22 May 2017

आज का भारत और भारतीय बुद्धिजीवी रविभूषण

आज का भारत और भारतीय बुद्धिजीवी


रविभूषण
जब देश में बहुत कुछ बेशर्मी के साथ डंके की चोट पर खुल्लमखुल्लाहो जा रहा हो, राजनीतिक दलों ने अपने को चुनावी गणित और समीकरण में स्वेच्छया कैद कर लिया हो, भय, असहिष्णुता, आतंक, घृणा और अवश्विास निरन्तर बढ़ रहा हो, तब बुद्धिजीवियों का दायित्व पहले की तुलना में कहीं अधिक बढ़ जाता है । जब भारतीय लोकतन्त्र में पफाँसीवादी प्रकृत्ति बढ़ रही हो, संविधान की ऐसीतैसी करने वाली शक्तियाँ प्रमुख पदों पर विराजमान हों, अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हों, लोकतन्त्र की विश्वसनीयता घट रही हो, लोकतन्त्र कंटेट में न रहकर पफार्ममें ही सिमट गया हो, व्यक्तिपूजा बढ़ रही हो, प्रधानमन्त्री सभी अर्थों में सर्वोपरि हो गया हो, तब समाज बुद्धिजीवियों से यह अपेक्षा करता है कि वह पूरी सत्यतानिर्भीकता से सामने आये और तार्किकतावैचारिकता की रक्षा करते हुए अपनी भूमिका का निर्वाह करे ।
इस वर्ष हमें विशेष रूप से अन्तोनियों ग्राम्शी (22 जनवरी, 1891–27 अप्रैल, 1937) और नोम चोम्स्की (7–12–1928) को याद करना चाहिए था। ग्राम्शी की अस्सीवीं पुण्यतिथि (27 अप्रैल, 1937) बीत चुकी है और पचास वर्ष पहले (23 पफरवरी, 1967) नोम चोम्स्मी ने दि न्यूयॉर्क रिव्यू ऑपफ बुक्समें दि रिस्पॉन्सबिलिटी ऑपफ इंटेलेक्चुअल्सशीर्षक से जो आलेख लिखा था उसके पचास वर्ष पूरा होने के बाद हमारा उधर ध्यान नहीं गया । जिस प्रकार आज भारत में प्रश्नकर्ताओं, कवियों, लेखकों और बौद्धिकों  को बौद्धिक  आतंकवादी कहने का चलन बढ़ रहा है, हमें अपनी बौद्धिक  गतिविधियों को कहीं अधिक सक्रिय और जीवन्त करने की जरूरत है । 1947 में जब नोम चोम्स्की स्नातक के छात्र थे, उन्होंने अमेरिकी लेखक, सम्पादक, फिल्म  आलोचक डवाइट मैकडोल्ड (24 मार्च, 1906–19 दिसम्बर, 1982) की पॉलिटिक्समें प्रकाशित बौद्धिकों  की जिम्मेदारी पर प्रकाशित लेखों की एक सीरीज़ पढ़ी थी । यह द्वितीय विश्वयुद्ध  के बाद का समय था । चोम्स्की ने बीस वर्ष बाद (1967) पुनः  उस निबन्ध को पढ़कर अपना लेख लिखा था । मैकडोनल्ड ने यह सवाल किया था कि जर्मन और जापानी जनता अपनी सरकारों द्वारा किये गये अत्याचार और संहार के लिए कहाँ तक जिम्मेवार थी ? ब्रिटेन और अमेरिका ने जो बमबारी की थी, उसके लिए ब्रिटेन और अमेरिका की जनता क्या दोषी नहीं थी ? चोम्स्की का विशेष बल इस पर है कि बुद्धिजीवियों  को सच के साथ और झूठअन्याय के विरुद्ध  सदैव डटकर खड़ा रहना चाहिए । आज राजनीतिक दलों की धोखाधड़ी, सरकार के कार्यों, नीतियों और निरन्तर की जा रही अनेक घोषणाओं पर ध्यान देना, सच और झूठ को स्पष्ट करना प्रत्येक बुद्धिजीवी  का दायित्व है । एक घटना के बाद दूसरी घटना और घटनाओं की निरन्तरता पर ही ध्यान देने से उसके पीछे के उन मंसूबों को नहीं समझा जा सकता, जो कहीं अधिक खतरनाक है । यह समय एक साथ दृश्य और अदृश्य पर, मंच  और नेपथ्य पर ध्यान देने का है । हमारे मानस को, जनमानस को एक दीर्घकालीन एजेंडे मैं जिस प्रकार बदला जा रहा है, वह कहीं अधिक भयावह और घातक है । राजनीति बौद्धिक  मानस का अब निर्माण करती। वह इसे अब नियन्त्रित, अनुकूलित कर एक विशेष दिशा में सक्रिय करती है । बाह्य आक्रमण के स्थान पर मानस पर किये जाने वाले आक्रमणों की पहचान अधिक कठिन है ।
