सांप्रदायिक हिंदुत्व की सामाजिक इंजीनियरिंग
आनन्द प्रधान
यह सही है कि कई राजनीतिक विश्लेषक, रिपोर्टर और
सर्वेक्षणकर्ता भाजपा को आगे, उसे सरकार बनाते या उसे बहुमत मिलता हुआ बता रहे थे
लेकिन किसी ने भाजपा को छप्परफाड़ बहुमत- 325 सीटें (भाजपा-312 और उसके गठबंधन
सहयोगी अपना दल-9 और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी-4) मिलने का संकेत नहीं दिया था.
आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश के नतीजों के बाद से उदार-वाम और धर्मनिरपेक्ष
बुद्धिजीवी, विश्लेषक और राजनीतिक पंडित राजनीतिक सदमे में हैं. वे इन नतीजों की
राजनीतिक व्याख्या करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं. कई इसके लिए इलेक्ट्रानिक
वोटिंग मशीनों की गड़बड़ी को और कुछ सपा के पारिवारिक झगड़ों या कांग्रेस के
आधे-अधूरे मन से चुनाव लड़ने या सपा-कांग्रेस गठबंधन में देरी होने या बिहार की तरह
सपा-बसपा-कांग्रेस जैसा महागठबंधन न होने जैसे कारणों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
आक्रामक हिंदुत्व की
सामाजिक इंजीनियरिंग की कामयाबी
लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों
में अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है और न ही इसमें हैरान होनेवाली कोई बात है. वास्तव
में, 2014 के आम चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली एकतरफा छप्परफाड़ जीत
चौंकानेवाली और अप्रत्याशित थी. उसके लगभग तीन साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में एक
बार फिर उस करिश्मे को दोहराकर भाजपा ने साबित किया है कि 2014 के आम चुनावों में
उत्तर प्रदेश में उसकी छप्परफाड़ जीत अपवाद या चमत्कार नहीं थी. यह भी कि उसने 2014
में जिस सामाजिक आधार को हिंदू गोलबंदी के जरिये बाँधा था, उसे इकठ्ठा रखने में
कामयाब रही है. यह उसकी बड़ी राजनीतिक सफलता है क्योंकि 2014 के आम चुनावों के बाद
जितने भी विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें से कई में जीत के बावजूद भाजपा के वोटों
में 5-10 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई है.
इन नतीजों से साफ़ है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश
में न सिर्फ 2014 की भारी जीत को संगठित और मजबूत किया है बल्कि उसे आक्रामक
हिंदुत्व के वैचारिक आधार पर और सामाजिक तौर पर चरम के गठबंधन (कोलिशन आफ
एक्सट्रीम) यानी एक ओर प्रभु सवर्ण जातियों और दूसरी ओर, गैर यादव अति पिछड़ी और
गैर जाटव/चमार अति दलित जातियों की सफल सामाजिक इंजीनियरिंग के जरिये बाँधने में
कामयाबी हासिल की है. इसका ही नतीजा है कि भाजपा ने इन चुनावों में 312 सीटें और
39.7 फीसदी वोट और उसके गठबंधन के साथियों अपना दल ने 9 सीटें (एक फीसदी वोट) और
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 4 सीटें (0.7 फीसदी वोट) हासिल किए जो सपा-कांग्रेस
गठबंधन में सपा की 47 सीटों (21.8 फीसदी वोट) और कांग्रेस की सात सीटों (6.2 फीसदी
वोट) और बसपा की 19 सीटों (22.2 फीसदी वोट) से बहुत आगे हैं.
