08 June 2017

       
      एक जीनियस
    की गुमसुदगी     
                    रामदेव सिंह                    
1980 के दशक में भारतीय सिनेमा ही नहीं विश्व सिनेमा में भी एक नाम कई विशिष्टताओं के साथ चमक रहा था । वह नाम था उत्पलेन्दु चक्रवर्ती का जो 1970 के दशक में कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज  में एम ए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर नक्सलवादी किसान आन्दोलन के रास्ते बंगाल और बिहार के किसानों और खेतिहर मजदूरों की नियति को करीब से देख रहा था । जो अमल मांझी और स्वर्ण मित्र के नाम से  'बाघ शिकार',  'प्रसव',  'मयना-तदंतों', 'चोख' और 'देवशिशु' जैसी बेहतरीन कहानियाँ लिखकर स्तरीय लेखकों की पंक्ति में खड़ा हो गया था ।
  1975-76
में उत्पलेंदु ने अपनी भूमिका बदली और कलकत्ता ( कोलकाता ) की सड़कों पर कैमरा लेकर निकल पड़ा और राजनीतिक बंदी मुक्ति आन्दोलन , पुलिस अत्याचार वगैरह को लेकर पहली डाक्यूमेंट्री फिल्म बनायी  'मुक्ति चाई', जिसने भारतीय सिनेमा में एक नई चेतना का संचार किया । आदिवासियों की भूख और शोषण के विरुद्ध पहली फीचर फिल्म  'मयना-तदंतों' ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के रुप में स्थापित कर दिया । 'मयना-तदंतों' के बाद  'चोख' और ' देवशिशु' ने उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर  ख्याति दी । भारतीय सिनेमा के क्षेत्र में सत्यजीत रे के बाद उत्पलेंदु चक्रवर्ती ही ऐसे फिल्मकार हुए जिन्हें तीन बार अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले । वह भी महज चालीस वर्ष की उम्र से पहले । वे इसी उम्र में   फ्रांस , जर्मनी , अल्जीरिया , रुस , कोरिया , स्वीडन आदि देशों में बड़े सम्मानों से नवाजे जा चुके थे । उत्पलेंदु ने 'रंग', 'अपरिचिता' और 'विकल्प' नाम की टेलीफिल्म भी बनायी । जो सामाजिक विसंगतियों पर आधारित फिल्में हैं । उत्पलेंदु अपनी फिल्मों में कोई दर्शन थोपने की कोशिश नहीं करते थे बल्कि रोजमर्रा के सुख-दुख के रेशों को जोड़कर उसे सहज रुप में विकसित होने देते थे । 
 
उत्पलेंदु के बारे में इतनी सी भूमिका इसलिए कि आज की नयी पीढ़ी के फिल्म जिज्ञासुओं मे बहुत कम को उनके बारे में मालूम है । और जो पेशेवर फिल्म क्रिटिक हैं उनकी कलम से भी वे  शायद ही कभी संदर्भित होते हैं । 
   
मैंने भी उत्पलेंदु चक्रवर्ती की दो-तीन फिल्में देखी थी और लगा था कि यह नाम सत्यजित रे , मृणाल सेन ,और गौतम घोष से किसी मायने में कम नहीं है बल्कि वे कुछ मायने में ज्यादा कम्यूनिकेबल थी उनकी फिल्में ।उत्पलेंदु चक्रवर्ती से मेरा परिचय कथाकार मित्र नरेन के मार्फत हुआ से जो उन दिनों कलकत्ता ( कोलकाता ) में रह रहे थे और उत्पलेन्दु के काफी निकट थे । नरेन की पकड़ बांग्ला भाषा पर अच्छी थी सो वे उत्पलेन्दु के निजी सहायक हो गये थे । उनकी कहानियों के अनुवाद के साथ-साथ हिन्दी पट्टी में उनकी फिल्मों को भी प्रोमोट करने के अभियान में वे 
सक्रिय थे । तब नरेन में स्वयं भी इस माध्यम में कुछ सीखने और करने की अकुलाहट थी । हांलाकि वे इसमें सफल नहीं हो सके ।
  
