03 July 2017

मीडिया: संकट विश्वसनीयता का धीरंजन मालवे

मीडिया: संकट विश्वसनीयता का

 धीरंजन मालवे
विश्व में नवउदारवाद के उद्भव और विकास के साथ साथ विश्व के कतिपय बड़े देशों में मीडिया के बाजारीकरण की शुरुआत पिछली सदी के सत्तर के दशक में ही हो गयी थी. मीडिया के बाजारीकरण के विश्व के सबसे बड़े सरगना रूपर्ट मरडोक के नाम पर इस बाजारीकरण की घटना को मरडोकीकरण के नाम से भी जाना जाता है.

मरडोकीकरण और इसके चरित्र को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना आवश्यक है. इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया का व्यवसाय एक खर्चीला व्यवसाय है और इस खर्च को निकालने के लिए परंपरागत रूप से दो तरीके चलते आ रहे हैं. पहला टी.वी. चैनल या अखबार या पत्रिका का क्रय मूल्य और दूसरा विज्ञापन. विज्ञापन से होने वाली आय मीडिया के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत रहती आई है और इसके लिए मीडिया को बाज़ार पर किसी हद तक निर्भर रहना पड़ता रहा है. मगर इसके बावजूद मीडिया की अपनी कार्य संस्कृति, संस्कारों और मूल्यों के कारण संपादक और पत्रकार बाज़ार के इस दबाव को झेल पाने और अपनी अस्मिता को बचा पाने में सफल होते आ रहे थे. विशेषकर अखबारों के मालिक भले ही बड़े उद्योगपति होते थे मगर वे संपादकों और पत्रकारों के कामकाज में ज्यादा दखलंदाजी नहीं करते थे. संपादक और पत्रकार अपना काम पूरी व्यावसायिक स्वतंत्रता के साथ करते रहते थे. मगर रूपर्ट मरडोक ने इस परंपरा को तोड़ा.  उसने पहले ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका में प्रमुख अख़बारों, टेलीविज़न चैनलों और अन्य मीडिया प्लेटफॉरर्मों को खरीद कर अपना आधिपत्य कायम किया और फिर इस आधिपत्य के माध्यम से मीडिया के कामकाज में दखलंदाज़ी, या यूं कहें कि पूर्ण नियंत्रण की शुरुआत हुई.  सम्पादक का दर्जा घटने लग गया. मरडोक संचालित मीडिया खबरों का निष्पक्ष प्रस्तोता न रह कर यह तय करने लगा कि उसका एजेंडा क्या हो. एजेंडे के तहत खबरें इस हिसाब से परोसी जाने लगी कि किस नेता, पार्टी या सरकार का समर्थन करना है और किसकी लुटिया डुबोनी है. इस प्रकार के एजेंडे के पीछे कोई जनसेवा की भावना न होकर मरडोक का अपना व्यापारिक हित होता रहता आया है.

जहां तक भारत का प्रश्न है, यहाँ पत्रकारिता की शुरुआत एक मिशन के रूप में हुई थी, अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में एक हथियार के रूप में. आजादी की लड़ाई से जुड़े लगभग सभी बड़े बड़े नेता स्वतंत्रता  सेनानी के साथ साथ पत्रकार भी थे.  आजादी के बाद पत्रकारिता की भूमिका में बदलाव आया. अब उसे लोकतंत्र के चौथे खम्बे के रूप में अपने आप को स्थापित करना था.  भारत का स्वतंत्रयोतर इतिहास इस बात का गवाह है कि अनेक अख़बारों और पत्रकारों ने इस भूमिका को बखूबी अंजाम दिया. आज़ाद भारत में अनेक दिग्गज और निर्भीक पत्रकारों ने लोकतंत्र के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी किया. इनमें हम एम. चलपति राव, एम. वी. कामथ, गिरिराज जैन, धर्मवीर भारती, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, रघुबीर सहाय, राजेंद्र अवस्थी और प्रभाष जोशी जैसे विभूतियों की गणना कर सकते हैं. इनकी अपनी शक्सियत इतनी बड़ी थी के वे किसी भी राजनैतिक या व्यापारिक दबाव का सामना कर सकने में सक्षम थे. सन १९७५ में लगाये गए आपातकाल के दौरान में अनेक पत्रकारों ने अपने जुझारूपन का खूबसूरत नमूना पेश किया था.

