23 August 2017

किसानी के कुछ अनछुए पहलू : रामप्रकाश कुशवाहा


       किसानी के  कुछ अनछुए पहलू


                                 रामप्रकाश कुशवाहा

भारतीय किसान और कृषि-व्यवस्था की समस्याएँ देश-व्यापी स्तर पर एक-सी नहीं हैं . भौगोलिक विषमता ,भिन्न-भिन्न प्रकार की कृषि-उपज ,जनसँख्या का असमान वितरण और उसी के अनुपात में कृषि-योग्य भूमि की कम या अधिक उपलब्धता , भूमि-स्वामित्व सम्बन्धी अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग क़ानूनों का होना इस समस्या को न सिर्फ जटिल बनाते हैं बल्कि बहुआयामी विस्तार भी देते हैं . किसान समस्याओं का एक हिस्सा भारत में जातीय किसानों के अस्तित्व से जुड़ा है तो दूसरा अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की भौगोलिक पारिस्थितिकी से ; तीसरे हिस्से में आजादी के बाद विभिन्न प्रान्तों में बने भू-स्वामित्व सम्बन्धी अलग-अलग कानूनों से सम्बंधित और प्रभावित पारिस्थितिकी है . इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि किस प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन क़ानून लागू हुआ है और किस प्रदेश में नहीं . यह एक तथ्य है कि जमींदारी उन्मीलन क़ानून लागू होने वाले प्रदेशों में बहुत बड़े किसान नहीं रह गए हैं . इसीलिए ऐसे प्रदेशों में,जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है - पश्चिमी देशों की तर्ज पर बड़े पैमाने पर कृषि-फार्म विकसित करने के लिए सोचा भी नहीं जा सकता . बढ़ती आबादी के साथ भू-मालिकों की बढ़ती संख्या और निरंतर छोटे होते खेतों के कारण बहुत अधिक भूमि मेड बंदी में भी व्यर्थ हो रही है .
      सामान्यत: दुग्ध-उत्पादन और कृषि-कार्य सह-व्यवसाय के रूप में ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित होते रहे हैं .  किसानों में भी सब्जी उत्पादक किसान और अन्न उत्पादक किसान का दो वर्ग देखने को मिलते हैं. सरकार और व्यापारियों का नियंत्रण प्राय: अन्न का उत्पादन करने वाले किसानों पर ही पड़ता है . सब्जी उत्पादन करने वाले किसान प्राय: अधिक लाभ की स्थिति में होते हैं , क्योंकि मांग और पूर्ति के स्थानीय और सुदूरवर्ती दोनों की प्रभावों का लाभ वे उठा पाते हैं ; जबकि अन्न उत्पादक किसानों का नियंत्रण उपज के बाज़ार–मूल्य पर कम ही रहता है . दरअसल किसान समस्या का सम्बन्ध अन्न के बाज़ार-मूल्य पर सरकारी और व्यापारी वर्ग के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण से ही है . उसके उत्पाद के जरुरी खाद्य-सामग्री होने कमे कारण सरकारें एक सीमा से अधिक अनाजों के दाम बढ़ने ही नहीं देतीं बल्कि एक तरह से उनके दाम को घटाने का ही नीतिगत प्रयास करती रहती हैं . वैसे भी नयी फसल आते-आते किसान इतना अधिक आर्थिक दबाव में आ चुकता है कि अधिकांश किसान प्रारम्भ के एक-दो महीने के अन्दर ही अपनी फसल का बड़ा हिस्सा सस्ते दर पर व्यापारियों के हवाले कर चुके होते हैं . इन कारणों से अनाज के मंहगा होने का लाभ किसानों को प्राय: नहीं मिल पाता  है . मंहगाई बढ़ने  कि स्थिति में सरकारें अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए उसे रियायती मूल्य पर बाज़ार में उपलब्ध करा देती हैं . ऐसा आयातित अनाज किसानों के लाभ कमाने की सम्भावना को ही समाप्त कर देता है .