नरेन से हमारी दोस्ती का वह सघन दौर था । हमलोग हर सप्ताह एक-दूसरे को पत्र लिखते थे । पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति हमदोनों ही वेपरवाह थे ।मैं उनदिनों अपनी नौकरी से ज्यादा रंगकर्म में सक्रिय था । नरेन घुमक्कड़ किस्म के प्राणी थे सो महीने में एकाध बार मुगलसराय-बनारस का चक्कर लग ही जाता । 1987 में नरेन ने अपने मुगलसराय प्रवास में एक प्रस्ताव दिया कि क्यों न मुगलसराय-बनारस में उत्पलेन्दु दा का कार्यक्रम रखा जाय ! मैंने अविश्वसनीयता से नरेन की ओर देखा- ' इतनी बड़ी सेलीब्रिटी को बुलाना ! आसान है क्या ? .. हमलोग उनके लिए कहाँ से मँहगा होटल अफोर्ड कर पायेंगे ? ' 
नरेन ने कहा - ' कोनो फाइव स्टार होटल में थोड़े ठहराना है ? अरे सामान्य सुविधाओं वाले होटल में भी ठहर जायेंगे । हाँ , बनारस के कला , साहित्य और संगीत की विभूतियों के साथ संवाद हो जाय , यही उद्देश्य होना चाहिए । 
  
नरेन के इस प्रस्ताव को मैंने स्वीकार कर लिया । बनारस की रंग संस्था ' गोकुल आर्ट्स' के डा० शिवसुंदर गांगुली और मोतीलाल गुप्ता से मेरे व्यक्तिगत संबन्ध थे । इस प्रस्ताव को मैंने उनके सामने रखा तो वे लोग सहर्ष तैयार हो गये । हमने सारा कार्यक्रम निर्धारित कर लिया । हम बहुत उत्साहित थे । 21 और 22 नवम्बर 1987 को पत्रकार वार्ता , रेडियो वार्ता ,डा० काशीनाथ सिंह के घर पर लेखकों-वुद्धिजीविओं से मुलाकात , नागरिक अभिनंदन और उनकी तीन फिल्मों के प्रदर्शन जैसे कई कार्यक्रम तय किये गये ।
   20
नवम्बर की शाम तक उत्पलेंदु और नरेन को मुगलसराय पहुँचना था । लेकिन सुबह जब मैं अपने घर पर सोया ही था तो नरेन के दरवाजा पीटने से हड़बड़ाकर जागा -' अभी कैसे ? प्रोग्राम स्थगित हो गया ? ' 
नरेन ने आश्वस्त किया -' हड़बड़ाइये नहीं , दादा आ गये हैं , स्टेशन पर हैं । ' 
बीस-पचीस मिनट बाद हमलोग स्टेशन पर थे । प्रथम श्रेणी के प्रतीक्षालय में एक कुर्सी पर चूड़ीदार पाजामा-कुर्ता में , शाल ओढे उकड़ू  से बैठे थे उत्पलेंदु चक्रवर्ती  । नरेन ने सिर्फ इतना कहा कि आर डी भाई हैं तो वे मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर खड़े हो गये । नरेन ने पहले ही मेरे बारे में सबकुछ बता दिया होगा । नरेन ने बताया कि उसने  कार्यक्रम में बदलाव की सूचना मोती भाई को टेलीग्राम द्वारा भेज दी थी । 
 
