं, उन के अलावा पहले की पठित सामग्री
में सदैव नये अर्थ दीखते हैं जो उसी तरह सामयिक और उपयोगी हैं, जब अज्ञेय के
लिखते, बोलते समय थे। ऐसा लेखन ही क्लासिक कहलाता है।
इसीलिए अज्ञेय के रहते दुनिया के अनेक देशों में बड़े लेखक, कवियों ने उन
की कविताओं का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया था। नोबल पुरस्कार के लिए अज्ञेय
की चर्चा बार-बार होती रही थी। इस में संदेह नहीं कि यदि यहाँ अंदरूनी,
विचारधाराग्रस्त, क्षुद्र साहित्यिक राजनीति ने पूरी ताकत से अज्ञेय को जब-तब
दबाया, झुठलाया न होता, तो यह विश्व-सम्मान पहले ही उन्हें मिल चुका होता।
अतः आज हम कम से कम इतना तो करें कि अज्ञेय की पुस्तकें राजनीतिबाज लोगों
के हाथ बंधक न बनें। जीवित लेखक ने साँप के हाथों अपने
को बचाए रखा था। कोई कारण नहीं कि लेखक के दिवंगत होने पर उन की पुस्तकें साँप के
हवाले कर दी जाए। अज्ञेय के निकटवर्ती रहे सभी महानुभावों को यह चिन्ता करनी
चाहिए। वे आज भी प्रभावशाली हैं। अज्ञेय साहित्य के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के साथ
अज्ञेय की भावनाओं का भी सम्मान हो, उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए।
सच तो यह है कि, जब ‘वत्सल निधि’ अस्तित्वहीन जैसी हो चुकी है, तो अज्ञेय की
पुस्तकों को कॉपी-राइट से मुक्त भी करने पर सोचना चाहिए – इस सावधानी के साथ कि
मूल संस्करणों की सामग्री को मनमाने संपादित न किया जाए।
वैसे भी, अज्ञेय ने उसी पाठक के लिए लिखा था, जो ‘समझता है और ग्रहण
करता है – अर्थात् उस के अनुसार कर्म करता है – वही...मेरा पाठक है।’ ऐसे पाठक कितने भी
कम हों, पर होते अवश्य हैं। वैसे पाठकों तक अज्ञेय की पुस्तकें निरंतर पहुँचती
रहें, केवल यह चिन्ता की जानी चाहिए। इसे धर्म का कार्य समझना चाहिए। इस बात में
तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं है, विश्वास करें।
सबलोग के जुलाई 2017 में प्रकाशित
लेखक राजनीति शास्त्र विभाग,महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय,बड़ौदा में प्रोफ़ेसर हैं|
+919910035650 bauraha@gmail.com
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