भाजपा गठबंधन को कुल 41.4 फीसदी वोट मिले जोकि
नजदीकी प्रतिद्वंदी सपा-कांग्रेस गठबंधन के 28 फीसदी वोट से 13.4 फीसदी वोट अधिक
है. यही नहीं, भाजपा और उसके गठबंधन को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 2014 के
आम चुनावों की तुलना में सिर्फ 1.5 फीसदी वोट कम मिले हैं. हैरानी की बात नहीं है
कि भाजपा गठबंधन ने न सिर्फ अधिकांश सीटों पर सपा/कांग्रेस/बसपा के प्रत्याशियों
को भारी मतों के अंतर से हराया है बल्कि विधानसभा की 80.6 फीसदी सीटों पर कब्ज़ा कर
लिया. अधिकांश सीटों पर मुकाबला एकतरफा रहा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी बड़ी
राजनीतिक जीत के पीछे सिर्फ एक कारण नहीं होता है. हर बड़ी राजनीतिक जीत कई कारकों
की आपसी अंतर्क्रिया का नतीजा होती है. उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत के पीछे भी
कई कारण हैं. इन कारणों में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार
की नाकामियों और विफलताओं जैसे कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, भ्रष्टाचार और
लूट-खसोट, सरकारी भर्तियों में धांधली, शिक्षा-स्वास्थ्य और सड़क-बिजली-पानी की
बेहाल स्थिति, बेरोजगारी आदि के खिलाफ एक सत्ताविरोधी रुझान था जिसे भुनाने में
भाजपा सफल रही. इसी तरह बसपा की चार साल की राजनीतिक निष्क्रियता, भ्रष्ट छवि और
चुनावों के दौरान सिर्फ जातियों और समुदायों की चुनावी जोड़तोड़ वोटरों को लुभाने
में नाकाम रही.
इस अर्थ में, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में
भाजपा की जीत भी निश्चय ही, एक बड़ी राजनीतिक और कई अर्थों में वैचारिक जीत है. यह
राजनीतिक-वैचारिक जीत इसलिए भी बड़ी और प्रभावी है क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव के
नतीजों से एकबारगी यह लगा था कि भाजपा की आक्रामक हिंदुत्व और सवर्ण-अति
पिछड़ी-महादलित की सामाजिक इंजीनियरिंग को सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष
अस्मितावादी राजनीति ने फिर से पछाड़ दिया है. लेकिन मानें या न मानें, उत्तर
प्रदेश के नतीजों से साफ़ है कि भाजपा की आक्रामक हिंदुत्व और चरम के गठबंधन की
सामाजिक इंजीनियरिंग ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष राजनीति-वैचारिकी को तीन
साल के अंतराल में दोबारा भारी शिकस्त देकर इस संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति और
उसकी वैचारिकी के भविष्य के लिए खतरे की घंटी बजा दी है.
सामाजिक न्याय की राजनीति
की सीमाएं
कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तर प्रदेश में सपा
और बसपा की हार ने उनकी संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति और उसकी वैचारिकी की सीमाएं
एक बार फिर उजागर कर दी हैं. 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में मंडल के जरिये पिछड़ों
की भागीदारी और प्रतिनिधित्व, दलित दावेदारी और सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ
अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा और बेहतरी के उद्देश्यों के साथ शुरू हुई सामाजिक
न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति और उसकी वैचारिकी की चमक उत्तर प्रदेश/बिहार
और दूसरे राज्यों में बहुत पहले ही फीकी पड़ने लगी थी जब वह अपना प्रगतिशील तेवर और
एजेंडा छोड़कर जातियों की जोड़तोड़, पिछड़ों और दलितों के बीच एक खास जाति के वर्चस्व,
भ्रष्टाचार और लूट-खसोट, परिवारवाद और अपराध के दलदल में फंस गई.