हमलोग रिटायरिंग रूम में आ गये थे। छह न० रूम खाली था । वे कमरे में पहुँच कर रिलैक्स हुए । मैं चाय की व्यवस्था करने बाहर निकल रहा था तभी कैटरिंग विभाग का स्टाफ रिटायरिंग रूम में ठहरे यात्रियों के लिए सुबह की चाय ले आया । वैसे मैं हीरा की दूकान से चाय मंगवाना चाहता था लेकिन बेयरे ने चाय बढ़ा दिया। संयोग से चाय अच्छी थी । दादा ने चाय का पहला सिप लेकर पूछा - ' बांगला बूझते पारे तो ? मैंने हाँ में सिर हिला दिया और कहा आप बोलते रहिए ..दिक्कत होगी तो नरेन हैं न !वैसे वे बांग्ला , अंग्रेज़ी और हिन्दी में भी बोल रहे थे । नरेन ने बताया कि पटना वाला कार्यक्रम राणाप्रताप ने कैंसिल कर दिया था । कुल्टी में भी संजीव भाई उतना बढ़िया नहीं करवा सके । मैंने नरेन को आश्वस्त किया कि यहाँ सब ठीक रहेगा । मैंने अपनी टीम के रंगकर्मी रतन वार्ष्णेय को बनारस भेजा ताकि मोती भाई को सूचना मिल जाये और लंच के बाद वे गाड़ी भिजवा दें । 
थोड़ी देर की बातचीत में ही उत्पलेंदु ने जैसे बौद्धिक आभा का सृजन कर दिया था । नक्सलवाद जैसे रेडिकल मूवमेंट से लेकर ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका पर उनकी बातें इतनी सम्मोहक थी कि मुझे वहाँ से हटने नहीं दे रही थी लेकिन मैं मेजवान था इसलिए मुझे बीच-बीच में मुझे जाना-आना पड़ रहा था । नाश्ता तो स्टेशन के कैंटीन से ही मंगवा दिया था लेकिन दोपहर का भोजन घर पर ही बनवाना था ।
 
उत्पलेंदु चेन स्मोकर थे । वह भी ट्रिपल फाइव जैसा मंहगा ब्रांड । वे मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री की घोर व्यवसायिकता से उपजी नाराजगी धुंएँ में उड़ा रहे थे -' वहाँ कोई डायरेक्टर आपको बोलता है कि दस लाख रुपया लाओ मैं फिल्म बना दूंगा तो फिल्म पूरी होते-होते बजट तीस लाख तक पहुँच जायेगा । तब भी कोई गारंटी नहीं कि फिल्म बनेगी ही । वह डिब्बे में बन्द भी हो सकती है... उधर एक हीरो जितना पारिश्रामिक लेता है उतने में मैं एक फिल्म बना लेता हूँ । लेकिन हिन्दी में बहुत झमेला है । इस्टर्न जोन के लिए फिल्म बनाता हूँ तो बम्बई-दिल्ली रिलीज नहीं करता है...।'
   
उनके मुँह से बेहिसाब गालियाँ भी झड़ रही थी लेकिन बीच-बीच में माफी भी मांग रहे थे -'बुरा मत मानना मेरी जुबान थोड़ी खराब है ।खाने का वक्त हुआ तो मैंने कल्लू ( जो उन दिनों निजी तौर पर हम कुछ मित्रों का सहायक था ) को घर  भेजकर रिटायरिंग रूम में ही खाना मंगवा लिया था । खाने में रोटी , चावल , दाल, सब्जी के अलावा मटन भी था । उत्पलेंदु ने सिर्फ मटन-चावल लिया और खाते हुए भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे जबकि मैंने खाते हुए महसूस किया कि मटन को थोड़ा और गलना चाहिए था । तीन बजे के लगभग मोती भाई गाड़ी लेकर स्वयं आ गये थे जिनके साथ उत्पलेंदु दा और नरेन बनारस गये जहाँ पराड़कर स्मृति भवन के गेस्टहाउस में उनके ठहरने की व्यवस्था की गयी थी । 