       ध्यान से देखें तो भारत में किसान समस्याओं का एक हिस्सा किसान जातियों और जातीय व्यापारी –तंत्र के अलग-अलग वर्गीय हितों और उनके परंपरागत आर्थिक व्यवहार से भी जुड़ा है . ये जातीय तंत्र अफ्रीका कि नदियों में पाए जाने वाले मगरमच्छ और बिल्डर बीस्ट की तरह अलग-अलग और प्राय: परस्पर विरोधी वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं . जैसे पशु-समूहों के ग्रीष्मकालीन प्रवास के समय मगरमच्छ उन पर हमले और शिकार के लिए अपनी पोजीशन ले लेते हैं ,वैसे ही नयी फसल आते ही व्यापारी जातियाँ परंपरागत रूप से ही एक साथ अनाजों का क्रय-मूल्य गिराकर बैठ जाती हैं .यह सब सामूहिक और संगठित रूप में सदियों से हो रहा है कि सरकारी समर्थन मूल्य भी उसका कुछ नहीं कर पाता .कितनी भी मंहगाई हो बाज़ार किसानों की कोई भी सहायता नहीं कर पाता .एक सीमा के बाद सरकारें बहार से अनाज आयात करने के लिए मजबूर होती हैं और किसान अपनी उपज की मंहगाई का लाभ या आनंद नहीं उठा पाता . इस तरह देखा जाय तो बाज़ार और सरकार दोनों मिलकर  उसके हितों को चोट पहुंचाते हैं . इस नुकसान की भरपाई तभी हो सकती है ,जब सरकारें कृषि कार्य में लगे किसानों का न सिर्फ पंजीकरण अनिवार्य कर दें बल्कि उन्हें कुछ नियमित कृषि-कार्य भत्ता एवं क्षतिपूर्ति राशि भी दें . उन्हें बेरोजगारी भत्ता की तरह एक न्यूनतम वेतन भी कृषि-कार्य में लगे मजदूरों और किसानों को देते रहना चाहिए .
       सारे विकास के बावजूद भारतीय किसान सीमित स्तर पर ही आधुनिक,वैज्ञानिक और व्यावसायिक बन पाया है .सरकारी योजनाकारों की सुस्ती के कारण कृषि-कार्य के लिए भूगर्भजल का अंधाधुंध दोहन देश के भविष्य को ही संकट ग्रस्त कर रहा है . सरकारें यदि चाहतीं तो परित्यक्त एवं सूखे कुओं को ही भूमि-जल संग्रह-केंद्र के रूप में विकसित करा सकती थीं .ऐसे कुंएं सिर्फ उनके तल को पक्का कर दीवारों को सीमेंट की परत चढ़ाते ही राजस्थानी शैली की भूमिगत टंकियों में बदल जाते और कम स्थान घेरते हुए उनके जल से सिंचाई का कार्य भी निर्बाध गति से होता रहता . सरकारें जितनी पाइपें दूर संचार के प्रयोजन से बिछवा रही हैं ,लगभग उतनी ही लागत से फाइबर की पाइपें भी जल-संवहन के लिए भूमि में बिछायी जा सकती थीं .पुराने–नए तालाबों को ऐसी पाइपों के माध्यम से नहरों और नदियों से जोड़कर एक ऐसा सतत और स्थायी जलापूर्ति-ग्रिड या तंत्र विकसित किया जा सकता है जो किसानों को जल-उपलब्धता की दृष्टि से आजाद करा देता .जब तक ऐसा नहीं किया जा रहा है , तब तक किसान और कृषि दोनों के ही अच्छे दिन आना संभव नहीं होगा .
        इस तरह देखा जाय तो किसान-समस्या के समाधान के लिए कृषि का आधुनिकीकरण जिसमें वैज्ञानिककरण भी ही सम्मिलित है .छोटे-छोटे किसानों के भूमि-स्वामित्व को सुरक्षित रखते हुए सामूहिक एवं सहकारिता पद्धति से बड़े फार्मों वाले सामूहिक खेती को प्रोत्साहित करने वाले क़ानून बनाना ,कृषि-उत्पादों के उचित मूल्य पर विक्रय एवं विपणन के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना ,किसानों के लिए वैकल्पिक रोजगार एवं आर्थिक लाभ बढ़ाने वाले सहकार्यों की गाँव में ही व्यवस्था करना ;भविष्य की जरूरतों का ध्यान रखते हुए वर्षा के जल का वैज्ञानिक प्रबंधन करना एवं उन्हें वर्ष पर्यन्त कृषि-कार्य के लिए उपलब्ध कराना आदि जरुरी हैं . सबसे तात्कालिक जरुरत भूगर्भ जल पर आधारित खेती को समाप्त कर जल भण्डारण के नए विकल्प तैयार करने के है .
