02 June 2017

    बन्दूक नहीं ‘हल’ है      समस्या का हल         ​                                                                                            ​


            मीता दास 



प्राचीन काल से महाकौशल कौशल तथा दक्षिण कौशल के नाम से जाना जाने वाला यह प्रदेश आज का छत्तीसगढ़ है । इतिहास में इस प्रदेश के बारे में यह जानकारी मिलती है की यहाँ एक समय में यहाँ कलचुरी राजाओं का शासन था । अट्ठारवीं शताब्दी में कलचुरी शासक मराठों के हाथों परास्त हुए और यहां का शासन मराठों के हाथ चला गया । और आगे अट्ठारह सौ अट्ठारह में यह प्रदेश मराठों के हाथों से अंग्रेजों के हाथों चला गया । और यहां अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ उस समय यहाँ के प्रथम अंग्रेज अधीक्षक कैपटन एडमंड हुए । उन्नीस सौ सैंतालीस यानी देश की आजादी के बाद के बाद यह प्रदेश सी ० पी ० बरार के अधीन रहा । आगे चलकर सन उन्नीस सौ छप्पन को मध्यप्रदेश बनने पर यह छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश में शामिल कर लिया गया । और एक नवम्बर सन दो हजार में छत्तीसगढ़ को भारत का छब्बीसवाँ प्रदेश घोषित किया गया । 

खनिज सम्पदा से भरपूर यह प्रदेश अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है । यहाँ आयरन बॉक्साइट टीन कोयला डोलोमाइटकोरंडम ,और प्रचुर मात्रा में हीरा भी मिलता है । इसलिए यहाँ हर तरह के व्यापारियों की नजरें गड़ी रहती हैं । वे यहाँ के भोले - भाले आदिवासियों जैसे यहाँ के मुरिया हल्बा गोंड ,उरांव ,बैगा मरिया पारधी कोरवां बिंझवार और कमार लोगों की जमीन - खेत सब पर अपनी आँखे गड़ाए रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में इन सभी खनिजों की प्रचूर मात्रा में मिलने की वजह से व्यापारी कंपनियों के दलाल और राजनेताओं में बन्दर बाँट चलती ही रहती है । उन सभी को सिर्फ खनिजों और अयस्कों से ही वास्ता होता है वे नाना प्रकार के प्रलोभन दे कर उनसे उनके खेत जमीन और जंगल छीनने में जरा भी कोताही नही करते । बस्तर या  देश के तमाम आदिवासी इलाकों में आज सबसे बड़ी समस्या भरोसे की कमी का होना है। आदिवासियों को सरकार की बातों पर तो भरोसा है ही नहींवे उन नेताओं को भी शक की नज़र से देखते हैं जो उनके लिए आवाज़ उठाने इन इलाकों में आते हैं। यहां आदिवासियों के हालात कभी नहीं सुधरते।"  क्या एन एम डी सी का प्लांट आने से हालात ठीक नहीं हुए है पिछले चालीस सालों से स्थानीय लोगों का कोई भला नहीं हुआ है। सरकार तो जैसे कि न्यूज़ के माध्यम से कहती है कि एन एम डी सी ने मुनाफा किया और उसे लोगों के भले के लिए खर्च किया पर ऐसा होता नहीं है और होगा भी नही । बस्तर के आम लोगों तक इसका फायदा नहीं पहुंचा है। एन एम डी सी के अलावा एस्सार कंपनी पहले ही यहां खनन कर रही है। इसके अलावा टाटा कंपनी का प्लांट लाने की योजना है। बस्तर के किरनदूर और बचेली में कुल 70 करोड़ टन लोहा है। सवाल उठ रहा है कि क्या बस्तर में निजी कंपनियों की कोई ज़रूरत है ?  