 
अगले दिन सुबह नौ बजे पराड़कर भवन में पत्रकार वार्ता हुई । काशीनाथ जी को मैंने पहले ही सूचित कर दिया था कि हम उत्पलेंदु चक्रवर्ती के साथ उनके घर पर आयेंगे जहाँ शहर के लेखकों-बुद्धिजीवियों से बातचीत होगी । उस कार्यक्रम में पन्द्रह-बीस लोग उपस्थित थे । उत्पलेंदु के एक वक्तव्य के बाद काफी देर तक अनौपचारिक बातचीत चलती रही । चाय पीने के दौरान ही काशीनाथ जी अचानक भीतर गये और थोड़ी देर बाद जब वापस आये तो उनके हाथ में उन्हीं के सम्पादन में बीएचयू से निकलने वाली पत्रिका ' परिवेश ' की जिल्द थी । इसके दो अंकों में उत्पलेंदु की दो बांग्ला कहानियों का अनुवाद छपा था । यह सूचना उत्पलेंदु के लिए भी सुखद थी । उन्होंने आह्लादित होकर इसे देखा और नरेन से कहा कि इसका जेरॉक्स करवा लेना । इस अनौपचारिक किस्म की विचार गोष्ठी में डा० शुकदेव सिंह , प्रो० ल्यो क्यो नान , पत्रकार सियाराम यादव , प्रो० कमलेश दत्त त्रिपाठी आदि कई लोगों ने उनसे संवाद किया । 
वहाँ से हम आकाशवाणी गये जहाँ नरेन्द्र आचार्य ने उनसे एक बातचीत रिकार्ड की । दोपहर के बाद डाक्टर साहब ( डा० शिवसुंदर गांगुली अध्यक्ष गोकुल आर्ट्स ) के घर भोजन के लिए पहुँचे तो डाक्टर साहब की माताजी ने सामने बैठकर खाना खिलाया । मछलियों की कई रेसिपी थी । विशेषकर बंगाली तरीके से । 
अगले दिन उनके नागरिक अभिनन्दन और फिल्मों के प्रदर्शन का कार्यक्रम था । मैंने यह सुझाव दिया कि क्यों न संगीत की किसी बड़ी विभूति के हाथों उन्हें सम्मानित करवाया जाय । ऐसी सभी विभूतियों से डाक्टर साहब के  पारिवारिक सम्बन्ध थे । पहले हमलोग पं० किशन महाराज जी के घर गये । वे अपने घर के लॉन में ही बैठे हवाई जहाज का टिकट देख रहे थे । पास ही ट्रैवेल एजेंट खड़ा था । उन्हें प्रणाम करने के बाद डाक्टर साहब ने सारी बातें बतायी तो उन्होंने अफसोस व्यक्त करते हुए टिकट डाक्टर साहब की ओर बढ़ा दिया । उन्हें सुबह की फ्लाइट से मुम्बई जाना था । पूणे में कोई बड़ा म्यूजिक कंसर्ट था । फिर हमलोग पं० गोदई महाराज जी के घर गये । उन्होंने तुरन्त अपनी स्वीकृति दे दी ।
अगले दिन पराड़कर भवन के सभागार में सारी कुर्सियां भर गयी थी । मंच पर चर्चित लेखक मनु शर्मा , महाबोधि सोसाइटी के भिक्षुक डी रेवत , अग्रसेन महाविद्यालय की प्राचार्या श्रीमती कृष्णा निगम , डा० गांगुली की उपस्थिति में गोदई महाराज जी ने उत्पलेंदु को शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया ।  मुगलसराय से बाहर पहला ऐसा बड़ा कार्यक्रम था जिसका संचालन मैं कर रहा था और जिसमें अनेक बड़ी हस्तियां मौजूद थी । उत्पलेंदु का परिचय देने के लिए मैंने काशीनाथ जी को बोलने के लिए आमंत्रित किया । काशीनाथ जी ने बताया कि मुझे बहुत सुखद लग रहा है कि आज हम फिल्म की उस शक्शियत का अभिनंदन कर रहे हैं जिन्हें हमने कई वर्ष पूर्व स्वर्ण मित्र के नाम से छापा था । फिर अनेक वक्ताओं ने , जिसमें बीएचयू में चाईनीज भाषा के प्रोफेसर ल्यो क्यो नान भी शामिल थे , उत्पलेंदु के साहित्य और सिनेमा पर बहुत अच्छी बातें कही  । अभिनन्दन समारोह के बाद उनकी दो टीवी फिल्में ' रंग ' और ' अपरिचिता ' और फीचर फिल्म ' देवशिशु ' को प्रदर्शित किया गया । 
     