उत्तर और दक्षिण भारत की नदियों को आपस में जोड़ने का सुझाव और योजना पुरानी है . नेपाल को साथ लेकर कुछ बड़ी इंजीनियरी वाली परियोजनाओं की भी जरुरत है . ताकि हिमालय के ऊँचे स्थान से ही जल-प्रवाह को स्टील की दैत्याकार पाइपों में खींच कर झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ के पठारी क्षेत्रों में बड़े बाँध बनाकर जल भण्डारण किया जा सके . गंगा-जमुना जैसी नदियों के अधिक एवं सदानीरा प्रवाह के लिए निर्जन एवं कम उपजाऊ क्षेत्रों में बड़ी कृत्रिम झीलों का विकास किए जाने की अभियांत्रिकी अब हमारे पास है . खनन उद्योग की तर्ज पर बड़ी-बड़ी मशीनों द्वारा कम समय में ही बड़ी कृत्रिम झीलों का निर्माण अब संभव है .
       भूगर्भ-जल और कृषि-क्षेत्र दोनों को ही सबसे गंभीर खतरा बढ़ती जनसँख्या के साथ बढ़ते मकानों से भूमि का निरंतर आच्छादित होते जाना है . सीमेण्ट की फर्श से ढकते शहरी क्षेत्र न सिर्फ जल का भूमि में पहुंचना रोकते हैं बल्कि भवनों का उसमें रहने वाले लोगों की संख्या और आवश्यकता के अनुपात में न बनाकर धन के अनुपात में वैभव और प्रदर्शन की भावना से बनाना भी अनावश्यक रूप से कृषियोग्य भूमि को कम करता जा रहा है . सिर्फ दो या तीन व्यक्तियों वाले परिवार के लिए आलीशान बंगलों का चलन हतोत्साहित किया जाना चाहिए . बहुमंजिली इमारतें भूमि बचाने का अच्छा समाधान हो सकती हैं .
        एक किसान विरोधी तथ्य यह भी है कि अधिकांश भारतीय गांवों में चारागाह के लिए ग्राम समाज की जमीन ही नहीं बची है .पिछली सरकारों नें भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने की मुहिम चलाकर अधिकांश गांवों में बच्चों के खेलने के लिए खुली जमीन भी नहीं रहने दिया है . इसका समाधान यह हो सकता है कि प्रांतीय सरकारों को प्रत्येक ग्राम ईकाई या पंचायत में सार्वजनिक भूमि की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अविलम्ब एक भूमि क्रय विभाग की भी स्थापना करनी चाहिए . गांवों में बहुत से लोग आर्थिक दबाव में अपनी कृषि-भूमि बेचते रहते हैं . ऐसा प्रावधान और तंत्र रहने पर जरुरत-मंद अपनी भूमि सरकार को भी बेच पाते और ग्राम पंचायतों के पास भी अपनी जमीन होती . इससे गाँव के वंचित एवं निर्धन लोगों को भी आजीविका का साधन ग्राम पंचायतें उपलब्ध करा सकेंगीं . ऐसी क्रय की गयी भूमि में वृक्षारोपण कराकर सरकारें उद्यान एवं वन क्षेत्र भी विकसित कर सकती हैं . इससे हरित पट्टी का विकास होगा .भूगर्भ जल का स्तर नीचे नहीं गिरेगा और किसानों की दशा भी सुधरेगी .
          
         
              


रामप्रकाश कुशवाहा

विभागाध्यक्ष हिन्दी ,राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,गाजीपुर (उ.प्र.) पिन-233001

1 comment:

  1. ग्राम समाज की जो भूमि गांवों में उपलब्ध थी, उस पर गांव के दबंगों ने अवैध कब्जा कर लिया है, उसे मुक्त करवाने की जरूरत है। प्राकृतिक तालाब जो जलसंग्रहण संरचना के रूप में कार्य करते थे, भी दबंगों ने पाट दिए हैं जिनकी खुदाई करवानी चाहिए। अधिकांश धनी लोगों ने ही लेखपालों को घूस देकर ग्राम समाज की भूमि पर पट्टे बनवा लिए है।

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