09 June 2017

मीडिया का चरित्र सुभद्रा राठौर

मीडिया का चरित्र

सुभद्रा राठौर 

 ‘‘खींचो न कमानों को तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो ’’ अकबर इलाहाबादी की इन राष्ट्रीय पंक्तियों में उस मीडिया का चरित्र आँकना है, जिसके दिन अब लद चुके स्वतन्त्रतासंग्राम के दौर में संचार माध्यमों का सदुपयोग एक तरपफ जज्बा लागाने में हो रहा था, तो दूसरी तरपफ पुनर्जागरण काल के शंखनाद में समाज को नयीकरवट दिलाने वह प्रेरणा भी बना रहा था पत्रकारिता तब मिशन थी उसके कुछ ठोस स्वप्न थे उसके अपने मूल्य थे नैतिकता और प्रतिबद्धता थी स्वतन्त्र भारत में प्रेस को यदि लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहा गया, तो अपेक्षाएँ स्पष्ट थीं कि वह अपनी भूमिका पूरी जिम्मेदारी, तटस्थता, समर्पण, त्याग और पारदर्शिता के साथ निभाएगा प्रारम्भिक दौर में जनसंचार का तात्पर्यप्रेससे था बाद में इसके अन्तर्गत रेडियो, टेलीविजन शामिल होते गये श्रव्य माध्यम रेडियो अर्थात्आकाशवाणीऔर दृश्यश्रव्य माध्यमदूरदर्शनभले ही सशक्त रहे हों, किन्तु इन पर अघोषित नियन्त्रण सरकार का ही रहा समाचारपत्र पत्रिकाएँ अवश्य निजी स्वमित्व में रहे यह दशा बीसवीं सदी के पाँचवें से आठवें दशक तक कायम रही आठवें दशक के बाद बदलाव का जबरदस्त दौर आया उदारीकरणबाजारीकरणभूमंडलीकरण ने प्रत्येक छात्र में नये समीकरण पैदा किये तब मीडिया ने भी नया रूप धारण किया दूरदर्शनको पछाड़ते हुए कई चैनल लांच हुए समाचार और मनोरंजन जगत में नवाचारों की झड़ी लग गयी पूर्व में समाचार का मतलब होता था-सुबहसबेरे, चाय की चुस्की के साथ ताजा पेपर, ‘आकाशवाणीका समाचारप्रभाग अथवादूरदर्शनके दोचार हिन्दीअंग्रेजी बुलेटिन अब जी न्यूज, स्टार न्यूज, आज तक, एन डी टी वी, वी पी, सहारा, जैसे कई चैनलों के विकल्प उपस्थित थे चैबीस घंटों के चैनल हर क्षण का प्रसारण सूचनास्पफोट के युग में समाचारों का घोर पियासु बन्दा क्यों बलिदानों––––– ? राहत की बात यह थी कि अब इंडियट बॉक्ससे निजात मिलने वाली थी उस बुद्धू बक्से से, जो सरकार के धी था और उसकी ही भाषा में नियन्त्रित समाचारसंवाद प्रस्तुत करता था नया मीडिया आस जगा रहा था कि अब समाचार सच्चे होंगे, पूर्ण होंगे सेंसर्ड नहीं होंगे एक के बाद एक रहे चैनलों की प्रतिस्पर्धा का लाभ उपभोक्ता को ही मिलना था तेज, फटापफट, अद्यतन, निरन्तर, सच्चा आदि के दावे भी साथ थे सूचनासमाचारों से अपडेट रहने का सुख तारी हो ही रहा था कि यह क्या ? जल्द ही गुब्बारे से हवा खिसकती नजर आने लगी अपेक्षाओं के उमड़ते बादल कणसी निकले कहाँ तो सोचा था