नतीजा यह हुआ है कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक
न्याय की राजनीति करनेवाली सपा के बारे में यह आम धारणा बन गई है कि यह पिछड़ों के
नामपर सिर्फ यादवों की पार्टी है और सत्ता की सारी मलाई उन्हें ही मिलती है. यही
नहीं, सपा पूरी तरह से एक पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदल गई है जिसमें
नेतृत्व दूसरे नेताओं और समुदायों के लिए कोई जगह नहीं है. इससे दूसरी पिछड़ी
जातियों खासकर अति पिछड़ी जातियों में पिछले काफी समय से नाराज़गी बढ़ रही थी. हाल के
वर्षों में ऐसे कई छोटे-छोटे राजनीतिक दल उभर आये थे जो इन अति पिछड़ी जातियों को
गोलबंद करने की कोशिश कर रहे थे. सपा की सामाजिक न्याय की राजनीति की संकीर्णता का
आलम यह था कि उसने बसपा के विरोध के नामपर दलितों का विरोध करना शुरू कर दिया था.
इसी तरह बसपा की राजनीति भी दलित दावेदारी के
प्रगतिशील एजेंडे को बहुत पहले छोड़कर जातियों के जोड़तोड़ के अंकगणित में सिमटती जा
रही थी. वह भी उन्हीं बीमारियों जैसे भ्रष्टाचार, निरंकुश और अलोकतांत्रिक नेतृत्व
आदि से ग्रस्त है जिनसे सामाजिक न्याय की अन्य पार्टियाँ ग्रस्त हैं. बसपा के बारे
में भी दलित समुदाय के बीच यह धारणा बनती जा रही थी कि वह सिर्फ दलितों के अन्दर
संख्या और प्रभाव की दृष्टि से ताकतवर जाटवों/चमारों की पार्टी बन गई है जिसमें
दूसरी दलित जातियों की पूछ नहीं है और न ही उन्हें सत्ता में हिस्सा मिलता है. यही
नहीं, बसपा की नेता मायावती ने जिस तरह से सत्ता हासिल करने के लिए दलित हितों के
साथ समझौते किए हैं, उससे भी दलित समुदाय में बेचैनी बढ़ रही थी. दूसरी ओर, बसपा के
पास समाज के दूसरे वर्गों और सामाजिक समूहों को आकर्षित करने के लिए भी कोई
लुभावना एजेंडा नहीं था.
भाजपा ने इसका पूरा फायदा उठाया. उसने गैर यादव
पिछड़ों खासकर संख्याबल में भारी लेकिन राजनीतिक रूप बिखरे अति पिछड़ों और दलितों के
बीच गैर जाटव/चमार जातियों को गोलबंद करने के लिए संगठित और योजनाबद्ध प्रयास
किया. इसके लिए न सिर्फ गैर यादव पिछड़े नेतृत्व को उभारा, अति पिछड़ों को टिकट
दिया, उन्हें पार्टी नेतृत्व में जगह दी बल्कि अपना दल (कुर्मी समुदाय) और
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (राजभर समुदाय) जैसी छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन भी
किया. सपा/बसपा/कांग्रेस से अति पिछड़ी जातियों और समुदायों के प्रभावी नेताओं को
भाजपा में शामिल करने से लेकर उन्हें उदारता के साथ टिकट दिया गया. चुनाव लड़ने के
लिए उन्हें संसाधन मुहैया कराए. इससे यह सन्देश गया कि सपा और बसपा की तुलना में
भाजपा में अति पिछड़ों और अति दलितों के लिए ज्यादा और सम्मानजनक जगह है.
लेकिन गैर यादव अति पिछड़ी और गैर जाटव/चमार अति
दलित जातियों की यह सामाजिक इंजीनियरिंग इतनी कामयाब नहीं होती, अगर इसके आधार में
अगड़ी जातियों और जाट समुदाय जैसे दबंग समूह की गोलबंदी नहीं होती. भाजपा ने अगड़ी
जातियों को पूरी तरह और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली जाट समुदाय को भी
काफी हद तक एकजुट रखने और हिन्दुत्ववादी अस्मिता में बाँधने में कामयाब हासिल की.
भाजपा अगड़ी जातियों और जाटों को यह समझाने में सफल रही कि सपा और बसपा के राज के
बरक्स भाजपा के राज में सत्ता की डोर उनके हाथों में रहेगी और उन्हें सत्ता की
मलाई में मनमाना हिस्सा मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि अगड़ी जातियों को लम्बे
अरसे बाद सत्ता की कमान अपने हाथों में आती हुई दिखाई दे रही थी.