वहां के आम आदिवासियों का कहना है, "आप गांवों में जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि एक भी व्यक्तिएक भी स्कूल एक भी अस्पताल का विकास नहीं हुआ है। जैसा था आज भी वैसा ही है ।  एन एम डी सी के इलाके में बस वह टाउनशिप ही हैजहां उनके अपने लोग रहते हैं। वहां से एक किलोमीटर अंदर जाएंगे तो असलियत दिख जाएगी। सरकार हमें गार्ड की नौकरी नहीं दे सकती तो कौन सी कंपनी में कौन सी नौकरी देगी। यह हमें घंटी बजाने वाले की नौकरी नहीं दे सकती तो मशीन चलाने वाले की नौकरी कैसे देगी। प्लांट से बड़ी ज़रूरत हमें ट्यूबवेल की हैहैंडपंप की है स्कूल की है अस्पताल की है सरकार वह लगाए और बनवाये तो हमारा अधिक फायदा होगा।" लोग बताते हैं कि इन सारे गांवों की ज्यादातर ज़मीन बहुफसली है। यहां मक्का और धान के साथ किसान अन्य फसलें और सब्ज़ियां उगाते हैंजो उनके लिए एक सुरक्षित रोज़गार और जीने का साधन है। उनकी शिकायत है कि सरकार बंजर ज़मीन पर प्लांट क्यों नहीं लगा रही है। उन्हें क्यों जड़ से उखाड़ रही है ?बुरुंगपाल गांव के लोगों का कहना  हैं, "हमारे लोग यहां से बाहर जाकर नौकरी ढूंढते हैं और बाहर वाले यहां आकर नौकरी करते हैं। हमारे पास के गाँव नगरनार में एन एम डी सी का जो प्लांट आया वहां किसी को नौकरी नहीं मिली।" न गार्ड की और न ही झाड़ू लगाने की ही । 
इस इलाके में माओवादी नहीं हैं लेकिन वे इस इलाके से बहुत दूर भी नहीं हैं। क्या इन लोगों को इस बात का खयाल है कि सरकार इन गांव वालों को विकास विरोधी या नक्सली समर्थक बताकर जेल में डाल सकती है। एक गांव वाले का कहना हैं, "मेरे को उस बात की चिंता नहीं है। मैं नक्सली नहीं हूं। अगर वो मेरे पूरे परिवार को जेल में डाल देते हैंपूरी बस्ती को जेल में डाल देते हैं और फिर प्लांट लगाएतो हमें कोई दिक्कत नहीं है। कम से कम जेल में सूखी रोटी और छत तो मिलेगी न ! भूखों  मरना नही पड़ेगा और न ही पुलिस वाले हमें नक्सली समझकर अकारण नही पीटेंगे और न ही हमारी औरतों से रेप कर बीहड़ में मरने के लिए छोड़ देंगे । और बन्दूक के बलपर हमें नक्सली बनकर समर्पण के लिए मजबूर भी नही कर सकेंगे । आप ही बताएं हम हमारी जमीन और खेतों के बगैर करेंगे क्या 
"हम इस लड़ाई में नेताओं पर भरोसा नहीं कर सकते। वे हमें या तो वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करेंगे या फिर हमारी ताकत के एवज़ में कंपनी से समझौता कर पैसे ले लेंगे" और हमें बेवक़ूफ़ बनाएंगे ।  सवाल - जवाब करते हुए वहां के रहवासियों का आक्रोश ऐसे ही फूटता है । 
"जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दंतेवाड़ा में जनसभा को संबोधित कर रहे थे सबने सुना था टी ० वी ० पर । वह कहते हैं कि कंधे पर बंदूक नहीं हल होना ही आदिवासियों की समस्या का हल है। प्रधानमंत्री माओवादियों से बंदूक छोड़ने की अपील करते हैं और आदिवासियों को बेहतर ज़िंदगी और रोज़गार का भरोसा दिलाते हैं। मुझे प्रधानमंत्री मोदी के शब्द फिर याद आते हैं। कंधे पर बंदूक नहीं हल यानि रोज़गार का होना ही समस्या का हल है। लेकिन क्या हम इन आदिवासियों के कंधे से उनका हल नही छीन रहे ?  .... है कोई जवाब हमारे और आपके पास 
हमारे छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों में धातुशिल्प निर्माण की सुदीर्घ परम्परा है । प्रदेश के आदिवासी कलाकार पारम्परिक रूप से धातु की ढलाई कर आकर्षक कृतियों का निर्माण कर रहें हैं। ये आदिवासी कलाकार सदियों से सौन्दर्यपरकआनुष्ठानिक और उपयोगी कलाकृतियों का निर्माण अंचल के लोगों की आवश्यकता और सौन्दर्य चेतना के अनुसार सहज रूप से बनाते आ रहें है। जिनमें सरगुजा के मलाररायगढ़ के झाराबस्तर के घड़वा और लोहार प्रमुख है। इस परम्परागत कला मेंइतिहास एवं संस्कृति के अनेक उतार चढ़ाव कांस्य युग से वर्तमान युग तक की लम्बी परम्परा है । साढ़े चार पांच हजार वर्षों की यह समृद्ध कला परम्परा आज तक सुरक्षित व थोड़े परिवर्तनों के बावजूद अक्षुण्ण चली आ रही है। आदिवासी समाज ने इस कला परम्परा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप किया बिना इसे धरोहर के रूप में न सिर्फ सुरक्षित रखा वरन इसे जीवन्त भी बनाये हुए है ।
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में बसे बस्तर क्षेत्र में आज घढ़वा कला बड़े पैमाने पर होने लगा है। बस्तर जिले में प्राचीन काल से मिश्र धातु की ढलाई करके मूर्तियां,आभूषणबर्तनव दैनंदिन उपयोग में आने वाली अनेक वस्तुएं बनाई जाती रहीं है। यह मिश्र धातु तांबाजस्ता व रांगा के मिश्रण से तैयार की जाती है। मिश्र धातु से ढलाई करके मूर्तियां बनाने का यह कार्य घसिया जाति के लोग करते हैजो दस्तकारों की एक अत्यंत प्राचीन जाति है। जो आज स्वयं को घड़वा जाति कहलाना पसंद करते हैं । 

