03 August 2017

किसानों की (आत्म) हत्या पर देश चुप क्यों ?



किसानों की (आत्म) हत्या पर देश चुप क्यों ?
 
हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचन्द ने 1932 में लिखा था कि  'अब तक सरकार ने किसानों के साथ सौतेले  लड़के का-सा व्यवहार किया है। अब उसे किसानों को अपना जेठा पुत्र समझकर उनके अनुसार अपनी नीति का निर्माण करना पड़ेगा।' आज की स्थिति तो यह है कि किसानों की समस्याओं के बारे में अव्वल तो लिखा नहीं जाता और यदि लिखा भी जाता है तो इतना कम और गौण तरीके से लिखा जाता है कि उसका कोई व्यापक असर नहीं होता।
अभी हाल ही में 10 जून की सुबह मध्यप्रदेश के सिहोर और भोपाल में जब  किसान एकजुट होकर  मंदसोर की गोलीबारी(जिसमें 5 किसान मारे गए थे) के खिलाफ धरना और प्रदर्शन के माध्यम से अपने गुस्से और क्षोभ का इजहार कर रहे थे तब देश के अधिकांश राष्ट्रीय और 'राष्ट्रभक्त' चैनल प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्रा की 'जरूरी' खबर परोस रहे थे।
किसानों के दुख दर्द इन समाचार चैनलों के सरोकार के हिस्से नहीं हैं तो इसलिए कि सत्ता और पूँजी के गंठजोड़ से संचालित मीडिया की प्राथमिकताएँ कारपोरेट के कारोबार हैं या फिर  सत्ता के गलियारे की गूँज। किसानों के मुद्दे पर लगातार लिखने वाले पत्रकार पी.साईनाथ ने कारपोरेट मीडिया के चरित्र का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'विदर्भ में आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग 6 से भी कम राष्ट्रीय पत्रकार कर रहे थे जबकि 'लैक्मे इण्डिया फैशन वीक' को कवर करने के लिए 512 मान्यता प्राप्त पत्रकार आपस में भिड़े हुए थे। इस फैशन वीक के कार्यक्रम में मॉडल सूती कपड़ों का प्रदर्शन कर रहे थे,जबकि नागपुर से मात्र डेड़ घण्टे के हवाई सफर की दूरी पर स्थित विदर्भ क्षेत्र में कपास उपजाने वाले स्त्री-पुरुष आत्महत्याएँ कर रहे थे।'
भारत की  66  प्रतिशत आबादी आज भी गाँवों में रहती है।लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि गाँवों के इस देश में आज सबसे अधिक उपेक्षा गाँवों और किसानों की ही हो रही है।
योजना बनाने वाले जितना ख्याल शहरों का रखते हैं उतना गाँवों का नहीं।ज्यादा बीमार गाँवों में रहते हैं लेकिन अस्पताल और डॉक्टर शहरों में बसते हैं। आग गाँवों के खलिहानों में लगती है और दमकल (अग्निशामक यन्त्र) शहरों में दहाड़ मारता है। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने का सबसे बड़ा कारण गाँवों और खेती-किसानी में बुनियादी सुविधाओं की कमी है।अब लोग स्वेच्छा से गाँवों में रहना  और गाँवों में रहकर खेती करना नहीं चाहते।आखिर क्या वजह है कि कर्मठता,जिजीविषा और धैर्य के पर्याय माने जाने वाले किसान आत्महत्या करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कौम  बन गयी? आज हर 8 घण्टे में भारत का एक किसान आत्महत्या कर रहा है।
किसानी के लिए यह बुरा वक्त अचानक नहीं आया,अँग्रेजों के शासनकाल में किसानों के शोषण का जो सिलसिला शुरू हुआ था,वह देश की आजादी के 70 वर्षों बाद भी बदस्तूर जारी है। 1925 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 18 रुपये और एक क्विंटल गेहूँ का मूल्य 16 रुपये था।1960 में 10 ग्राम सोना 111रुपये का और एक क्जविंटल गेहूँ 41 रुपये का था।आज जब 10 ग्राम सोना 29000 रुपये का है तो एक क्विंटल गेहूँ 1625 रुपये का है।1965 में केन्द्र सरकार के प्रथम श्रेणी के अधिकारी के एक माह के वेतन से 6 क्विंटल गेहूँ खरीदा जा सकता था,आज केन्द्र सरकार के एक चपरासी के वेतन से 10 क्विंटल गेहूँ खरीदा जा सकता है।आजाद भारत में शासन और सरकार द्वारा किसानों की उपेक्षा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