इस मैराथन शो के बाद गेस्ट हाऊस में रात के दस बजे गोकुल आर्ट्स के रंगकर्मियों के साथ  उत्पलेंदु दा की अनौपचारिक वार्ता चल रही थी । वे अभिभूत थे बनारस के  आतिथ्य पर । अचानक उन्होंने कहा कि गोदई महाराज जी का तबला नहीं सुन सके ! उनके घर चल सकते हैं हमलोग ? आमि रिक्वेस्ट कोरबो ! '
 
मैंने मोती भाई की ओर देखा और फिर हम दोनों ने डाक्टर साहब की ओर । हमलोगों ने सोचा पहले महराज जी के घर चलकर पूछ लिया जाय तब उत्पलेंदु दा को ले जाया जाय ।  गोदई महाराज के घर पहुँचकर हमलोगों ने  संकोच के साथ उनके सामने उत्पलेंदु की इच्छा बतायी तो वे बहुत खुश हुए और उत्सुक होकर बोले - ' उत्पलेंदु मेरा तबला सुनना चाहते हैं ?.. चलो चलते हैं । डा० साहब ने कहा - ' उन्हीं को ले आते हैं गुरुजी ! ' गुरुजी ने कहा - ' अरे वे मेहमान हैं बनारस के ...वह भी कोई मामूली मेहमान नहीं , दुनिया उन्हें सम्मान देती है ! मैं ही चलता हूँ ।' गाड़ी पर तबला रखवाया और तहमद पहने ही चल पड़े । 
 
रात के एक बजे तक वे तबला बजाते रहे । बीच-बीच में संगीत की बारीकियों पर गुफ्तगू भी चलती रही । यह दो महान कलाकारों के बीच युगलबन्दी जैसी थी । जिसका साक्षी बनकर हम सभी गौरवान्वित महसूस करते रहे । उत्पलेंदु अपनी फिल्मों में पार्श्वसंगीत भी खुद ही तैयार करते थे और ' म्यूजिक अॉफ सत्यजित रे ' नाम की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनायी थी जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था । 
  