कि सेकेंड का हिसाब मिलेगा, खरा समाचार हाथ आयेगा किन्तु इलेक्ट्रानिक मीडिया तोपूँजीकी संतान निकला उसका उद्देश्य तो उपभोक्ता की सेवा करता था, ही लोकतन्त्र का प्रहरी बनना ही था उसका अपनाहिडन एजेंडाथा चोला समाचार चैनल का, जिसकी आड़ में साधने थे-अपने निहितार्थ! राजनीति, पूँजी और मीडिया का नया गठबन्धन हो चुका था, इसमें जनता की क्या बिसात ? नीना राडिया निदर्शन है मीडिया का चालचरित्रचेहरा दरअसल इसके ही इर्दगिर्द घूमता है
                इलेक्ट्रॅनिक मीडिया दर्शकों की आस आसमान तक पहुँचा रही थी किन्तु आज उसके चरित्र ने मोहभंग की दशा निर्मित कर दी है व्यस्ततम जीवनशैली में पिस रहा उपभोक्ता बेहद दुखी है, चिढ़ा हुआ है कि समाचारों के नाम पर मीडिया क्या परोस रहा है ? समय की कोई कीमत नहीं समझता वह पहले दूरदर्शनबुद्धूबक्साथा, आज दर्शक स्वयं बुद्धू बनाया जा रहा है।समाचार चैनलों के अलावा जितने भी चैनल हैं, वे अपनेनामजैसे डिस्कवरी, एनीमल प्लैनेट, हिस्ट्री, टैवल, एक्स पी, एफ टीवी–, बिग मैजिक, एपिक टीवी–, एमटीवी–, बिदान्स, नाइन एक्सम, मस्ती, जी क्लासिक, जीटीवी–, स्टार प्लस  आदिआदिद्ध के अनुरूप प्रस्तुतियाँ देते हैं, किन्तु समाचारचैनल के रूप में मान्यताप्राप्त चैनल क्या सचमुच समाचारप्रसारण का दायित्व निभा रहे हैं ? देखा जाये तो वहाँ सब कुछ है-मनोरंजन, विज्ञापन चैनलों का धारी माल, सासबहू हाथ सीरियलों के कई घंटे, कपिल की कॉमेडी, कामेडी सर्कस, पिफल्मी गॉसिप, पिफल्म, क्रिकेट, पफैशन, अपरा/ कथा, रहस्य कथा, अन्धविश्वास, बढ़ाने वाले कार्यक्रम, ज्योतिष, स्वास्थ्य, निर्मल बाबा, पर्यटन, खानपान, लाईपफस्टाईल से लेकर क्या नहीं है यहाँ ? सारे चैनलों का कॉकटेल है यह! अगर सब कुछ दिखाने के बाद कुछमिसिंगहै तो जनाब! वह बेचारा समाचार ही है, जिनके लिए दर्शक इनकी ओर टकटकी लगाये देखता है तथाकथित चैबीस घंटों का मीडिया यदि उसे दमभर निचोड़ा जाये, कुल जमा दो घंटे का विशुद्ध  समाचार भी हाथ आयेगा यहाँ मिलावट की हद है यहाँ अंशअंशी भाव दाल में नमक का नहीं, नमक की बोरी में चंद दालें बिखेर देने का है सुबह वह बासी खबरों के साथ पेश आता है, दोपहर सीरियलोंस्वादों में खपता है, शामें गॉसिप में रंगीन होती हैं और दिन भर के कामों से निजात पाकर, थकाहारा आदमी घर पहुँच जब टीवी ऑन करता है, तो प्राईम टाईम पूर्णतः समर्पित होता है चीखतेचिल्लाते एंकर्स और पैनलिस्ट को समाचार ? ढूँढ़ते रह जाओगे! नीचे लिखी पट्टियों से पढ़ लो!! और, गाहेबगाहे कुछब्रेकिंग न्यूजहो गया तो बंटाधा तार पर अटकी फड़फड़ाती पतंग देखो सैकड़ों बार क्यों है ऐसा ?
