चम्पारण सत्याग्रह और आज का भारत
कुमार शुभमूर्ति
भारत में सत्याग्रह की
शुरुआत चम्पारण से हुई थी। वह सत्याग्रह इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में
लिखा हुआ है। लेकिन गाँधी को अपनी हत्या के सत्तर बरस बाद भी इतिहास की किताबों
में कैद नहीं किया जा सकता । वह वर्तमान में खड़ा है, अपनी पूरी
ताकत के साथ और भविष्य से भी उसकी चेतावनी और चुनौतियों से भरी ललकार सुनाई दे रही
है।
क्या हममें वह समझ है कि
उसकी चेतावनी समझ सकें, उन चुनौतियों को स्वीकार कर सकें ? सत्याग्रह को आज की परिस्थितियों से जूझना है,
समस्याओं का समाधान ढूंढना है तभी वह जीवित और सामयिक रह पाएगा। वास्तव में यह
सवाल सत्याग्रह के जीवित रहने का नहीं है, खुद हमारे जीने और
मरने का सवाल है । हमारी स्वतन्त्रता और हमारी मनुष्यता के बचे रहने
का सवाल है।
हम चम्पारण सत्याग्रह में
सूत्रों की खोज करें तो उसमें सबसे पहला सूत्र हमें मिलता है श्री राजकुमार शुक्ल
के उन गुणों में जिसे हम भरोसा ओर ज़िद कहते हैं। उन्हें गांधी पर भरोसा था। लेकिन यह भरोसा केवल भक्ति वाला नहीं था, ज़िद्दी भरोसा था। इसमें एक
अधिकार भाव था। आप हमारे चंपारण चलिये, से आगे बढ़कर वे ठान
चुके थे कि आपको हमारे चम्पारण चलना पड़ेगा। हम किसानों की हालत देखनी पड़ेगी। ज़िद
और भरोसा मिलकर एक बड़ी ताकत बन जाती है। अपनी ज़िद को सफ़ल बनाने के लिए उन्होने
गाँधी जी से काँग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में चम्पारण के किसानों के पक्ष में
प्रस्ताव रखने को कहा पर गाँधी जी ने तुरत इंकार कर दिया। जबतक तथ्यों की पड़ताल
मैं स्वयं न कर लूँ तबतक उसपर मैं किसी भी प्रकार की कार्यवाई कैसे कर सकता
हूँ
सत्याग्रह की एक अनिवार्य शर्त यह होती है की पहले सत्य क्या है उसकी पूरी छानबीन कर ली जाए।
सत्याग्रह की प्रक्रिया
में नेतृत्व हमेशा चौकन्ना रहता है और कम पड़ता देख साथी की सारी ज़िम्मेदारी उठा
लेने को तैयार रहता है। पटना से मुज़फ्फ़रपुर होते हुए गाँधी जी मोतिहारी पहुंचे तो
मौलाना मज़हरुल हक और आचार्य कृपलानी उनके साथ थे। राजेंद्र बाबू समेत अनेक लोगों
को तार भेज कर मोतिहारी बुला लिया गया था। प्रशासन को भी हर स्तर को सूचना मिल जाए इसकी खास सावधानी गांधी
जी रखते थे।
गाँधी के व्यक्तित्व और काम करने की शैली का असर
जनता और अधिकारियों दोनों पर ऐसा पड़ने लगा की माहौल में निर्भयता व्याप्त होने
लगी। सरकार की कार्यवाई का डर था फिर भी लोग गाँधी जी से मिलने को आतुर होने लगे।
प्रशासन ने गाँधी जी को इलाके से निकल जाने का आदेश दे दिया। गाँधी जी ने आदेश का
पालन करने से इंकार कर दिया और कहा की आदेश का उल्लंघन करने की जो सज़ा हो उसे वह
