02 June 2017

दलितों के नरसंहार के मायने राम नरेश राम

     दलितों के नरसंहार

        के मायने

        राम नरेश राम

ऐसे दौर में जब राष्ट्रवाद और देशभक्ति की बहस ने पूरे भारतीय समाज को चौतरफा उत्तेजित कर दिया हो, हर घटना को राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति से जोड़कर देखा जा रहा हो। तब यह देखना चाहिए कि वास्तव में हमारा देश एक राष्ट्र है भी या नहीं। बाबा साहब ने तो कहा था कि भारत अभी एक राष्ट्र नहीं बन पाया है । वह तो राष्ट्र के बनने में जाति को एक बाधा मानते थे। इस आधार पर तो सही मायने में भारत एक राष्ट्र नहीं बन पाया है । क्योंकि जाति विभाजित समाज में  हर जाति अपने आप को एक बंदराष्ट्र की तरह पेश करती है। यही कारण है कि सहारनपुर में दलितों का नरसंहार इसी हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना का हिस्सा है, फल है। 5 मई को शब्बीरपुर गाँव में जिन दलितों के घर जलाए गये। लोगों को तलवारों से घायल किया गया, हत्याएं की गयी, घर जलाए गए. वह कोई एक दिन की घटना नहीं है। और नहीं ही अचानक दो जातीय समूहों का आपसी हित टकराव ही है। जैसा कि प्रचारित करने की कोशिश की गयी और मूल वजह को छुपा देने की भरसक कोशिश की गयी। इसको जातीय संघर्ष कहने से सत्ता के कई उद्देश्य एक साथ सध रहे थे. एक तो स्वाभिमान और मुक्ति की लड़ाई में जाटवों को अलग-थलग कर दिया जाय और दूसरे यह व्यापक दलित आन्दोलन का रूप न ले सके ताकि वे गैर जाटव दलितों को व्यापक हिन्दू एकता के नाम पर गोलबंद कर सकें. इस घटना की सच्चाई को जानने के लिए कई पत्रकार, लेखक और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों के समूहों ने रिपोर्ट्स तैयार की हैं। अगर हम उन रिपोर्ट्स को देखें तो वहां छुपी हुई सच्चाई सामने आती है। लगभग सभी रिपोर्ट्स इस बात को बताती हैं कि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जातीय सेनाओं का गठन हो रहा है और ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के खोये हुए वैभव और वर्चस्व को वापस पाने की लालसा में उन मिथकों को नया रूप दिया जा रहा जिनका सम्बन्ध इन जातियों से है। महाराणा प्रताप की जयंती मानाने का विशाल कार्यक्रम इसका हिस्सा था। राजपूत रेजिमेंट का गठन एक जातीय सेना का गठन है. बढती बेरोजगारी भी सवर्ण युवाओं के बीच बेचैनी को जन्म दे रही है। ये लंपट अर्द्धशिक्षित नौजवान इन जातीय सेनाओं और संगठनों के माध्यम से अपने खोये हुए गौरव को हासिल कर लेना चाहते हैं। इस बात को आरक्षण विरोध से आसानी से समझा जा सकता है। सोसल