                दरअसल समाचारचैनल चलाना मेहनत का काम है यह मनोरंजन चैनल तो है नहीं कि प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर की मदद से मसाला तैयार किया जा सके समाचार जुगाड़ने के लिए भागदौड़ करनी पड़ती है, पर इससे होगा क्या ? विज्ञापन मिलेगा ? पूँजी बढ़ेगी ? टीआरपीऊँची होनी चाहिए दर्शक संख्या घटनी नहीं चाहिए क्या किया जाये ? तड़का मसाला लोकरंजता लोकप्रिय दर्शन लोकरुचि की समझ पैदा की गयी जनता की नब्ज थामी गयी संवेदनशील मुद्दों को पकड़ा गया ग्लैमरस एंकर्स इन दिनों सीसीटीवीकैमरों की कृपा है उगल रहा है एक से एक कीमती दृश्य दर्शक स्वयं मीडिया का हिस्सा है, मोबाइल पर क्या कैद हो रहा है आजकल ? अभूतपूर्व, रोमांचक चिपका दो स्क्रीन पर लाईव्ह मर्डर, लाईव्ह आत्महत्या गौरक्षकों का उन्मादी समूह लाईव्ह पिट रहे सासससूर भाषण देता कन्हैया पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते क्रान्तिकारी कश्मीर के पत्थरबाज राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्रगीत राष्ट्रगान हिन्दूमुस्लिम दंगे आमीरशाहरुख केअसहिष्णुबयान सोनू निगम और अजान अनुष्का विराट का रागविराग लव जिहाद बीफ । उफ्फ! हमारे मीडिया का वश चले तो पाकिस्तानचीन से आज और अभी भिड़न्त हो जानी चाहिए, रामरहीम में खानदानी दुश्मनी वह जिसे साबित कर दे, महान जिसे साबित कर दे, निकृष्टतम राष्ट्रप्रेमी अथवा देशद्रोही होने का तमगा भी वही बाँट देना है कभी प्रलय की अपफवाह, बिग बैंग से सर्वनाश होने की आशंका, तो कभी एलियन कभी लगता है कि हजारों किलोमीटर लाँघ आईसीस हमारे घर में घुस ही गया क्या ये समाचार हैं ? मुददे हैं ? कहाँ हैं हमारे गाँव ? मीडिया का कैमरा राजमार्ग से परे उतरकर पगडंडियों में चलने से इतना कतराता क्यों है ? उसकी आँखें अभिजात्य वर्ग पर ही क्यों ठहरती हंै ? दलितपीड़ितशोषित जन कहाँ हैं ? किसान क्या तभी मुद्दा बनेगा जब केजरीवाल के सामने दिल्ली मेंलाईव्ह आत्महत्याकरे ? बेसहारा गरीब अपनी पत्नी के शव को काँधे  पर लेकर दस किलोमीटर पैदल चले ? सेन्सेशन के लिये समाचार, संवेदना के लिये नहीं जलजंगलजमीन, भूख, भय भ्रष्टाचारसुरक्षा जैसे तमाम जमीनी मुद्दों पर केन्द्र क्यों नहीं ? समस्याओंमुद्दों की कोई कमी नहीं है स्त्री के अपने मुद्दे हैं, बच्चों, बुजुर्गों, युवाओं के अपने पर वाह किसे ? यह वक्त चूँकि सरोकार की पत्रकारिता का रहा ही नहीं मिशन से कमीशन की यात्रा निर्बाध जारी है कोई जवाबदेह ही नहीं, गंभीरता नहीं लाईव्ह मीडिया समय का सबसे बड़ा सत्य है