सामान्यतः भारत में प्रत्येक शिक्षितसुशिक्षित व्यक्ति अपने को बुद्धिजीवीसमझता है उसकी यह समझ समाज में बुद्धिजीवियों की एक अलग और विशिष्टि समझ से जुड़ी है । सच्चाई यह है कि प्रत्येक समाज कई समूहों में विभक्त होता है और प्रत्येक सामाजिक समूह के अपनेअपने बुद्धिजीवी  होते हैं। देश के प्रत्येक राजनीतिक दल के भी अपनेअपने बुद्धिजीवी है । वस्तुत% बुद्धिजीवी अपने में कोई सामाजिक श्रेणी नहीं है । प्रत्येक समाज में बुद्धिजीवी सदैव रहे हैं, पर उनके निर्माण के बाद विकास भिन्न रूपों में हुआ है । ग्राम्शी के अनुसार श्रम के स्थान पर बुद्धिजीवी बुद्धिबल  से कार्य करता है । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा और मोदी के यहाँ बुद्धिजीवियों का कोई मानसम्मान नहीं है । इनके अपने बुद्धिजीवी कम हैं जो है भी उनका बुद्धिविवेक, तर्क, संवाद, बहस, ज्ञान से कम सम्बन्ध है । काँग्रेसी बुद्धिजीवी कुछ अधिक थे । वामपन्थी दलों ने काँग्रेस के साथ जुड़कर अपना और काँग्रेस दोनों का नुकसान किया । छद्म बुद्धिजीवियों की संख्या का बढ़ना और वास्तविक बु(िजीवी की संख्या का कम होना अचानक नहीं हुआ है । छद्म बुद्धिजीवी बौद्धिक  श्रम को शारीरिक श्रम की तुलना में कम महत्त्व देने के कारण अपने को विशिष्ट समझता है । ग्राम्शी पूँजीवादी उद्योगपति को पहला बुद्धिजीवीकहते थे, जो अपने साथ राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, संस्कृतिकर्मी, विधिवेत्ताओं का एक समुच्चय बनाता है । ऐसे बुद्धिजीवी पूँजीवाद के शुभैषीहितैषी होते हैं । आज जहाँ अधिसंख्य लोगों की भावना आहत हो रही है, वहाँ स्पष्टतः बुद्धिविवेक के लिए विशेष स्थान नहीं बच रहा है । भावनाचालित और विवेकचालित व्यक्तिसमूह में अन्तर है । ग्राम्शी ने प्रिज़न नोट बुक्समें बुद्धिजीवी और शिक्षापर एक साथ विचार किया है ।
क्या हम अपने देश में फासीवाद को  उभरते नहीं देख रहे है, उसकी आहटें नहीं सुन रहे हैं ? तीन वर्ष के भीतर जो भी घटा है, घट रहा है, उससे आँखें नहीं मूँदी जा सकती हैं । फासीवाद के निशाने पर सदैव बुद्धिजीवी रहे हैं । इटली में मुसोलिनी (29 जुलाई, 1882–28 अप्रैल, 1945) ने 23 मार्च, 1919 को एक नये राजनीतिक संगठन फासीदिकंबात्तिमंतीका गठन किया था । इसके लगभग दो वर्ष बाद 21 जनवरी, 1921 को ग्राम्शी ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इटलीका गठन किया । फासिस्टों ने 30 अक्टूबर, 1922 को रोम पर कब्ज़ा किया । ग्राम्शी 1924 में इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने । 8 नवम्बर, 1926 को वे गिरफ्रतार किये गये । राष्ट्रद्रोह का उन पर आरोप लगाया गया था । फ्रांसिस बेकन (22 जनवरी, 1561–9 अप्रैल, 1626) के समकालीन इटली के तोमासो कम्प्रानेला (5 सितम्बर, 1568–21 मई, 1639) पर भी राष्ट्रद्रोहका आरोप मढ़ा गया था । उन्हें 27 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी थी । ग्राम्शी को आरम्भ में पाँच वर्ष की सजा सुनाई गयी थी । जून 1928 में यह सजा बढ़कर 20 वर्ष 8 महीने की हो गयी । जिस प्रकार कम्पोनेला ने सिटी ऑफ  दि सनकी रचना जेल में रहकर की थी, उसी प्रकार ग्राम्शी ने प्रिज़न नोट बुक्सजेल में रहकर लिखा । उनकी गिरफ्तारी पर मुसोलिनी ने कहा था- हमें इसके दिमाग के सोचने पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए ।अपने तानाशाह की इच्छा दुहराते हुए मुकदमें के दौरान स्पेशल ट्रिब्युनलके सामने अभियोग पक्ष के माइकल इसग्रो ने ग्राम्शी के बारे में अपनी यह राय व्यक्त की थी-‘‘हमे इसके दिमाग के सोचने पर अगले बीस वर्षों तक अंकुश लगा देना चाहिए ।’’ यह सम्भव नहीं हुआ ।