भुगतने के लिए तैयार हैं। सरकार हक्का बक्का रह गई। उसने सज़ा सुनाने के नाम पर पाँच-छः दिनों की
मोहलत ले ली।
इसी मोहलत के समय में
गाँधी जी ने आलेखों को लिखने और इकठ्ठा करने का जैसे सौम्य सत्याग्रह ही छेड़ दिया।
भय के बादल छट रहे थे। सैकड़ों दीन दुर्बल किसान अलग अलग कातिबों के पास जुट गए और अपने ऊपर हो रहे अन्याय का
ब्योरा देने लगे। ज़ुल्म की कहानियां जब खुलेआम कही जाने लगती हैं तो ज़ुल्म सहने
वाले के मन से ज़ुल्मी का डर समाप्त हो जाता है। किसी भी प्रकार का सत्याग्रह हो
इसके लिए निर्भयता का वातावरण और स्वयं सत्याग्रही का निर्भय हो जाना जैसे मानों
पूर्व शर्त ही है।
आगे बढ़ने के लिए जो निर्भयता की परीक्षा देनी थी वो
परीक्षा भी हो गई और प्रायः सभी उसमें पास कर गए। गाँधी जी के बुलावे पर बिहार के
जो नेता। चंपारण आए थे वो दो तीन दिनों की
मानसिक तैयारी ले कर आए थे। मौलाना मज़हरुलहक, राजेंद्र बाबू, ब्रजकिशोर बाबू लाखों रुपये के वकील थे। तीन चार दिनों की वकालत छोड़ देना
ही बड़ी बात थी। पर यहाँ तो गाँधी जी पूछ बैठे कि पाँच- छः दिनों की मोहलत के बाद
न्यायालय ने सज़ा के तौर पर मुझे जेल भेज दिया तो आप लोग क्या करेंगे? जेल जाने की बात तो किसी ने सोची भी नहीं थी। उन लोगों ने अलग अलग जवाब
दिया। वे सोचते रहे। अंत में यही तय हुआ की यदि बाहर से गाँधी जी हमारे लिए जेल जा
सकते हैं तो हमें तो जाना ही चाहिए।
जेल जाने की तैयारी की बात
सुनकर गाँधी जी बोल उठे “अब तो फतह हो गई”।
जेल जाने की तैयारी जैसे निर्भयता और निश्चय की कसौटी थी।
चम्पारण सत्याग्रह में जीत
का विश्वास लेकर गाँधी जी आगे बढ़े। कोर्ट ने प्रतीक के तौर पर जुर्माना लगाया
अन्यथा जेल जाना पड़ेगा । गाँधी जी ने जुर्माना देने से इंकार कर दिया। कोर्ट ने
जुर्माना भी माफ कर दिया। जब कोर्ट परिसर से गाँधी जी बाहर निकले तो बाहर भूखे
नंगे लोगों की अपार भीड़ खड़ी थी। गाँधी जी
का सत्याग्रही व्यक्तित्व खुलकर सामने आ गया, और लोगों पर अपना
प्रभाव जमाने लगा। साहस और अहिंसा की प्रतिमूर्ति गाँधी का सत्याग्रही चरित्र साफ
साफ कह रहा था कि यदि तुम सच्चे हो तो अड़े रहो तुम्हारी जीत निश्चित है।भुखमरी
झेलती निलहों की शिकार चम्पारण की जनता ने इसे गाँधी जी की बहुत बड़ी जीत माना।
जैसे कोई जादूगर पिंजड़े से ताला खोल कर बाहर आ गया हो
आगे अनेक कार्यक्रम लिए गए। परंतु एक
विशेष काम जो हुआ उसका ज़िक्र करना ज़रूरी है। गाँधी जी ने अपने परिवार और टोली के
अनेक सदस्यों की पत्नियों को चम्पारण बुला लिया। कस्तूरबा तो अग्रणी थी हीं। इन सबको गाँधी ने समग्र शिक्षण के काम में झोंक
दिया। यह प्रयोग, सत्याग्रह और शिक्षण का अटूट प्रदर्शित करता है । आज का जो भीतिहरवा आश्रम
प्रसिद्ध है वह भी इसी समय पाठ शाला के रूप मे स्थापित हुआ था । इसकी कमान
