08 March 2016

आधुनिकता के सन्दर्भ में एक बहस



वैभव सिंह की पुस्तक (भारतीय उपन्यास और आधुनिकता) पर उन्हें देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिलने पर सबलोग/संवेद परिवार की शुभकामनाएं। इस पुस्तक की समीक्षा बिपिन तिवारी ने संवेद के लिए की थी।



-बिपिन तिवारी
आलोचना द्वारा स्थापित मान्यताओं को जब मूल साहित्य के साथ रखकर फिर से पाठ करने की कोशिश की जाती है तब आलोचना और कठिन हो जाती है। आलोचना को दोतरफा टकराना होता है। एक तो पहले से स्थापित मान्यताओं से और दूसरे रचना के पुनर्पाठ से। हिन्दी साहित्य में उपन्यास और आधुनिकता की जो पूरी बहस है उसको इसी सन्दर्भ में देखने की जरूरत है। वैभव सिंह की किताब भारतीय उपन्यास और आधुनिकता कुछ ऐसे ही सवालों से टकराती है। 

            दरअसल भारत में उपन्यास लिखने की शुरुआत आधुनिकता की बहस के साथ शुरू होती है। आधुनिकता को लेकर जो बहस बुद्धिजीवियों के बीच रही है उसमें आधुनिकता का मूल्यांकन या तो पश्चिम को केन्द्र में रखकर किया गया है या आधुनिकता को पूरी तरह खारिज कर दिया गया है। ऐसे में भारतीय के सन्दर्भ में आधुनिकता का सवाल अनसुलझा ही बना रह जाता है। वैभव सिंह की भारतीय उपन्यास और आधुनिकताकिताब दो खंडों में विभाजित है। पहले खंड में भारतीय उपन्यासों के सन्दर्भ में आधुनिकता का मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है, दूसरे खंड में 1857 के सन्दर्भ में उपन्यास, राष्ट्रवाद, हिन्दी-उर्दू भाषा-विवाद, सती प्रथा, हिन्दू परंपरा और डेरोजिओं के जीवन, कविता पर विचार किया गया है।
भारतीय उपन्यास और आधुनिकताकिताब के पहले खंड में संकलित निबन्धों में उपन्यास और सुधारवाद, परीक्षागुरु के बहाने राष्ट्रवाद, उपन्यास राष्ट्र और स्त्री, पंडित रमाबाई और उपन्यास, उमराव जान अदा, फकीर मोहन सेनापति आदि निबन्ध बहुत महत्वपूर्ण हैं। उपन्यास और सुधारवाद निबन्ध में आधुनिकता के दौर में लिखे गये उपन्यासों को आधुनिकता की पृष्ठभूमि में रखकर विचार किया गया है। परीक्षा गुरू व निस्सहाय हिन्दू के अलावा पण्डित गौरीदत्त का देवरानी जिठानी, श्रद्धाराम फुल्लौरी का भाग्यवती और उर्दू के नजीर अहमद का मिरातुल अरूस कृतियों का उद्देश्य स्त्री शिक्षा के महत्व की स्थापना करना है ताकि लोग घर की स्त्रियों की पारम्परिक अशिक्षा को दूर कर उन्हें शिक्षित बनाने पर ध्यान दें। यानी इस दौर में लिखे गये उपन्यासों में सुधारवाद को प्रमुखता दी गई है। इस बात का प्रमाण श्रद्धाराम फुल्लौरी परीक्षागुरुउपन्यास की भूमिका में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। लेकिन इसमें भी बात बहुत स्पष्ट नहीं है। इस दौर के उपन्यासों में सुधार का जो स्वर है वह उच्च वर्ग की स्त्रियों को केन्द्र में रखकर बनाया गया है। उमा चक्रवर्ती अपने लेख वाटएवर हैप्पेंड टू वैदिक दासीमें लिखती हैं- स्त्रियों से जुड़े सवालों के सन्दर्भ में 19वीं सदी का पूरा ध्यान उच्च जाति की हिन्दू स्त्रियों पर केन्द्रित था, चाहे अतीत में उनकी उन्नत दशा को प्रकट करना हो या वर्तमान में उनकी निम्न दशा में सुधार करने की चेतना हो।