धातुशिल्प निर्माण की तकनीक  बस्तर की घड़वा कला को ढोकरा कला भी कहते हैं यह ढलाई की मूल प्रक्रिया  ही हैथोड़ी बहुत यदि भिन्नता है वह स्थान,परिवेश और सामाग्री की उपलब्धता के कारण हैं। शिल्प निर्माण में काम में आने वाले औजारों में भी समानता है। यह तकनीक भारत वर्ष की अत्यंत प्राचीन तकनीक है। जिसके साक्ष्य मोहन जोदड़ो से प्राप्त कांस्य प्रतिमा है। धातु ढलाई की इस तकनीक को मोम क्षय विधि कहते है। फ्रेंच भाषा में इसे सायरे परड्यू कहा जाता है। तथा अंग्रेजी में वेक्स लॉस प्रोसेस कहा जाता है। इस विधि में मधुमक्खी द्वारा निर्मित मोम का प्रयोग किया जाता है। इसलिये इस तकनीक का नाम मोम क्षय विधि पड़ गया ।
इन लोक धातु शिल्पियों द्वारा निर्मित शिल्प पारम्परिकलोक आधारितसहज हैं । यहां की सांस्कृतिक संपदा और पुरातात्विक अवशेषों से प्राप्त होने वाली सामग्री के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व से ही यहां वास्तुकलामूर्तिकलाऔर धातुकला का विकास हो चुका था । इस अंचल की शिल्प काफी पुराना और समृद्ध है । 
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जादू टोना ने यहां की कला को प्रभावित किया है। शक्ति स्थलों पर लोहे की छड़ त्रिशूलअथवा धातु की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है । लौह एवं ढलाई से निर्मित कृतियों का निर्माण का प्रचलन यहाँ काफी पुराना है । लुहार घड़वा तमेर कलाकारों ने अनेक देवी - देवताओं पक्षियों जंगली भैसा यानी बाइसन सींग वाले मुरिया मरिया जनजाति ले मनुष्यों को भी इन धातु के शिल्प में ढाला । उनकी दृष्टि में ये भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने की उनके देवी - देवता । नवीन प्रयोगों और विकसित स्वरूपों में छत्तीसगढ़ क्षेत्र का ढोकरा शिल्प एक उद्योग का रूप लेता जा रहा है। ढलाई की सीमा के बावजूद टुकड़ों टुकड़ों में बनाकर वृहदाकार शिल्पों के निर्माण में वे सफल रहें है। अनेक शिल्पी मिलकर एक शिल्प के निर्माण में सहयोग करते है। कोण्डागांव जगदलपुरकरनपुरऐराकोट आदि गांव इस कला के केन्द्र बनते जा रहें है। अब ये शिल्प नये प्रतीकों और स्वरूपों के आयाम की ओर अग्रसर है।
प्रारंभ में शिल्प निर्माण का कार्य स्थानीय लोगों की आवश्यकता के अनुरूप किया जाता था । किन्तु अब यह कार्य एक व्यवसाय का रूप ले लिया है। बस्तर में अब लगभग 300 से 400  परिवार इस कार्य में लगे हुए है। ये परिवार परंपरागत तकनीक एवं अलंकरणों में शिल्प व अन्य उपकरणों का निर्माण करते हैं। जिनकी मांग कला संग्रहकर्ताओं में एवं विदेशों में बहुत अधिक है । पर इनका मूल्य यानी की इनका मेहनत आना नही के बराबर मिलता है सारे बिचौलिये इनका माल कम दामो में इनसे खरीदकर ये संग्रहालयों बड़े - बड़े प्रदर्शनियों और विदेशों में ऊँचे दामों में बेचकर अच्छा मुनाफा कमाते हैं । इधर ये शिल्पी आज भी अपनी बदतर हालात में जीने को मजबूर हैं । इस कला में पूरा परिवार सारा दिन लगा रहता है क्या बच्चे क्या बूढ़े और घर की औरतें भी मिलजुल कर  करती हैं । यह शिल्प पूरे देश - विदेश में काफी चर्चित और  पसंद की जा रही है इसीके चलते यहाँ की प्रसिद्धी में भी इजाफ़ा हुआ है । हमारे संस्कृति विभाग ने भी इस ओर अपना हाथ बढ़ाकर इस कला को जिन्दा रखने में मदद कर रही है पर बिचौलियों के मार से ये शिल्पी अपने उचित हक़ों से वंचित रहने पर मजबूर हैं । असल बात यह भी है की वे अत्यंत सरल एवं सहज लोग हैं उन्हें इन बिचौलियों की मीठी बातों में घुले मतलब को आंक ही नही पाते । 