नतीजा, अगड़ी जातियों ने भाजपा को हाथों-हाथ
लिया. इस चुनाव में अगड़ी जातियों की भाजपा के पक्ष में गोलबंदी अभूतपूर्व थी.
आमतौर पर सपा के पक्ष में यादव समुदाय और बसपा के पक्ष में जाटव/चमार समुदाय की
सम्पूर्ण गोलबंदी और वोट ट्रांसफर की चर्चाएँ होतीं हैं लेकिन सच यह है कि इन
चुनावों में किसी भी अन्य जाति समूह की तुलना में अगड़ी जातियों का भाजपा के पक्ष
में पूर्ण ध्रुवीकरण हुआ. इस ध्रुवीकरण का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि आमतौर
पर एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी मानी जानेवाली अगड़ी जातियों जैसे
ठाकुर-ब्राह्मण-भूमिहार आदि ने आपसी झगड़ा छोड़कर भाजपा को एकतरफा वोट दिया. असल
में, भाजपा की हिन्दू अस्मिता की राजनीति में अगड़ी जातियों की सत्ता में जोरदार
पुनर्दावेदारी के उभार को अनदेखा करना मुश्किल है.
हिन्दुत्ववादी गोलबंदी
दरअसल, भाजपा ने चरम के गठबंधन की सामाजिक
इंजीनियरिंग को हिंदुत्व के सीमेंट से जोड़ा. इसके लिए भाजपा और आरएसएस के दूसरे
हिन्दुत्ववादी अनुषांगिक संगठनों ने यह प्रचार जोरशोर से चलाया कि सत्ता में
भागीदारी के मामले में सपा और बसपा के राज में अगड़ों, अति पिछड़ों और अति दलितों का
हिस्सा मुस्लिम बटोर ले जाते हैं. यह प्रचार भी चलाया गया कि सपा-बसपा मुस्लिम
वोटों को लुभाने के लिए उनका तुष्टीकरण करती हैं और हिन्दुओं का हक़ मारती हैं. हिन्दुत्ववादी
संगठनों के इस जहरीले सांप्रदायिक प्रचार को सपा-कांग्रेस और बसपा की मुस्लिम
वोटों के लिए खुली मारामारी से और बल मिला. खासकर मायावती ने जिस तरह से 100 टिकट
मुसलमान उम्मीदवारों को दिया और हर सभा में इसका जिक्र करते हुए भाजपा को हारने के
लिए मुस्लिम समुदाय से बसपा को वोट देने की खुली अपील की, उससे भी भाजपा को हिन्दू
गोलबंदी में आसानी हो गई.
भाजपा ने न सिर्फ एक भी मुसलमान को टिकट नहीं
दिया बल्कि चुनाव प्रचार में खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने “श्मशान बनाम
कब्रिस्तान”, “ईद बनाम होली/दीवाली में बिजली सप्लाई में भेदभाव” जैसे मुद्दे
उछाले. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस-सपा-बसपा को “कसाब” से जोड़ दिया तो
नीचे जमीन पर भाजपा के प्रादेशिक और स्थानीय नेताओं, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं
ने जहरीले सांप्रदायिक प्रचार के जरिये हिन्दू ध्रुवीकरण करने में कोई कसर नहीं
उठा रखा. दोहराने की जरूरत नहीं है कि सपा और बसपा के कथित “मुस्लिम तुष्टीकरण” के
खिलाफ मुसलमानों को काबू में रखने के दावे के साथ अगड़ी जातियों के साथ-साथ अति
पिछड़ों और अति दलितों को हिन्दुत्ववादी झंडे के नीचे गोलबंद करने में भाजपा कामयाब
हो गई.
