10 June 2017

मुनादी किशन कालजयी

अँधेरे में उम्मीद की किरण


किशन कालजयी 


आज मीडिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह हो गई है कि वह अपनी विश्वसनीयता  को कैसे बचाए? आज हर कोई मीडिया के बारे में कह रहा है कि वह बिक गया है| दरअसल हम एक ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था की गिरफ्त में हैं जहाँ सब चीज बिकाऊ मानी जाती है,और जो बिकाऊ नहीं है वह दुर्लभ है और मुश्किल में भी है| अधिकांश   मीडिया समूह की प्राथमिकताओं में   विपणन की रणनीतिक आक्रामकता होती है| ख़बरों के चयन में निष्पक्षता,ख़बरों की सत्यता और गुणवत्ता तथा ख़बरों की मर्यादा उनके सरोकार के विषय नहीं होते|इसकी एक वजह यह भी है कि अब अधिकतर  मीडिया का रीमोट ऐसे हाथों में है,जिनकी पेशेगत दक्षता नगण्य है|पहले पत्र-पत्रिकाएं निकालने वाले समूह का मुख्य कार्य यही होता था,इसलिए उनका ध्यान इसी पर केन्द्रित रहता था जिसके कारण पत्रकारिता का एक स्तर बना रहता था|आज की  स्थिति तो यह है कि अपराधी,माफिया और सटोरिये भी अपने रसूख को बढ़ाने के लिए अपना-अपना चैनल खोलकर बैठे हैं|अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने या सत्ता के गलियारे  में अपनी पैठ बनाने के उद्देश्य से चैनल की शुरूआत  की गयी हो तो वह दुनिया के भ्रष्टाचार का क्या पर्दाफाश करेगा और किस नैतिक निडरता से सत्ता के  जनविरोधी रवैये पर चोट करेगा?
आज की  सच्चाई है कि  सम्पादकों की  भूमिका अब एक न्यूज़ मैनेजर की ही रह गई है|और इन मैनेजरों को ऐसी खबरों की तलाश करनी  होती है जिनसे उनके मालिकों का व्यापारिक स्वार्थ सधता हो।कई मौकों पर उन्हें यदि मनोनुकूल खबर नहीं मिलती तो वे खबर ‘तैयार’ कर लेते हैं|  आप गौर करें,चैनलों में पत्रकार नहीं प्रोड्यूसर होते हैं जो खबर प्रस्तुत नहीं करते न्यूज़ प्रोड्यूस करते हैं| ऐसे में मीडिया का एक ‘प्रोडक्ट’ बन जाना उसकी नियति है|
अख़बारों की स्थिति तो यह है कि उसके संवाददाता से लेकर सम्पादक तक को बिजनेस  का भी  ‘टारगेट’ दिया जाता है| जाहिर है जिला स्तरीय पत्रकारों की दिलचस्पी सही ख़बरों को खोजने के बजाय अख़बारों के लिए ‘बिजनेस’ बटोरने  में रहती है| सच तो यह भी है कि सम्पादकों को भले लाखों रुपये का वेतन मिलता हो,जिले के पत्रकारों को तो नाम मात्र का वेतन मिलता है| ऐसे में ये पत्रकार ख़बरों से ही ‘ताल-मेल’ करके अपनी दाल-रोटी चलाते हैं.यह ‘ताल-मेल’ उन्हें न तो निष्पक्ष रहने देता है और न ही निर्भीक| यही ‘ताल-मेल’ जब ऊपर के स्तर पर सम्पादक करने लगते हैं तो वह घोटाला और दलाली हो जाता है|पिछले लोक सभा चुनाव के दौरान ‘पेड न्यूज़’ काफी चर्चे में आया. जिस पार्टी या उम्मीदवार ने अखबार को जितना पैसा दिया,उसके पक्ष में उतनी ही जोरदार ‘स्टोरी’ बनी| भ्रष्ट नेताओं और अपराधियों की  छवि को भी  बढ़ा-चढ़ा और चमका कर इसतरह से  पेश किया गया कि पाठकों ने झूठ को भी सच की तरह ग्रहण किया| भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने अखबार के माध्यम से मासूम जनता की चेतना में अपने लिए जगह बनाने में जो कामयाबी हासिल की है,वह विचार पर बाजार के विजय का सर्वोत्तम रूपक है|कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो मौजूदा पत्रकारिता कदाचार से मुक्त नहीं है| दरअसल इसी कदाचार के जहर से पत्रकारिता ‘पीली’ हुई है|