हरित क्रान्ति ने खेती में तात्कालिक लाभ का भ्रम जरूर बनाया, लेकिन अब उस लाभ की 'असलियत' उजागर होने लगी है।छट्ठे दशक के अन्तिम वर्षों में जब भारत भयंकर खाद्यान संकट से जूझ रहा था तो अमेरिका द्वारा प्रायोजित  'हरित क्रान्ति' ने  खेती में जो परिवर्तन प्रस्तावित किया था वह भारत की पारम्परिक खेती के बिल्कुल विपरीत था। नए तरह के बीज और  नये नये रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से उपज में तो बढ़ौतरी हो रही थी लेकिन जमीन की स्वाभाविक उर्वरता उसी गति से नष्ट हो रही थी।मानव समुदाय और जीव-जन्तु भी नयी नयी जानलेवा बीमारियों के शिकार होने लगे।
उदारीकरण के दौर में जब भारत में नयी आर्थिक नीति लागू हुई तो यह प्रक्रिया और तेज हो गयी।इसने किसानों को और बदहाल बना दिया।  जाहिर है इसी दौर में हुए कई किसान आन्दोलनों के दबाव  में प्रो.एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में 2004 में एक आयोग 'नेशनल कमीशन फ़ॉर फार्मर्स' का गठन किया गया। इस आयोग ने अपनी चार रिपोर्टों में कई सिफारिशें की हैं,जिसमें कारपोरेट सेक्टर को कृषि और वन भूमि देने की साफ मनाही की गयी है।दुर्भाग्यवश केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया। केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद कारपोरेट घरानों के उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण का मामला और तेज हो गया है। अडानी के एक पावर प्लांट के लिये गोड्डा (झारखण्ड) के पास 1600 एकड़ कृषि भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लगभग 15 गाँवों के किसान पिछले एक वर्ष से आन्दोलनरत हैं। इस प्रोजेक्ट से बनने वाली बिजली जब बंगला देश को बेची जानी है तब  झारखण्ड की सरकार एक निजी कम्पनी के कारोबार के लिए अपने ही राज्य के रैयतों और किसानों को उजाड़ने के लिए आमदा क्यों है? सरकार के जनविरोधी रवैये को उजागर करने वाला यह सवाल लोकतन्त्र के अस्तित्व का भी सवाल है।                                                                                                            
किशन कालजयी                                               सम्पादक- सबलोग

1 comment:

  1. सरकार की कोरपोरेट पक्षी नीतियों और और व्यवहार को सुंदरता से उजागर किया गया है। यह व्यवस्था तब तक किसानों और वर्तमान कृषि व्यवस्था के ख़िलाफ़ काम करती रहेगी, जब तक इसका जनाजा नहीं निकल जाता और किसान ख़ुद तंग और तबाह होकर खेती छोड़ नहीं देते। फिर तो यह तर्क देकर कि घाटे के कारण किसान खेती नहीं करते इसलिए यह पूरा सेक्टर कोरपोरेट घरानों को दे देना चाहिए और अनाज के बिना आदमी जी नहीं सकता इसलिए आम आदमी का जीवन बचाने के लिए कोरपोरेट को छूट और रियायतें प्रदान की जानी चाहिए। कृषि की पूरी नीति इसी व्यवस्था को बहाल करने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की दिशा में अग्रसर है।

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