यहाँ यह भी गौर करने की जरूरत है कि उत्तर
प्रदेश ऐतिहासिक रूप से एक सांप्रदायिक ज्वालामुखी पर बैठा राज्य रहा है और वहां
सांप्रदायिक दंगों और गोलबंदी का इतिहास नया नहीं है. लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक से
उत्तर प्रदेश में एक हद तक सांप्रदायिक शांति का माहौल था जिसे 2013 में
मुजफ्फरनगर के दंगों ने न सिर्फ फिर से भंग कर दिया बल्कि मुस्लिम बहुल पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव को गाँव-गाँव और कस्बे-कस्बे तक पहुंचा दिया. लेकिन
मुजफ्फरनगर के दंगों की तैयारी लम्बे अरसे से चल रही थी. आरएसएस के अनुषांगिक
हिन्दुत्ववादी संगठनों- विहिप, बजरंग दल और हिन्दू जागरण मंच आदि ने लव जिहाद, गौ
रक्षा, हिन्दू पलायन, मस्जिदों में लाउडस्पीकर और घर वापसी जैसे मुद्दों पर जहरीले
सांप्रदायिक अभियान और विभिन्न इलाकों में छोटे-बड़े हिन्दू-मुस्लिम टकरावों के
जरिये सांप्रदायिक तनाव की आंच को भड़काए रखा था.
इस धीमी आंच पर पकते सांप्रदायिक तनाव का अंदाज़ा
पिछले साल अक्तूबर में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में अप्पू एस्थोश सुरेश की तीन किस्तों
में छपी रिपोर्ट “एनाटॉमी आफ ए रायट” से लगाया जा सकता है जिसके मुताबिक जनवरी,
2010 से अप्रैल 2016 के बीच उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक झगड़ों/टकराव की 12000
घटनाएँ दर्ज की गईं. सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों की घटनाएं 2011 और 12 के बीच
तिगुनी बढ़ गईं और 2012 में सपा के सत्ता में आने के बाद से इन घटनाओं में और तेजी
से वृद्धि हुई है. हालाँकि इन सांप्रदायिक झगड़ों का मुख्य केंद्र पश्चिमी उत्तर
प्रदेश रहा है लेकिन इससे मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं रहा है.
इन्हें रोकने में सपा की अखिलेश यादव सरकार की नाकामी के साथ-साथ सभी धर्मनिरपेक्ष
दलों की वैचारिक विफलता भी किसी से छुपी नहीं है.
नतीजा सामने है. भाजपा ने पहले 2014 और अब 2017
में इसकी फसल काटी है. उसने धीमी आंच पर निरंतर पकते सांप्रदायिक तनाव को जिन्दा
रखकर हिन्दू ध्रुवीकरण करने और उसके स्थाईकरण में कामयाबी हासिल की है. हैरानी की
बात नहीं है कि इस रणनीति के तहत ही भाजपा/आरएसएस ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक
कमान योगी आदित्यनाथ को सौंपी है जिनकी राजनीति कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के खिलाफ
आक्रामक हिन्दू गोलबंदी की राजनीति रही है. भाजपा की नई सरकार के एजेंडे और
मुद्दों से भी जाहिर है कि वह 2019 के आम चुनावों की तैयारी करने में जुट गई है
जिसमें सबसे ज्यादा जोर हिन्दू ध्रुवीकरण पर होगा.
क्या यह उत्तर प्रदेश की
राजनीति में भूकंपीय बदलाव का सूचक है?
कई राजनीतिक पंडित उत्तर प्रदेश में भाजपा की
भारी जीत को प्रदेश की राजनीति में एक बड़े भूकंपीय बदलाव की तरह देख रहे हैं. भाजपा
राज्य की सबसे बड़ी और पूर्ण वर्चस्ववाली पार्टी बन गई है जो राज्य में पूरब से
लेकर पश्चिम तक ताकतवर और प्रभावी रूप में मौजूद है. उसके पास संगठन और
कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज, सत्ता की मशीनरी और संसाधनों की बहुतायत है. दूसरी ओर, हिन्दू
अस्मिता की राजनीति के जबरदस्त उभार और भाजपा की सफल सामाजिक इंजीनियरिंग के कारण
प्रदेश में कांग्रेस का लगभग पूरी तरह सफाया हो गया है. उत्तर प्रदेश संभवतः हिंदी
क्षेत्र में पहला कांग्रेस मुक्त राज्य बनने की दिशा में बढ़ चला है.