मीडिया और दूसरे अन्य माध्यमों से उनके भीतर कहीं यह बात बैठाई जा रही है कि उनका हक दरसल यही आरक्षित वर्ग के लोग ही मार रहे हैं। तभी आज उन्होंने अपना गौरव खो दिया है। वरना इतनी घृणा वे कहाँ से प्राप्त कर पाते कि केमिकल बैलून (इसकी आशंका जाहिर की गई है,लेकिन इसका प्रमाण नहीं मिल सका क्योंकि कोई फॉरेंसिक जाँच हुई ही नहीं) से दलितों का घर जला देते । तलवारों से गर्भवती महिलाओं तक को काट देते। सहारनपुर का यह वही शब्बीरपुर है जहाँ जाते हुए शामली, कैराना , देवबंद और कई ऐसी जगहें पड़ती हैं जिसने पिछले वर्षों में सांप्रदायिक तनाव और दंगे को झेला है। इस घटना की सच्चाई जानने के लिए शब्बीरपुर जा रही लेखक संगठनों की टीम के सदस्य संजीव कुमार ने ठीक ही लिखा कि ये जगहें न जाने क्यों इन्हीं तरह के तनावों की वजह से जानी जाने लगी हैं। इनकी पहचान के ऐतिहासिक और स्वस्थ आधार मिटाये जा रहे हैं। इनकी नई पहचानें बनाई जा रही हैं। वैसे ही संभवतः अब यह शब्बीरपुर इसलिए नहीं जाना जायेगा शायद कि इस इलाके से पॉपलर के पेड़ खूब पैदा होते हैं , यहाँ पूर्वी उत्तरप्रदेश की अपेक्षा खेती जरा व्यवस्थित और अपेक्षाकृत वैज्ञानिक ढंग से होती है। यहाँ जाते हुए रास्ते में ढेर सारे इंटरनेशल स्कूल्स पड़ते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग में पड़ने वाले इन स्कूलों को देखकर यहाँ के लोगों की माली हालत का अंदाजा लग सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी यह इलाका थोड़ा समृद्ध लगता है। मैनें जब शब्बीरपुर के लोगों से सवाल किया कि यहां के लोग क्या मजदूरी करने दिल्ली बम्बई जाते हैं, उनका जवाब था कि बहुत कम । वे अपने खुद के काम करते हैं । यहाँ दलित जातियों में शिक्षा की ललक है। यह जागरूकता पुरानी है। इसको इस बात से समझा जा सकता है कि शब्बीरपुर गाँव के दलितों ने 1976 में रविदास का मंदिर बनाने के लिए अपने ही गांव के ठाकुरों से जमीन खरीदी थी। उन्होंने यह जमीन खरीदने के लिए आपस में चंदा किया । मैंने जब पूछा कि अगर आप के गाँव में शिवमंदिर पहले से ही है तो फिर रविदास मंदिर बनाने की जरुरत क्यों पड़ी । इनका जवाब था कि हम उनके भगवान् को क्यों पूजें। जिन्होंने हमें आजाद किया ,हमारी चेतना को बढ़ाया हम उनकी पूजा करेंगे। इसिलिए हम लोगों ने बाबा साहब की मूर्ति स्थापित करने की योजना बनाई है। आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि 1976 में इस तरह का काम करने के लिए खासी एकता की जरुरत थी जो कि वहां दिखती है। यह एकता उनके द्वारा आत्मरक्षा में भी दिखाई देती है।
 