(पृष्ठ 21) साथ ही इन उपन्यासों और गद्य साहित्य में पश्चिमी ढंग की स्त्रियों की आलोचना की गई है जबकि पश्चिमी पुरुषों को एक अलग ढंग से देखा गया है। बालकृष्ण भट्ट हमारी गुदड़ी के लालनिबन्ध में लिखते हैं-यूरोप के नौजवानों से जब हम अपने यहां के नवयुवकों को मिलाते हैं तो उनमें और इनमें बड़ा अंतर देखने में आता है। यूरोप में ऐसी कोई बात नहीं है जो आगे बढ़ने से इन्हें रोक सके बल्कि हर बात सामाजिक, मजहबी तथा घरेलू डोमेस्टिक-सब इस ढब से रखी गई है कि उनको अपने लिए तरक्की करने में बाधा डालना कैसा बल्कि हर तरह का आराम पहुंचाती हैं। यूरोप के नौजवान तो हमारे युवकों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। उपन्यास और सुधारवाद (पृष्ठ 30) यानी एक ही साथ दो विरोधी विचार इन उपन्यासों और इस दौर के गद्य साहित्य में दिखाई पड़ते हैं। इसके साथ-साथ इन उपन्यासों का स्वर नए मध्यवर्ग की चिंताओं को लेकर भी है। यह नया मध्य वर्ग अपने को शहरों की ठगी व लूट से बचाना चाहता है। धोखेबाजी, लूट व ठगी के कई किस्से इन उपन्यासों में मौजूद हैं और संपत्ति संरक्षण की मध्यवर्गीय चिंताएं भी। (पृष्ठ 27)
वहीं परीक्षा गुरु के बहाने राष्ट्र विमर्शनिबन्ध में परीक्षागुरु के सम्बन्ध में नामवर सिंह के विचारों का उल्लेख करते हुए उस पर सवालिया निशान लगाया गया हैं। नामवर सिंह ने अपने लेख अंग्रेजी ढंग का उपन्यासमें लिखते हैं-कैसी विडम्बना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब अंग्रेजी ओरियन्टलिस्ट कादम्बरी, कथा सरितसागर, पंचतंत्र जैसी भारतीय कथाओं के पीछे पागल थे, स्वयं भारतीय लेखक तब अंग्रेजी ढंग का नॉवेल लिखने के लिए व्याकुल थे। ये हैं उपनिवेशवाद के दो चेहरे।आगे लिखते हैं-उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय मानस का सही प्रतिनिधित्व कपाल कुण्डला (बंकिम चन्द्र चटर्जी 1866) करती है, परीक्षा गुरु नहीं। परीक्षा गुरु का महत्व अधिक से अधिक ऐतिहासिक है वह भी सिर्फ हिन्दी के लिए।(पृष्ठ 33) लेकिन इस बात को वैभव सिंह एक अलग नजरिये से देखते हैं। वह लिखते हैं-परीक्षा गुरु एक ऐसे समाज का उपन्यास है जो व्यापारी-बुर्जुआ समुदाय के दायरे में ही राष्ट्र, समाज और देशोन्नति के हर सवाल को सुलझा लेना चाहता है, और भूल जाना चाहता है कि किसी भी राष्ट्र का गठन इतने सीमित दायरे वाले समाज व उसके सामाजिक मूल्यों के सहारे नहीं किया जा सकता है। (पृष्ठ 47) दरअसल रचना का पाठ करते समय यदि युगीन सीमाओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है तब निष्कर्ष बहुत बार एकांगी हो जाते हैं। परीक्षा गुरु उपन्यास की अपनी सीमाएं हो सकती हैं लेकिन उसके महत्व को सिर्फ ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता? 
पंडित रमाबाई और उपन्यासशीर्षक निबन्ध में पंडित रमाबाई पर अनामिका द्वारा लिखे गये दस द्वारे का पिंजड़ाउपन्यास को विवेचन का आधार बनाया गया है। इस उपन्यास से मराठी नवजागरण की चेतना का गहरा व भावपूर्ण परिचय हिन्दी क्षेत्र को प्राप्त होता है। उपन्यास में पंडित रमाबाई के कठिन संघर्ष और उनके द्वारा चलाये गये आंदोलनों का गहराई से विवेचन किया गया है। उपन्यास के बारे में वैभव सिंह का मानना है-दस द्वारे का पिंजड़ाउपनिवेशवाद के दौर का ऐसा पाठ है जिसमें आधुनिकता ऐसी स्त्रियों व निम्न जातियों का सबसे गहरा बुनियादी सरोकार है जिन्होंने सामाजिक वंचनाओं के दंश को सबसे ज्यादा सहा है। (पृष्ठ 90) वहीं मिर्जा हादी रुसवा के उमराव जान अदाउपन्यास को लखनऊ की संस्कृति को परिभाषित करने वाले नवाबों, कोठों, तवायफों और सामन्ती शौकों को व्यक्त करने वाली रचना के रूप में ही मात्र नहीं किया गया है। उपन्यास में उमराव जान की कथा के माध्यम से लखनऊ निर्मित हुआ है, न कि लखनऊ की कथा के किसी हिस्से के रूप में उमराव की कहानी कही जाती है। उमराव जान अदा में उमराव अपना आत्म परिचय पुरुषों की बनाई दुनिया में बेबस स्त्री के रूप में नहीं देती है बल्कि वह बड़े फख्र से कहती है-मैं एक घाघ औरत हूं, घाट-घाट का पानी पिये हूं। जो जिस तरह बनाता है बन जाती हूं, लेकिन दर-हकीकत उनको बनाती हूं, हर एक को खूब समझती हूं। उमराव जान अदा और उर्दू उपन्यास।