नवीन प्रयोगों और विकसित स्वरूपों में छत्तीसगढ़ क्षेत्र का ढोकरा शिल्प एक उद्योग का रूप लेता जा रहा है। ढलाई की सीमा के बावजूद टुकड़ों टुकड़ों में बनाकर वृहदाकार शिल्पों के निर्माण में वे सफल रहें है। अनेक शिल्पी मिलकर एक शिल्प के निर्माण में सहयोग करते है। कोण्डागांव जगदलपुरकरनपुर,ऐराकोट एक ताल  आदि गांव इस कला के केन्द्र बनते जा रहें है। अब ये घड़वा शिल्पी अपनी परम्परा अपनी संस्कृति को इन शिल्पों में अक्षुण्ण बनाने में लगे हुए हैं क्योंकि ये शिल्प घड़वा लोक कला के प्रतिरूप व प्रतीकात्मक रूप है। यह कला अपने सीमित साधनों ,अभावों अत्यंत श्रम साध्य होने के बावजूद सतत गतिशील बनी हुई है। अपने सतत्‌ प्रयास से आज ये शिल्पी श्रेष्ठतम एवं उत्कृष्ट कलाकृतियों का निर्माण कर रहें हैंऔर समकालीन जगत में अपने ही प्रयासों से उच्चतम शिखर की ओर अग्रसर हो रहें है और वे किसी बड़े सम्मान के हकदार भी हैं पर क्या इस दिशा में हमारे राजनीतिज्ञ संज्ञान ले रहे हैं या उनके सम्मान के लिए कोई मुहीम ही चला रहे हैं कहना जरा कठिन है । 
इसी तरह से छत्तीसगढ़ की 'गोदनाकला भी है जिसे देखकर आप कह सकते हैं कि आधुनिक ज़माने के टैटू इसी पुरानी कला का नया अंदाज है। गुज़रे ज़माने में आदिवासी तबके के लोग इसे अपने पूरे शरीर में गुदवाते थे लेकिन अब इसका अंदाज़ ज़रा बदल गया हैअब इस कला को कपड़े पर उतारा जाता है। साड़ियों व कपड़े पर बनने वाली गोदना कला पहले काफी सीमित थीइसे सिर्फ घर की चीजों और पहनने के कपड़ों पर इस्तेमाल किया जाता था।
बीते वक्त में छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड ने इस कला से जुड़े कलाकारों को बेहतर बाजार उपलब्ध कराया है। सरगुजा के गोदना आर्ट की पहचान अब विदेशों तक हो गई है। गोदना कला का प्रचार कर कलाकारों को बेहतर बाजार उपलब्ध कराया जा रहा है और कार्यक्रमों में उन्हें इसका प्रतिनिधित्व करने का मौका भी दिया जाता है । इन दिनों भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में  छत्तीसगढ़ की गोदना कला लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। साड़ियों पर गोदना कला से चित्रकारी करना काफी मेहनत का काम है और धीरे धीरे गोदना कला एक ब्रांड के रूप में स्थापित हो रहा है। देखना यह है की यहाँ की सरकार उनकी कितनी मदद करती है और उनके उत्थान के लिए किस - किस तरह की योजनाओं को संचालित करती हैं जिससे ये भोले - भाले शिल्पियों की शिल्प कला मरे नही और भी निखर कर आये । 
क्या नही है भारत में और क्या नही है हमारे छत्तीसगढ़ में  ..... बस एक नजरिया साफ़ - स्वच्छ विचार कि कला की पूजा और कलाकार को उसका सही हक़ मिलना चाहिए अपने देश की आजादी के इतने सालों के बाद भी वे क्यों अपने हक़ से वंचित हैं ???   ...यह प्रश्न मथता है ! 
                                          ‘सबलोग’ के जनवरी 2017 में प्रकाशित


लेखिका साहित्यकार और जन संस्कृति मंच की भिलाई शाखा की उपाध्यक्ष हैं.

mita.dasroy@gmail.com  +919329509050

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