ग्राम्शी 19 जुलाई, 1928 को तुरी कारावास में लाये गये । यहाँ वे साढ़े पाँच वर्ष तक रहे थे । 1929 में उन्हें अपने सेल  में लिखने की अनुमति मिली । फरवरी 1929 में उन्होंने पहला नोट बुकलिखना आरम्भ किया । पहले नोट बुक का समय 1919–31 और दूसरे नोट बुक का समय 1931–34 है । 1932 में उन्होंने नोटबुक की योजना में संशोधन किया । तीसरा समय 1934–35 है । ग्राम्शी ने जेल में रहकर 2848 पृष्ठों की विशद पाण्डुलिपि तैयार की, जो प्रिज़न नोट बुकके नाम से चर्चित है । जेल के भीतर उन्होंने 33 डायरी और 500 पत्र लिखे । 1932 में अपने आठवें नोट बुक के दस ग्रुपों में पहला बुद्धिजीवी और शिक्षाहै । स्कूल उनके लिए विशेष महत्त्वपूर्ण था, जहाँ विभिन्न स्तरों के बुद्धिजीवी विकसित होते हैं। भारत के जेएनयू सहित कई प्रमुख विश्वविद्यालयों पर होने वाले हमलों को हमें निर्मितविकसित हो रहे बौद्धिक  मानस पर हमलों के रूप में देखना चाहिए । आज ग्राम्शी को पुनः  पढ़ने और समझने की कहीं अधिक आवश्यकता है । ग्राम्शी के अनुसार बुद्धिजीवियों की पहचान सामाजिक परिवर्तन के निमित्त उनकी भूमिका के आधार पर की जानी चाहिए, मात्र लेखन और वक्तव्य के आधार पर नहीं । बुद्धिजीवियों  की सामाजिक सक्रियता अधिक आवश्यक है । यह सामाजिक सक्रियता सामाजिक परिवर्तन से जुड़ी होनी चाहिए । उन्होंने बुद्धिजीवी की व्यापक परिभाषा की ग्राम्शी ने प्रत्येक नये वर्ग के साथ उनके अपने आवयविक बुद्धिजीवियों के निर्माण की बात कही है । उन्होंने जिस प्रतिबद्ध’और संकल्पवान बुद्धिजीवी’ की बात कही है, वे हमारे देश में कितने हैं ? कहाँ हैं ? कौन हैं ? आज कितने बुद्धिजीवी आन्दोलनरत हैं ? अभी तक सम्भवतः हिन्दी के किसी भी आलोचक ने ग्राम्शी की बुद्धिजीवी सम्बन्धी धारणाअवधारणा पर विचार करते हुए रामविलास शर्मा के लेख जनआन्दोलन और बुद्धिजीवी वर्ग(1948) की चर्चा नहीं की है, जो उनकी पुस्तक स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्यमें संकलित है । ग्राम्शी ने आरम्भ में ही यह लिखा था कि बुद्धिजीवियों  का कोई स्वायत्तऔर स्वतन्त्रसामाजिक समूह नहीं है । रामविलास शर्मा के लेख की आरम्भिक पंक्ति है-‘‘क्या समाज में बुद्धिजीवी वर्गनाम का कोई अलग वर्ग होता है, जिसके आर्थिक सम्बन्ध सर्वहारा, मध्यम वर्ग या पूँजीपति वर्ग से अलग होते हैं ?’’ वे स्वयं उत्तर देते हैं- नहीं, इस तरह का अलग बुद्धिजीवी वर्ग नहीं होता ।’’
ग्राम्शी ने पादरियों को भी बुद्धिजीवियों की श्रेणी में रखा है और उसे आवयविक रूप से भूस्वामी कुलीन वर्ग से सम्बद्ध माना है । किसानों की भूमिका उत्पादनजगत में जितनी भी रही हो, पर न तो उसने अपने आवयविक बुद्धिजीवीका विकास किया और न पारम्परिक बुद्धिजीवियों के किसी भी समूह को अपने में आत्मसात् किया । हमारे देश में छलछन्द अधिक व्यापक है । चम्पारण सत्याग्रह की एक ओर जन्मशती मनायी जा रही है और दूसरी ओर तमिलनाडु के ऋणग्रस्त किसान दिल्ली में जन्तरमन्तर पर धरना दे रहे हैं । प्रदर्शन कर रहे हैं । दिल्ली में बुद्धिजीवियों का अभाव नहीं है और यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें पारम्परकि और आवयविक बुद्धिजीवी कौन और कितने हैं ? पुरस्कार वापसी के बाद देश में कम घटनाएँ नहीं घटी हैं । वे निरन्तर घट रही हैं भयाक्रान्त कर रही हैं । पर कोई बु(िजीवी इस माहौल कौन तो ललकार रहा है और न निरन्तर उसके विरुद्ध खड़ा है । मुख्य प्रश्न बुद्धिजीवी की आवयविक रूप से सम्ब(ता का है कि वह किस सामाजिक समूह से आवयविक रूप से सम्ब( है । छद्म और सरकारी बुद्धिजीवियों से जनसामान्य को मुक्ति नहीं दिलायी जा सकती । आज बुद्धिजीवियों पर कम आक्रमण नहीं हो रहे हैं । देश में कुछ समय से बौद्धिक आतंकवादकी चर्चा चलायी जा रही है । दुखद  स्थिति यह है कि आज का भारतीय बुद्धिजीवी स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर पा रहा है । यह कहींकहीं बौद्धिक ढुलमुलेपनका ही परिणाम है ।