(पृष्ठ 113) साथ ही इसमें दिल्ली और लखनऊ की उर्दू में हिज्जे आदि को लेकर जो फर्क पैदा किया गया उसकी भी बारीक विवेचना है। इस उपन्यास में एक कोठे वाली स्त्री के जीवन के संघर्ष को बहुत ही गहराई से दिखाया गया है। 
वहीं ‘1857: औपन्यासिक आख्यान की निर्मितनिबन्ध में 1857 को लेकर जितने भी दुष्प्रचार किये जाते हैं उनकी गहराई से विवेचना की गई है। वह चाहे इस आंदोलन की प्रकृति को लेकर हो या इसमें कौन-कौन लोग शामिल थे इसको लेकर। सुरेन्द्र नाथ सेन अपनी ‘1857 किताबमें इस बात की वकालत करते हैं कि 1857 के विद्रोही जाने-अनजाने ब्राह्मण धर्म और सती प्रथा को बचाने व विधवा विवाह के विरोध के लिए एकजुट होने लगे थे। इन तर्कों के जवाब में पी.सी. जोशी ने ‘1857: ए सिम्पोजियम नामक अपनी सम्पादित किताब में इस तर्क का खण्डन किया है। वह लिखते हैं-शुद्ध राजनीतिक प्रोपेगेण्डा के कारण ब्रिटिश इतिहासकारों ने यह दावा किया है कि अंग्रेजों की उदारता और दया के कारण भारत में सुधार कानून लागू किए गए। इस पूरे मामले पर वैभव सिंह लिखते हैं-अगर ब्राह्मण धर्म की मान्यताओं की रक्षा करना ही गदर के लड़ाकुओं का मकसद होता तो कई आदिवासी इलाकों में संथाल-भील जैसी जनजातियां भी विद्रोहियों के साथ न लड़ी होतीं। इसी तरह राजस्थान की राजपूत रियासतें गदर में नहीं शामिल हुईं, जबकि सनातन धर्म की रक्षा करने का पारम्परिक जिम्मा उन्हीं के पास रहता था। यहां तक कि बुन्देलखण्ड में दलित और अवध में पासी जातियों का भी काफी खून बहा।...ऐसे में सनातन धर्म की रक्षा का तर्क देना उस दौर के समस्त विद्रोहियों के प्रति नाइंसाफी होगी। (पृष्ठ 160) साथ ही इस निबन्ध में विलियम डेलरिम्पल (द लास्ट मुगल) की 1857 को लेकर जो विवेचना है उस पर भी गंभीरता से विचार किया गया है। यह शायद हिन्दी का पहला काम होगा जिसमें विलियम डेलरिम्पल की स्थापनाओं को विवेचित करने का प्रयास किया गया है। वह 1857 के सन्दर्भ में म्यूटिनी पेपर्स का बार-बार उल्लेख करते हैं जिसके बारे में उनका दावा है कि उन्होंने ही इसको सबसे पहले देखा है। म्यूटिनी पेपर्स के हवाले से लिखते हैं-विद्रोह को किसी साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद, प्राच्यवाद अथवा किसी सैद्धांतिकी से जोड़ा नहीं जा सकता बल्कि इसे असाधारण और त्रासदीपूर्ण मानवीय घटना मानना चाहिए और आम आदमी की ओर देखना चाहिए जो इतिहास की उथल-पुथल से भरी घटनाओं का शिकार हो गया।इस तथ्य में साफतौर से उनके पश्चिमी हित दिखाई पड़ते हैं। एक बार फिर सवाल तथ्यों के देखने के नजरिये को लेकर खड़ा हो जाता है। ऐसे ही कई दूसरे तथ्यों की तरफ भी वैभव सिंह इस निबन्ध में ध्यान आकर्षित करते हैं। इसी निबन्ध में एक युद्ध संवाददाता की डायरीके हवाले से भी 1857 के चरित्र की भी विवेचना की गई है। साथ ही दलित दृष्टि से भी 1857 का पाठ करने की कोशिश की गई है। आज जबकि अधिकांश दलित चिंतक अंग्रेजों के शासन को दलित समाज के लिए ज्यादा हितकारी मानते हैं और उसके बारे में यहां तक कहते हैं कि अंग्रेज देर से आये जल्दी चले गये, तब फुले द्वारा गुलामगीरी में इस पूरी अंग्रेजी व्यवस्था के बारे में लिखी गई बातों को जानना ज्यादा जरूरी हो जाता है। वह लिखते हैं-हमें यह कहने में बड़ा दर्द होता है कि सरकार के गैर-जिम्मेदाराना रवैया अख्त्यिार करने की वजह से ये लोग अनपढ़ के अनपढ़ ही रहे। इन तथ्यों को आज समझना बहुत जरूरी है तभी पश्चिम द्वारा प्रचारित ज्ञानकांड का मुकम्मल जवाब दिया जा सकता है। 