रात के एक बजे उत्पलेंदु ने मुझसे कहा कि इस वक्त कहीँ मिठाई  मिल पायेगी ? यदि मिल जाती तो गुरुजी को मिठाई खिलाते । मोती भाई ने कहा हाँ-' मिल जायेगी और अच्छी मिठाई मिलेगी । हमलोग चौक जाकर बनारस की खास मिठाई रसकदम ले आये । सबने मिठाई खायी और रात के दो बजे हमलोग गुरुजी को छोड़ने उनके घर गये । 
मैं सुबह में मुगलसराय चला आया । शाम को कालका मेल से उत्पलेंदु और नरेन को कलकत्ता जाना था । डाक्टर साहब और मोती भाई छोड़ने  आये थे । मेरा बेटा मनु तब चौथी क्लास में पढ़ता था । जिस दिन फिल्मों का प्रदर्शन था उसने अपनी माँ से बहुत पैरवी की थी तो रतन वार्ष्णेय उसे अपने स्कूटर पर बिठाकर बनारस ले गया था । मैं घर से स्टेशन आ रहा था तो वह भी मेरे साथ चला गया था । उत्पलेंदु ने उसे बगल में बिठा लिया और स्वयं उसके साथ फोटो खिंचवाया कि कल मेरा सबसे बच्चा दर्शक यही था न ! नरेन को सौ रुपये का नोट देकर कहा - ' इसके लिए कहीं से टॉफी ले आओ ।'                             जाते-जाते वे बहुत भावुक हो गये और कहा - तुमलोगों ने तो मुझे खरीद लिया । वाराणसी प्रवास में ही जब उनसे स्मिता पाटिल की चर्चा चली तो उन्होंने 'देवशिशु' फिल्म का एक स्टिल फोटो मुझे भेंट किया । उन्होंने बताया-' जानते हो , स्मिता जितनी अच्छी हीरोइन है उतनी ही अच्छी इंसान भी है । मेरी फिल्म   'चोख' के प्रीमियर शो में स्मिता भी थी । मेरे पीछे बैठी थी । फिल्म खत्म होते-होते वह सुबक रही थी । बाद में बातचीत में उसने मुझसे कहा कि दादा अपनी किसी फिल्म में मुझे भी मौका दीजिए ! मैंने कहा , तुम तो स्टार हो तुम एक फिल्म में जितना पैसा लेती हो उतने में तो मैं पूरी फिल्म बना लेता हूँ । उसने कहा आप फिल्म शुरू कीजिए मैं आपके साथ मुफ्त में काम करुंगी । देवशिशु जब पूरी हुई तो मैंने स्मिता को सबसे अधिक पैंतालीस हजार रुपये पारिश्रमिक दिया जबकि उन दिनों वह कामर्सियल फिल्मों में दस लाख से कम नहीं लेती थी । 
  
लेकिन 'देवशिशु ' फिल्म उत्पलेंदु के फिल्म करियर का क्लाइमेक्स ही साबित हुआ । इस फिल्म पर हुए विवाद का निबटारा तो हो गया । लेकिन अपने निजी जीवन में आये झंझावात ने उनके भीतर के जीनियस कलाकार को कला की वजाय दूसरी चीजों में उलझा दिया । पहले से ही शादीशुदा और एक बेटे के पिता उत्पलेंदु अपनी ही फिल्मों की हीरोइन सतरूपा सान्याल के प्रेम ने उन्हें अपनी बीबी-बच्चे से अलगाव तो पैदा किया ही उनकी रचनात्मकता भी छिन गयी । वे अर्थाभाव से भी जूझ रहे थे । नरेन ने जब उनकी मदद के लिए कहा तो मैं स्वयं इस स्थिति नहीं था कि मदद कर पाता । लेकिन मोती भाई ने उनकी मदद की और पैसा वापस वापस भी नहीं लिया ।
  
उन्हीं दिनों मैं और मोती भाई उत्पलेंदु दा से मिलने कलकत्ता गये थे । नरेन को पहले ही पत्र लिख दिया था । उत्पलेंदु सतरूपा सान्याल के साथ चौबीस परगना इलाके में एक किराये के मकान में रह रहे थे । उत्पलेंदु की मनस्थिति ही अस्तव्यस्त नहीं थी उनका रहना-सहना भी अस्तव्यस्त था । उस मकान में कोई फर्नीचर नहीं था । फर्श पर गद्दे बिछाकर वे रह रहे थे । सतरूपा को फिल्मों में जैसा देखा था । उससे भी ज्यादा सुन्दर और बौद्धिक थी । सतरूपा ने चाय बनाकर लायी तो उत्पलेंदु ने कहा -' अरे खाली चाय से काम नहीं चलेगा । कुछ खाना-वाना बनाओ । बहुत खिलाया है इनलोगों ने मुगलसराय और बनारस में । सतरूपा आधे घंटे के बाद आलू की सूखी सब्जी के साथ गरम-गरम पूरियां ले आयीं । घर में अभी शायद  गिलास नहीं था । स्टील के जग में ही पानी ले आयी थीजिससे ऊपर से ढालकर पानी पीना था । मैंने पहली बार इस तरह  पानी पीया । अभ्यास नहीं होने की वजह से मेरे शर्ट का अगला हिस्सा भींग गया था । 
  