भारत में मरडोक की तर्ज पर मीडिया के व्यापारीकरण की शुरुआत पिछली सदी के नब्बे के दशक में हुई. अगर इसकी पहलकदमी का सेहरा बांधना हो तो हम इसके लिए बेनेट कोलमैन एंड कंपनी के सर्वेसर्वा समीर जैन को चुन सकते हैं.  उन्होंने बड़ी ही साफगोई से यह घोषित किया था कि मीडिया भी एक वैसा ही व्यापार है जैसा कोई भी व्यापार; और अखबार एक वैसा ही उत्पाद है जैसा कोई भी उत्पाद. यानि ठेठ व्यापारिक दृष्टिकोण से अखबार और साबुन, तेल में कोई अंतर नहीं है.

बेनेट कोलमैन और समीर जैन ने इस नए मीडिया दर्शन को टाइम्स ऑफ़ इंडिया पर लागू भी कर दिया. पत्रकारिता के व्यापारीकरण के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा संपादक था. संपादकीय मूल्य बाज़ार के तर्क से सीधे सीधे टकराते थे.  लिहाज़ा संपादक की पारंपरिक अवधारणा को समाप्त कर दिया गया. समाचार पत्र से जुड़े अलग अलग विषयों, जैसे, राजनीति, अर्थव्यवस्था, खेल-कूद, फैशन इत्यादि के लिए तो अलग-अलग संपादक रखे गए मगर संपादकीय विभाग में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं बच गया जिसके पास अखबार की संपूर्ण सामग्री के साथ साथ इसके कला पक्ष पर भी नज़र रखने की जवाबदेही हो.  समाचार पत्र के समग्र संचालन का दायित्व प्रबंधन ने अपने ऊपर ले लिया.

धीर धीरे  टाइम्स ऑफ़ इंडिया की प्रबंधन शैली अन्य अखबारों पर भी हावी होने लग गई.  पाठकों को इसका कुछ लाभ भी मिला.  अखबारों का प्रसार बढाने के लिए जहां इसकी कीमतें कम की गयीं वहीं पृष्ठ संख्या भी बेहताशा बढ गयी. आज ३२ पृष्ठों का अखबार ३-४ रुपयों में मिल जाता है जबकि उसका लागत मूल्य २० से २५ रुपये आता है. अखबारों की  छपाई-सफ़ाई में भी सुधार हुआ. श्वेत-श्याम अखबार रंगीन हो गए. प्रसार बढाने की आपसी प्रतियोगिता के कारण पाठकों को उपहारों के माध्यम से भी लुभाया गया. 

किसी सीमा तक इस बाजारीकरण का लाभ पत्रकारों के एक वर्ग को भी मिला. हिंदी अखबारों के पत्रकारों, ख़ासकर क्षेत्रीय अखबारों के पत्रकारों की सेवा शर्तों में तो कोई विशेष सुधार नहीं आया मगर अंग्रेज़ी अखबारों के पत्रकारों और टेलीविज़न पत्रकारों के एक बड़े वर्ग की  तनख्वाहें काफी बढ़ गईं.