                मीडिया में राजनीति और धर्म मुख्य विषय हैं राजनीति देश की भाग्यविधाता है और धर्मोन्मादी  नेताओं की वोटतिजोरियाँ भरने का सस्तासुन्दरटिकाऊ जरिया मीडिया को इसकी समझ है वह पॉवर गेम की धुरी बन गया है इतना प्रभावी और सक्षम हो गया है कि चरित्र दोहन, चरित्र निर्माण और मीडिया ट्रायल बेहद निर्णयकारी हो गये हैं माध्यमका लीडर बन जाना समय का खेल है, उपभोक्ता को मनमाफिक हाँक लेना उसके बायें हाथ की बात है अन्ना हजारें की छाया से निकले केजरीवाल अथवा हार्दिक पटेल जैसे व्यक्तित्व मीडिया की ही देन हैं नरेन्द्र मोदी के करिश्माई चरित्र का लाभ यदि पाँच राज्यों के चुनावों में मिला, शहरी बन्दोबस्त में मिली असफलता के बावजूद दिल्ली एम सी डी चुनाव में यदि भाजपा दोबारा पदारुढ़ हो सकी तो बड़ी वजह मीडिया कीहवाअवश्य है स्थानीय मुद्दों को त्याग, क्या वजह है कि मतदाता एक व्यक्तित्व के पीछे भाग रहा है ? राष्ट्रवाद हिन्दुत्व और मोदी पक्षविपक्ष सुर रखने वाले मीडिया के अलावा ऐसों की भी कमी नहीं, जिनका मूल मन्त्रजि बम उधर हमहोता है प्रायः समस्त चैनलदूरदृष्टिरखते हैं, नफानुकसान ही उसकी पक्षरता तय करते हैं सही या गलत से क्या लेनादेना ? और, यह भी उसका ही चरित्र है कि तटस्थपूर्वाग्रह रहित रहने की अपेक्षा एक तय नजरिया उनका होता है, जिसे वे भरसक दर्शक को सौंपना चाहते हैं उनकी चेष्टा होती है कि दर्शक वही देखे जो वे दिखाना चाहते हैं,  सुनेंसमझें जो वे सुनानासमझना चाहते हैं आँखें झूठ नहीं बोलतींसूक्ति यहाँ फेल है डॉक्टर्ड विजुअल गवाह है हरएक ने जिम्मेदार होने का   मुखौटा पहन रखा है किन्तुसबसे तेज’, सबसे पहलेसिर्फ हमारे चैनल पर’, एक्सलूसिब के जोश से बाहर आता वह दिखाई नहीं देता मुम्बई हमला हो अथवा सीमाओं की भिड़न्त, वह डटा हुआ है   उसकी निगाहें भयावह, और भयावह को निरन्तर तलाशती हैं टिवन टॉवर ध्वस्त हो गया किन्तु अमेरिका ने खून का एक कतरा नहीं दिखाया, हमारे जाबाँज चैनलों को देखिये, भिड़न्त हो, आतंकी हमला, हत्या या मारपीट, उसकी दृष्टि लोथड़ों पर जाकर अटकती है   अब तो श्लीलता अश्लीलता का छोड़ ही दीजिये, ‘ सर्टिपिफकेटसिनेमा के लिए है, मीडिया में तो सब दिखाऊ है आज मनुष्य यदि संवेदना के दायरे से बाहर आकर भोथरा हो गया है, तो मीडिया उसका सबसे बड़ा गुनहगार है, निःसन्देह
                भारत में आज 70,000 से धि समाचारपत्र हैं सैकड़ों समाचार चैनल हैं जनसंचार माध्यम के रूप में टीवी–, रेडियो, सिनेमा, पत्रपत्रिकाएँ और अब तो साइबर नेटिक युग की देननया मीडियाभी उपलब् है संचार का धिक्य है, कमी कतई नहीं किन्तु जो सबसे बड़ी कमी है, वह समाचार की ही है शुद्ध  समाचार की सूचनास्पफोट के युग में, समाचार संसा/नों के बावजूद असल समाचारों का भीषण संकट दर्शक श्रोता पाठक भ्रमित हैं, किसकी सुनें ? किसे