डेरोजिओ: कविता और जीवननिबन्ध में डेरोजिओं की जिंदगी और उसकी काव्य यात्रा पर गंभीरता से विचार किया गया है। डेरोजिओ कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज में अंग्रेजी का प्राध्यापक था। यही हिन्दू कॉलेज आगे चलकर प्रेसीडेंसी कॉलेज में तब्दील हो गया। डेरोजिओ ने अध्यापन करते हुए यंग बंगाल जैसे आंदोलन का आधार भी तैयार किया। उसने अपने छात्रों को रेडिकल सोच अपनाने के लिए प्रेरित किया था। सर्कुलर रोड पर स्थित उसका घर विद्यार्थियों व कलकत्ता के अन्य नामी गिरामी बुद्धिजीवियों का शाम की बैठकी का अड्डा बन गया। उसकी अकादमिक एसोसिएशन नामक नई संस्था धर्म, विज्ञान, साहित्य, दर्शनशास्त्र के बारे में बगैर किसी पूर्वाग्रह के चर्चा करती थी। इतिहासकार सुशोभन सरकार (डेरोजिओ एंड यंग बंगाल, स्टडीज इन द बंगाल रिनेसां) ने तो इसे पहले डिबेटिंग क्लब का दर्जा प्रदान किया है। डेरोजिओ ने कविता सहित बहुत सा साहित्य रचा है। डेरोजिओ की कविताओं का पहला संग्रह पोयम्स 1827 में प्रकाशित हुआ था। डेरोजिओ की कविताओं का परिदृश्य वैश्विक है। जिसका प्रमाण मैराथन के ग्रीक्सगुलाम की आजादी आदि कविताएं हैं। उसने कैसा अनुभव किया होगा जब बताया गया होगा/अब वह गुलाम नहीं रह गया है/उसका दिल धड़का होगा महान गर्व से/जब पहली बार सुनी होगी उसने अपनी आजादी की खबर/चमक उठी होगी उसकी आत्मा की पवित्रतम भावना सहसा...’ (गुलाम की आजादी) इस कविता की आरंभिक पंक्तियां-और जब गुलाम की विदाई होती है तो मनुष्य की वापसी होती है अपने आप में ही एक बहुत बड़ा विचार हैं। ऐसे ही अनेक कविताएं है जो डेरोजिओ की काव्य प्रतिभा का परिचय देती हैं। राष्ट्रवाद और रवीन्द्रनाथ टैगोर, फकीर मोहन सेनापति: सृजन की नई कला दृष्टि, पहला अंग्रेजी उपन्यास और बंकिम आदि आलोचनात्मक निबन्ध किताब को समृद्ध  बनाते हैं। यह किताब सिर्फ हिन्दी साहित्य को केन्द्र में रखकर नहीं लिखी गई है। इसमें उड़िया के साहित्यकार फकीर मोहन सेनापति हैं तो बांगला के रवीन्द्रनाथ टैगोर, उर्दू के मिर्जा हादी रुसवा, गुजराती के गोवर्धन राम त्रिपाठी के उपन्यास सरस्वती चंद्र आदि उपन्यासों को सम्मिलित किया गया है। ऐंग्लो इंडियन द्वारा लिखे गये उपन्यासों को भी शामिल किया गया है। साथ ही इसमें हिन्दू-उर्दू प्रेस विवाद, सती हिन्दू परम्परा और साहित्य तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों की गहनता से पड़ताल की गई है। लेखक ने यह किताब गंभीर शोध् करके लिखी है। इसलिए किताब में दी गई स्थापनाएं गंभीर विवेचन और व्यापक पाठ की सम्भावना लिए हुए हैं।


पुस्तक के बारे में-
पुस्तक: भारतीय उपन्यास और आधुनिकता 
(नवजागरण और 1857 का विशेष सन्दर्भ)
लेखक: वैभव सिंह
प्रकाशन: आधार प्रकाशन पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य: 350 रुपये


लेखक हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं।
 संपर्क-
09990653770



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