लेकिन इस व्यापारीकरण का नुक्सान पूरे देश और समाज को हो रहा है. मीडिया को सिर्फ एक व्यापार नहीं माना जा सकता. यह लोकतंत्र का चौथा खम्बा है. इसका मुख्य उद्देश्य लोकतंत्र में जनता के अभिव्यक्ति के अधिकार को सुनिश्चित करना है.  जनता अपने इस अधिकार का इस्तेमाल तभी कर सकती है जब उसे अपने देश, समाज और सरकार से सम्बंधित सम्पूर्ण, निष्पक्ष और वस्तुपरक सूचनाएं मिल रही हों.  यानी मीडिया की प्रतिबद्धता जनता के प्रति हो, शासक या उद्योगपति के प्रति नहीं. जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, आजादी के बाद के कुछ दशकों में यह प्रतिबद्धता बहुत कुछ देखने में आती थी.  ग्रामीण और कृषि से जुड़े अनेक मुद्दे मीडिया में जगह पा जाते थे.  साठ के दशक के दौरान देश के कई हिस्सों में आये अकाल की विभीषिका तथा अकाल पीड़ित क्ष्रेत्रों में राहत सामग्री में वितरण कें होने वाली गड़बड़ियों को मीडिया ने बड़ी हे संवेदना के साथ उद्घाटित किया था और इसके परिणाम स्वरुप सरकार ने भी कारगर कदम उठाए थे. आम जनता के हित में यह मीडिया का अत्यंत सकारात्मक और सार्थक हस्तक्षेप था.  

अब स्थिति बहुत कुछ बदल चुकी है. बाजारीकरण के बाद कृषि, किसान, गाँव और इनकी समस्याएँ मीडिया से काफी कुछ गायब सी हो गई हैं. किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्याएं अब किसी मीडियाकर्मी की चेतना को नहीं झकझोरती.  इसे अब एक रोजमर्रे की घटना मान लिया गया है.

बाजारीकरण के पूर्व विज्ञापनों और खबरों के बीच एक विभाजन रेखा होती थी. विज्ञापन को ख़बरों के रूप में नहीं परोसा जाता था और ऐसा करना अनैतिक माना जाता था. मगर पेड न्यूज़ की अवधारणा ने इस विभाजन रेखा को मिटा दिया है. पहले खबरों की एक मर्यादा होती थी और उसकी रक्षा की जाती थी. वे खरीद बिक्री का सामान नहीं थीं. मगर अब खबरें बिकाऊ माल की तरह हैं.  पैसे देकर अपने पक्ष में कुछ भी छपवाया जा सकता हैं. इस विकृति की शुरुआत पेज ३ से हुई. चमक दमक वाली पार्टियों से जुडी ख़बरें और तस्वीरें पैसे लेकर छापी जाने लगीं.  धीरे-धीरे यह व्याधि मुख्य धारा की खबरों में भी आ गयी. पिछले चुनावों के दौरान चुनाव आयोग के समक्ष इस प्रकार की कई शिकायतें भी आईं और आयोग ने इसे अत्यंत गंभीरता पूर्वक लिया और लोकतंत्र के लिए घातक माना. मगर अभी तक इस बिमारी का कोई प्रभावकारी समाधान नहीं सामने आया है. 

बाजारीकरण से जो विकृति आयी है उसका निदान लोकतंत्र के हित में आवश्यक है. फिलहाल विधि निर्मित संस्था के रूप में इसका दायित्व प्रेस काउन्सिल पर है.  मगर प्रेस काउन्सिल के अधिकार अत्यंत सीमित हैं. इसे बिना दांत और नाखून के शेर की संज्ञा दी जाती है. टेलीविज़न चैनल इसके अधिकार क्षेत्र में वैसे भी नहीं आते.  प्रेस काउंसिल के अधिकार व्यापक किये जाने के खतरे भी हैं.  अधिकारों का दुरूपयोग मीडिया की स्वतंत्रता के हनन में भी हो सकता है. 

ऐसी स्थिति में मीडिया को स्वयं इसका निदान ढूँढना पड़ेगा- अपने दीर्घकालीन अस्तित्व के हित में. मीडिया की जीवनदायिनी शक्ति इसकी विश्वसनीयता में है. अगर एक बार विश्वसनीयता समाप्त हुई तो एक व्यापार के रूप में भी इसका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा. स्वनियमन ही इसका सबसे प्रभावकारी मार्ग हो सकता है. अगर यह संभव नही हो पाता तो संसद और सरकार को सामने आना पड़ सकता है, इसके संभावित खतरों के बावजूद.   

                   सबलोग के जून 2017 में प्रकाशित  




 लेखक प्रसिद्द मीडियाकर्मी हैं|+919810463338 dhiranjan@gmail.com   




  

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