सही मानें ? रिमोट पर ऊँगलिया नाच रही हैं किन्तु कोई एक ठोस प्लेटपफॉर्म नहीं, जिसमें वह निर्द्वन्द्व ठहर सके विश्वास का अभाव दर्शक की इच्छाअनिच्छा जिज्ञासा की कोई चिन्ता नहीं हाल की घटना को याद कीजिये दिल्ली वि/ानसभा आहूत हुई चैनलों ने एक दिन पहले हुजूम लगा दिया कि कपिल मिश्रा ने केजरीवाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये हैं, देखते हैं कल वे क्या जवाब देंगे सभा प्रारम्भ हुई, सारे चैनल जमे हुए लाईव्ह टेलीकास्ट चालू आशा के विपरीत सभा में केजरीवाल चुप रहे और सौरव भारद्वाज वीएमहैकिंग का डेमो करते रहे /ीरे–/ीरे सारे चैनल नदारद हो गये औरआपसमर्थक दिखने वाला एनडीटीवीआद्यन्त मौके पर डटा रहा क्या था यह ? चैनलों का मनमापिफक चयन चाहें तो दिखायें, चाहें तो क्यों दिखाएँ ? हमारी मर्जी यह हमारा प्रिविलेज है! राष्ट्रवादी चैनलों के लिए कश्मीर से पंडितों का पलायन, उपराष्ट्रपति का राष्ट्रगान पर सलाम देना, गोव/, गोमांस, लव जिहाद, कैराना, नक्सली हिंसा महत्त्व का विषय है तो /र्मनिरपेक्ष/ बौ(िक चैनलों के लिए क्रान्तिकारी जेऐनयू–, कन्हैया, नक्सली के समर्थक मानवाधिकार कार्यकर्ता, वेमूला, दलित, पीड़ितशोषित, किसान, मजदूर, स्कूल की पफीस चर्चा लायक विषय हैं कुछ चैनल, सरकार, भाजपा अथवा काँग्रेस के प्रवक्ता होने का आरोप झेलते हैं, तो विरो/ सुर छेड़ने वाले चैनलों परबाहरीदेशों के पैसे रखने के आरोप लगते हैं राष्ट्रीय बड़े चैनलों की हुकूमत दिग्गज नेताओं, उद्योगपतियों, पूँजीपतियांे के पास हैं, प्रान्तीय/ क्षेत्रिय मीडिया का भी कमोबेश यही हाल है ऐसे मेसमाचारका रस क्या होगा ? समाचार क्या बनेगा ? इसका नियन्ता कौन है, समझना मुश्किल नहीं
                मीडियाई चरित्र के एक दुखद पहलू उसका हद छोड़बेहदहो जाना भी है मम्बुई आतंकी हमले के अतिरेकी टेलीकास्ट ने जब आतंकियों को ही बड़ी सहायता पहुँचायी, पहली बार बहस छिड़ी कि मीडिया सब्र रखना सीखे पठानकोट प्रकरण में एन डी टी वी पर प्रतिबन्ध का निर्णय लिया गया, तब पक्षविपक्ष बहस के लिए उठ खड़ा हुआ एक ओर इसे मीडिया के अति उत्साह पर जायज प्रतिबन्ध कहा गया तो दूसरी ओरअभिव्यक्ति की आजादीपर हिटलरी फरमान इसे पक्षपातपूर्ण कार्यवाही भी बताया गया, इस तर्क के साथ कि शेष चैनल भी तो वही दिखासमझा  रहे थे खैर, विरोधों के पश्चात् वह आदेश स्थगित हो गया किन्तु क्या अब सोचने का वक्त नहीं गया कि मीडिया स्वयं तय करे, उसकी हद क्या हो ? दर्शक को समाचार किस सीमा तक चाहिए ? समाचार के मायने अति जिज्ञासा, उत्तेजना और पूरा खुलासाही क्यों हो ? नैतिकता, मूल्य, आदर्श, आवश्यकता जैसे बिन्दु प्रसारण के पूर्व क्यों नहीं तय किये जाएँ ?