 5 मई की घटना सुनियोजित है। ठाकुरों ने पहले से ही दलितों को  सबक सिखाने का ठाना हुआ था। रिपोर्ट्स ये बताती हैं कि 5 मई की घटना में फूलन देवी का हत्यारा शेरसिंह राणा की अहम् भूमिका है। उस दिन जब महाराणा प्रताप के कार्यक्रम में ठाकुर नौजवान जा रहे थे तो दलितों ने उन्हें डीजे बजाने से मना किया इस पर ठाकुर नौजवानों ने तांडव किया । कार्यक्रम स्थल पर इसकी सूचना पहुंची , वहां अफरातफरी का माहौल हो गया । इसके बाद कार्यक्रम स्थल से कुछ नौजवान शब्बीरपुर के लिए रवाना हो गए। शब्बीरपुर के लोगों ने बताया कि हमलावर नौजवान सिर्फ सहारनपुर के ही नहीं थे बल्कि उसमे पंजाब, हरियाणा , बिहार आदि कई राज्यों से महाराणा प्रताप जयंती में शामिल होने आये हुए लोग भी शामिल थे। उनके हाथों में तलवारें थीं। उन्हीं तलवारों से उन्होंने दलितों के ऊपर हमला किया । घर जलाया. 5 मई को हुई घटना के कारणों के रूप में भीम आर्मी को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की गयी। भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को मुख्य षड्यंत्रकर्ता के तौर पर पेश करने की कोशिश अभी भी जारी है। सरकार लगातार उसको पकड़ने की कोशिश कर रही है। सरकार की तरफ से ऐसा कहा जा रहा है कि भीम आर्मी की गतिविधियां नक्सलवादियों की तरह हैं। चंद्रशेखर के बैंक अकाउंट में पैसे कहाँ से आए इसकी जाँच की बात सरकार के तरफ से की जा रही है. लेकिन जिन तलवारों से दलितों को कटा गया , जिस केमिकल बैलून से उनके घरों को जलाया गया उनकी जाँच करने की बात नहीं हो रही है. योगी आदित्यनाथ की हिन्दू युवा वाहिनी का इसमें क्या भूमिका इसकी जाँच नहीं हो रही है. जब ठाकुर नौजवान शेरसिंह राणा की मुख्य आतिथ्य में होने वाले कार्यक्रम से शब्बिरपुर लौटे तो उनके हाथों में तलवारें कहाँ से आयीं. किसने उन्हें उपलब्द्ध कराया. अगर चंद्रशेखर के राजनीतिक सम्बन्ध की जाँच हो रही है तो राजपूत रेजिमेंट और महाराणा प्रताप जयंती के भी राजनीतिक संबंधों की भी जाँच होनी चाहिए. जबकि कुछ दूसरे लोग इसका छुपा हुआ सम्बन्ध भाजपा से बता रहे हैं । बसपा ने इस संगठन से अपना पल्ला झाड़ लिया है। भाजपा के वक्तव्यों से अभी कहीं नहीं लगा कि यह उसके द्वारा तैयार किया गया संगठन है। आखिर इस संगठन की सच्चाई क्या है। इसके बनने के सामाजिक आर्थिक कारण क्या हैं। जो लोग बात कर रहे हैं वे इसके इस पहलू को नजर अन्दाज कर रहे हैं। दरसल यह दलित समुदाय की दूसरी पीढ़ी है जिसके पास कमोबेश शिक्षा है, स्वाभिमान है लेकिन रोजगार नहीं है। वह गुलामी की संस्कृति को ख़त्म करने पर उतावली है. आप देखिये कि भीम आर्मी की जो गतिविधियाँ हैं वे सब सामाजिक परिवर्तन की गतिविधियाँ हैं. कोचिंग सेंटर चलाना क्या है. दलित युवाओं को बौद्धिक और आर्थिक रूप से सक्षम बनाना , अपने हक़ की पहचान की दृष्टि पैदा करना ही तो उनका उद्देश्य है. भीम आर्मी कोई जातीय संगठन बिलकुल नहीं है. वह बसपा के प्रति इमोशनल भाव नहीं रखती. यह वह पीढ़ी है जो अपनी मुक्ति के लिए किसी राजनीतिक दल का इन्तजार नहीं करती है. हालाँकि 21 मई को जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में शामिल युवाओं से बात करने पर पता चला कि अभी भी उनका बसपा से कोई खास मोहभंग नहीं हुआ है. लेकिन हजारों की तादाद ने बसपा की नीद उड़ा दिया यही कारण है कि मायावती जी को उसी रैली के बाद शब्बीरपुर जाने की घोषणा करनी पड़ी. भीम आर्मी 21वीं शदी के दलित नौजवानों की आधुनिक आकांक्षा का प्रतीक है. 

                                    'सबलोग' के जून 2017में प्रकाशित  

  

 लेखक जन संस्कृति मंच,दिल्ली के सचिव हैं.

           +919911643772 

2 comments:

  1. एक घटना के बहाने बेहद चिंतनीय राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य का सटीक विवेचन है यह आलेख। धन्यवाद।

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  2. सटीक, तथ्यपरक और अंतर्दृष्टिपूर्ण रिपोर्ट।
    रामनरेश जी को धन्यवाद।

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