सम्हालने वालों मे खुद कस्तूरबा भी थीं । एक बार जब बांस – फूस की बनी यह पाठ शाला
आग लगने से जल गयी तो लोगों के सहयोग से इसे पक्की ईंट का बना दिया गया । गांधी जी
उस जमाने मे भी उपयोगी तकनीक का इस्तेमाल करने से हटते नहीं थे।लोगों की बनाई उन
देहाती सड़कों पर उनकी कार भी दौड़ा करती थी।शिक्षण के ऐसे अनुभव मे से ही
गांधीजी ने बुनियादी तालीम की अवधारणा का विकास किया और बीस वर्षों के बाद जब यह
परिपक्व हुआ तो उन्हों ने इसकी घोषणा यह कह कर की की विश्व को यह मेरी सर्वोत्तम
देन है । सत्याग्रह से भी उत्तम । सत्याग्रह और बुनियादी तालीम के इस संबंध को
विनोबा ने बहुत ही सुंदर तरीके से कहा है , “जो सत्याग्रही है उसे सत्य-ग्राही” भी बनना पड़ेगा ।
वास्तव मे शिक्षण की प्रक्रिया से ही सत्य के बारे मे हमारी समझ बढ़ सकती है ।
चम्पारण का यह सत्याग्रह लगभग छह
महीने चला होगा । लेकिन इसकी छाप अमिट रह गयी । इसका एक बुनियादी कारण यह था की इस
काम में जो टीम लगी उसका आधार था भाईचारे की भावना और उसकी दिशा थी समानता की । आपसी व्यवहार में विनयशीलता जैसे “कोड ऑफ
कंडक्ट” बन गयी थी । स्वयं महात्मा गांधी
से लेकर , ब्रज किशोर बाबू , राजेंद्र बाबू , धरणीधर बाबू , रामनवमी बाबू आदि और बाहर से आए नरहरी
परीख , महादेव देसाई, अवन्तिका बाई, कस्तूरबा खुद और अन्य महिलाएं , सबों मे परस्पर आदर
,प्रेम और दोस्ती का भाव था । चंदे का पैसा जरूर आता था पर
रोजमर्रे के भोजन का आधार था शरीर श्रम । यह “शरीर श्रम” बिहारी बाबुओं के लिए तो
जैसे अनजाना ही था । फिर भी सबने नौकर छोड़े, अपना जूठा खुद
उठाया धोया , अपने और अपने मित्रों के भी कपड़े धोये । यही कारण थे कि ये सब आपस मे जिंदगी भर के लिए
जुड़ गए ।
चम्पारण सत्याग्रह ने जहां जनता के मन से
डर और भय को भगाया वहीं नेताओं के मन से बहुत सारे सामंती और हिन्दू मूल्यों को
ध्वस्त कर दिया। लेकिन ये सब भावनाएं कितनी जिद्दी होती हैं यह गांधी जानते थे और
सत्याग्रह के माध्यम से एक नयी संस्कृति निर्मित करने के लिए चम्पारण मे ही वर्षों
लगाना चाहते थे। लेकिन देश भर से उठने वाली पुकारें गांधी को सुनाई देने लगीं। छह
महीने मे ही उन्हे चम्पारण छोड़ना पड़ा । इसकी कसक उनके मन मे कुछ ऐसी थी की अपनी
आत्मकथा मे वे लिखते हैं कि “ईश्वर ने
मेरे मनोरथ प्रायः पूरे होने ही नहीं दिये” । आज भी उनके “हिन्द स्वराज्य” का “मनोरथ”
बिखरा पड़ा है ।

लेखक लोकनायक जयप्रकाश
नारायण द्वारा गठित ‘तरुण शान्ति सेना’तथा ‘संघर्ष वाहिनी’ के पहले राष्ट्रीय संयोजक एवं ‘बिहार भूदान यज्ञ
समिति’ के अध्यक्ष हैं.
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shubhamoorty@gmail.com
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