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मीडिया ने अपना स्वभाव ऐसा बना लिया है बल्कि बेहतर कहना यह होगा कि उसने अपना पेट इतना बड़ा कर लिया है कि उसके  सभी मुलाजिमों  की मसक्कत उसके पेट भरने में ही लग जाती है| आज के मीडिया पर सबसे अधिक नियंत्रण पूंजीपतियों का है और पूंजीपतियों से बची हुई जगह को सत्ताधारी पार्टियों ने दबोच रखा है|मीडिया पर यह नियन्त्रण लोकतन्त्र के हित में नहीं है| यह  बात बार-बार कही जाती रही है कि मीडिया लोकतन्त्र का चौथा खम्भा है| लोकतन्त्र के  तीन खम्भे- विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका अलग-अलग कारणों से पहले से ही पस्त हैं|ऐसे में चौथा खम्भा भी कितनी देर तक टिक पाता,वह भी धराशायी हो गया |
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता लोकतन्त्र की प्राण-वायु है,और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम मीडिया ही है| यदि मीडिया की आजादी बरक़रार नहीं रहेगी तो हमारी आजादी (लोकतन्त्र)  भी खतरे में होगी|इसलिए हमें हर उस  खतरे से खेलने का खामियाजा भुगतना  चाहिए जिससे मीडिया की मुक्कमल आजादी कायम रहे| मीडिया की आजादी का मतलब मीडिया की मनमानी भी नहीं होनी चाहिए|उसे भी अपने दायित्वों के दायरे में रहना चाहिए| आज की तारीख में मीडिया की आजादी का व्यावहारिक अर्थ  मीडिया को सरकार और व्यापारिक घरानों के  नियन्त्रण से मुक्त करना है| जाहिर है यह नियन्त्रण विज्ञापनों के माध्यम से ही होता है|क्या हम राष्ट्रीय  निर्वाचन आयोग की तरह राष्ट्रीय प्रेस आयोग की कल्पना कर सकते हैं जो खबरपालिका की सशक्त भूमिका निभाए?  अख़बारों और चैनलों की  आय और उनके कर्मचारियों के वेतन और उनकी  नौकरी की सुरक्षा  पर भी यह खबरपालिका नजर रख सकती है| प्रेस कल्ब ऑफ़ इण्डिया और एडिटर्स गिल्ल्ड जैसी संस्थाओं में कोई धार नहीं है,उनकी लगभग तमाम गतिविधियाँ रश्मि होती हैं|
इस अँधेरे समय में पत्रकारों की एक पहल से उम्मीद की किरण जगी है| प्रेस की आजादी पर बढ़ रहे हमले के खिलाफ 9 जून को कुलदीप नैयर,एस.निहाल सिंह,अरुण शौरी,एच.के.दुआ समेत पत्रकारों का एक बड़ा हुजूम प्रेस क्लब में एकजुट हुआ| इस परिघटना का पूरे देश में एक साकारात्मक सन्देश गया है|
क्या हम उस  विधायिका से यह उम्मीद करें  कि लोकतन्त्र के पक्ष में वह  मीडिया की बदहाली को दूर करने के लिए कोई उचित और उपयुक्त विधेयक लायेगी  और उसे पास करेगी जिसके अधिकांश सदस्य अपने निजी स्वार्थों  को पूरा करने में ही अपना समय बिता देते हैं?


     

                                                        किशन कालजयी   सम्पादक 'सबलोग'


 kishankaljayee@gmail.com +919868184228

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