ग्राम्शी पूँजीवाद के विकास के लिए सांस्कृतिक आधिपत्य(कल्चरल हेजेमनी) को जिम्मेदार मानते थे । सांस्कृतिक आधिपत्यवादको उन्होंने पूँजीवाद का सुरक्षा कवचकहा है । वे सांस्कृतिक आधिपत्य को शोषण के प्रमुख कारकों में गिनते थे । संस्कृति को उन्होंने वर्गसंघर्ष के सिद्धान्त की व्याख्या के लिए आधार बनाया था । सांस्कृतिक आधिपत्यकी जकड़न से केवल विवेक के जरिए ही निकला जा सकता है । भारत में विवेक का ह्रास और आस्था का विकासउन्नयन हुआ है । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता है । सांस्कृतिक राष्ट्रवादका वह जनक है । ग्राम्शी ने अर्थऔर धर्मके स्थान पर संस्कृतिको महत्त्व दिया था । वे सांस्कृतिक आधिपत्य से मुक्ति को अत्यावश्यक मानते थे । शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य को अज्ञानसे मुक्त करना है । भारतीय शिक्षा की चरमराहट दूर से भी सुनी जा सकती है । संस्कृति का अर्थ विकृत किया जा रहा हैं लफंगी पूँजी के दौर में ही लफंगे बढ़े हैं आक्रामक हुए हैं । ग्राम्शी ने बुद्धिजीवियों की सहायता से जिस समानान्तर राजनीतिकसांस्कृतिक संस्थाओं के निर्माणविकास की बात कही थी । वह हम नहीं कर सके और पहले से बनी राजनीतिकसांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़ गये । यह एक आत्मघाती कदम था । पूँजीवाद द्वारा सांस्कृतिक प्रतीकों को मनमाना अर्थ प्रदान करने से तभी रोका जा सकता था, जब बौद्धिक सर्वथा भिन्न राजनीतिकसांस्कृतिक संस्थाओं के निर्माण में कोई पहल करते । वह पहल क्यों नहीं की गयी और अगर की भी गयी तो हम क्यों असपफल रहे ? ग्राम्शी ने बुद्धिजीवीऔर सांस्कृतिक आधिपत्यको लेकर जितनी महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं उन पर विचार करना, सबसे समक्ष ले जाने का क्या यह उपयुक्त समय नहीं है ? हमने क्यों उनकी अस्सीवीं पुण्यतिथि को चुपचाप गुजर जाने दिया ?
               सबलोग,मई 2017 में लेखक के नियमित स्तम्भ ‘चतुर्दिक’ में प्रकाशित.


 लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं.
  +919431103960 ravibhushan1408@gmail.com



1 comment:

  1. Ek vidwan anubhawi chintansheel aur kartavyanishhth chintak-sameekshak ke shuddh prerak vicharon se ati labhanwit hone ka awsar pradan karne ke liye bahut bahut Dhanyawad.

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