उन दिनों उनकी कोई बांगला फिल्म निर्माणाधीन थी ।मुगलसराय में पदस्थापित स्टेशन प्रबन्धक एस के बनर्जी अपने बेटे के लिए कई बार मुझसे पैरवी कर चुके थे । मैंने दादा से कहा कि उसे भेजूंगा , उसके लायक़ कोई रोल होगा तो दे दीजिएगा । दादा हँसे -' अपने लिए कभी कुछ नहीं बोलता है ! मैंने कहा - ' बांग्ला मुझे आती नहीं , हिन्दी में बनाइयेगा तो काम करुंगा । ' अरे तुम एक्टिंग के लिए तैयार होओ न , बाकी मुझपर छोड़ दो । मैंने कहा - अच्छा पहले इसे देख लीजिए अपने लिए बाद में सोचूंगा । 
  
बाद में एस के बनर्जी के लड़के को मैंने उनसे मिलने इन्द्रपुरी स्टूडियो में मिलने भेजा तो एक स्क्रीन टेस्ट के बाद उन्होंने एक छोटा रोल भी दे दिया था । उस लड़के का मैं नाम भी भूल गया हूँ । लेकिन वह बहुत आभारी था कि उत्पलेंदु की फिल्म उसके लिए प्रवेश द्वार साबित हुआ । बाद में कई  निर्देशकों ने उसे अपनी फिल्मों में रोल दिया । 
   
उत्पलेंदु चक्रवर्ती से फिर कभी मेरी भेंट नहीं हुई । नौकरी और पारिवारिक व्यस्तता ने मेरा रंगमंच मुझ से छीन ही लिया । मोती भाई फिल्म मेकिंग के चक्कर में मुम्बई और बनारस आना-जाना करते रहे । हालांकि उन्हें कोई बड़ी सफलता नहीं मिली । हाँ नाटक उन्होंने छोड़ा नहीं और उसी से वे पहचाने गये । कुछ दिनों तक उत्पलेंदु दा के समाचार नरेन के मार्फत मिलते रहे । बेटे को लेकर पहली पत्नी से उनका विवाद अदालत पहुँच गया था । फिल्म के क्षेत्र में फिर कोई बड़ा काम वे नहीं कर सके । कभी इतने कम समय में भारतीय और विश्व सिनेमा में अपनी जगह बना लेनेवाले उत्पलेंदु चक्रवर्ती का नाम अखबार और पत्रिकाओं से भी गायब हो गया । एक इतिहास बनाकर भी वे इतिहास के गर्त में कहीं गुम हो गये । 
  
लेकिन अब भी कई बार मन में यह जिज्ञासा होती है कि पता लगायें कि वह जीनियस दिमाग आदमी कहाँ है जिसने एक झोंके की तरह ही सही भारतीय सिनेमा के शिल्प , सरोकार और भाषा को बदलने की कोशिश तो की ही थी ।                   सबलोग के जून 2017 में प्रकाशित
                      * * *
  




लेखक संस्कृतिकर्मी और कथाकार हैं.rdsingh.mgs@gmail.com    +919454061301

1 comment:

  1. उत्पलेन्दु दा के बारे में इतने सालों बाद पढ़ना बहुत अच्छा लगा पर उनके तिरोहित हो जाने की वजह जान कर पीड़ा हुई।जब अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया प्रकाशित हुआ था तो बनारस में मुझे बताया गया था कि इसपर फ़िल्म बनाने का अधिकार उत्पलेन्दु ने लिया है।मालूम नहीं यह कितना सच है।

    ReplyDelete