इसी तरह सपा और खासकर बसपा के लिए आनेवाले दिन
बहुत मुश्किल होने जा रहे हैं. लगातार तीन चुनावों (2012, 2014 और अब 2017) में
हार के बाद बसपा के लिए राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने की लड़ाई और मुश्किल हो
गई है. इसी तरह सपा के सामने भी खुद को मैदान में फिर से खड़ा करने की चुनौती है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने उनसे बड़ा और प्रभावी सामाजिक गठबंधन खड़ा कर
लिया है. यही नहीं, भाजपा की आक्रामक हिन्दू ध्रुवीकरण की राजनीति का इन दलों के
पास कोई राजनीतिक-वैचारिक जवाब भी नहीं दिख रहा है.
इसके बावजूद यह कहना जल्दबाजी होगी कि उत्तर प्रदेश
में भाजपा की भारी जीत राज्य और कई मायनों में पूरे हिंदी क्षेत्र की राजनीति में
एक बड़े भूकंपीय बदलाव का नतीजा है लेकिन भाजपा और आरएसएस ने जिस तरह से इस भारी
जीत के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति और उससे बढ़कर समाज को पुनर्संगठित और
निर्देशित करने की कोशिशें शुरू की हैं, उसे हल्के में लेने की भूल नहीं करनी
चाहिए. इसे आरएसएस के भूकंपीय बदलाव के प्रोजेक्ट के आगाज़ और विस्तार दोनों रूप
में देखना चाहिए. राज्य में मुख्यमंत्री के बतौर योगी आदित्यनाथ की नियुक्ति और
गोरक्षा और अवैध बुचडखानों पर रोक से लेकर एंटी रोमियो स्क्वाड तक आक्रामक
हिंदुत्व के प्रोजेक्ट को एक व्यापक सन्दर्भ में देखने की जरूरत है.
ऐसा लगता है कि आरएसएस के भारत को एक हिन्दू
राष्ट्र में बदलने के प्रोजेक्ट में गुजरात और एक हद तक मध्यप्रदेश जैसे राज्य के
बाद हिंदी क्षेत्र के सबसे प्रमुख राज्य- उत्तर प्रदेश का नंबर है. उत्तर प्रदेश
के सामाजिक रूप से जड़ पित्रसत्तात्मक सामंती समाज इस प्रोजेक्ट के लिए मुफ़ीद जमीन
है. कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में आनेवाले महीनों में
भाजपा/आरएसएस इस जीत को और संगठित करने और विस्तार देने की कोशिश करेंगे. इसमें
कोई शक नहीं है कि राज्य की राजनीति के एक नए लेकिन तनाव, बेचैनी और अनिश्चितता
भरे दौर में प्रवेश कर गई है.
अच्छा लेख। तार्किक विश्लेषण। लेकिन भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील होने से बचाने का कोई तो रास्ता जरूर होगा। उसपर चलने की जरूरत है।
ReplyDeleteवही एकतरफा, run-of-the mill विश्लेषण, जो हर जगह सुनाई पड़ता है। दिल्ली के बुद्धिजीवियों की यही समस्या है। वहाँ एक खास नजरिये से ग्रस्त बातों का ओवरडोज़ उन्हें कुछ अलग सोचने का मौका, और अलग कहने की हिम्मत नहीं देते।
ReplyDeleteLekh ke vishleshhan se poorna sahmati hai.Samasya waad ki nahin ugrata ki hai.Rajniti par adharit samajik soch samajik samanway ke liye sirf khatra hai.
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