                कहा जा सकता है कि ‘‘मीडिया तो है, जाने दीजिये, क्या पफर्क पड़ता है, माध्यम ही तो है ’’ किन्तु ये बातें पिछली सदी तक चल सकती थीं, आज के परिवेश में नहीं आज मीडिया, चाहे जिस रूप में हैै, आम से लेकर खास आदमी तक के जीवन का अभिन्नअनिवार्य हिस्सा बन गया है वह जनजीवन को प्रभावित करता है सक्षम है बली है प्रभावी है इसलिए ही उससे अपेक्षाएँ हैं वह चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? उसमें क्षमता है बेहतर करने की, क्षमता है देशहित में बेहतरीन करने की तमाम स्टिंग ऑपरेशन्स याद कीजिये, चाहे वे राजनैतिक हों, पिफल्मपफैशन, क्रिकेट–/र्म के हों अथवा अन्यान्य किसी भी क्षेत्र के कितनों की कलई नहीं खोली उसने ’’ पैसा खुदा तो नहीं पर खुदाकसम खुदा से कम भी नहीं’’ जैसे जुमले के साथ दर्शकों ने अपनी आँखों से भ्रष्टाचारी को देखा निर्भया कांड में देश की एकजुटता मीडिया की देन थी कानूनों में संसोधन और अदालती पफैसले मीडिया से कम प्रेरित थे मीडिया आवाज बन गया था जनता की अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरो/ अभियान का वाहक अगर मीडिया था तो बैकपफुट पर आते केजरीवाल की बड़ी वजह भी मीडिया है तो क्यांे नहीं हमारा मीडिया अपनी ताकत का इस्तेमाल गम्भीर प्रश्नों के हल में करे ? हमारा देश तेजी से विकसित हो रहा है, किन्तु ढेरोंे दलदल अभी भी मौजूद हैं प्रतिब(, तटस्थ, विश्वसनीय, समर्पित पत्रकारिता का एकांश भी अगर मीडिया प्रदर्शित कर दे सोने में सोहागा अवश्य होगा
                इलेक्ट्रानिक मीडिया के पदार्पण के बाद कयास लगे थे कि प्रिंट मीडिया मैदान से /केल दिया जायेगा, किन्तु ऐसा हो सका भले ही समाचारपत्रों ने भी अपना रंग बदला, ‘पीत पत्रकारिता’, ‘भयादोहनजैसे शब्दों का जन्म उसके ही गर्भ से हुआ, जैकेटनुमा विज्ञापनों की उसमें भी भरमार है, विश्वसनीयता का वहाँ भी संकट है, पिफर भी पारम्परिक पाठक की लगन छूटतीटूटती नहीं है रेडियो और दूरदर्शन परिपाटी निभाते चले रहे हैं, बिना विशेष परिवर्तन समस्त जनसंचार माध्यमों पर मौजूदा दौर में  नजर फेरें तो आश्चर्यजनक बात देखने में रही है कि दर्शक/श्रोता एक बार पिफर निःशंक, सापफसुथरे, विश्वसनीय समाचारों के लिए पारम्परिक माध्यम अर्थात् समाचारपत्र, रेडियो और दूरदर्शन का मुँह ताकने लगा है उसे लगने लगा है कि सही समाचार चाहिए तो वापसी करो समय बचाना है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बचो नकारात्मकता, अतिरेकता और द्वन्द्व से बचना है तो इससे किनारा करो उपभोक्ताओं का यों छिटकना मीडिया के लिए नुकसानदेह है, इसलिए ही कई चैनलों परएक्सप्रेस स्टाईलमें बिना ब्रेक की सौपचास खबरों का दिखना प्रारम्भ हुआ सौ बात की एक बात यह कि यह समय मीडिया के आत्मबन्धन का है, वह स्वयं में सुधा करे, व्यवसाय नहीं, पेशे के प्रति भी तनिक प्रतिबद्धता दिखाये इसमें समाजहित है, देशहित है अन्यथा ?

                                          सबलोग के जून 2017 में प्रकाशित     लेखिका संस्कृतिकर्मी और प्राध्यापक हैं|  

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