मीडियाः आजादी और
जवाबदेही
आनंद स्वरूप
वर्मा
मीडिया की आजादी और इसकी
जवाबदेही विषय पर आज जब भी कोई गंभीरता से विचार करता है तो एक बड़ी दर्दनाक तस्वीर
सामने आती है। ऐसा लगता है जैसे समूचा मीडिया आज एक अंधकार के युग में प्रवेश कर
गया है। प्रिंट मीडिया हो अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ने देश की जनता को
राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी संभाल ली है और इस प्रक्रिया में उसके
लिए हर व्यक्ति या संगठन देश का दुश्मन है जो सांप्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद, असहिष्णुता और राजनेताओं की गुंडागर्दी का प्रतिरोध करता है,
जो भीड़ के न्याय का विरोधी है और जो तर्कशीलता
में यकीन करता है। इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा उन्हीं
ताकतों को बढ़ावा दे रहा है जिन्होंने लगातार जनतंत्र के दायरे को संकुचित किया है।
फासीवादी ताकतों के साथ खुद को घनिष्ठ रूप से जोड़ते हुए मीडिया एक शर्मनाक भूमिका
निभा रहा है और भारत के इतिहास में एक ऐसा रक्तरंजित पन्ना जोड़ने की तैयारी में
लगा है जिससे निजात पाने में आने वाली पीढ़ी को अनेक लंबे और दर्दनाक रास्तों से
गुजरना होगा। क्या इस तरीके से उनलोगों की जुबान पर हमेशा के लिए ताला लगाया जा
सकेगा जो कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार से थोड़ा भी अलग राय रखते हैं?
क्या मुसलमानों ही नहीं बल्कि देश और देश के
तमाम उत्पीड़ित जनों से प्यार करने वाले उन हिन्दुओं के अंदर भी यह खौफनाक संदेश
पहुंचाने की कोशिश नहीं की जा रही है कि अगर तुमने किसी मुद्दे पर ‘हिन्दुत्ववादियों’ का विरोध किया तो तुम्हें थाने या अदालत के दरवाजे तक
पहुंचने से पहले ही लंपटों और गुंडों की भीड़ के हवाले कर दिया जाएगा? क्या सवालों से जूझते दलित और गैर दलित
नौजवानों के दिलों में दहशत पैदा की जा सकेगी जिन्हें बखूबी पता है कि भारत में
फासीवाद मनुस्मृति को बगल में दबाए ब्राह्मणवाद के रथ पर सवार होकर संविधान को
रौंदते हुए आने की तैयारी में लगा है? हमारे इस लोकतंत्र को आतताइयों का तंत्र बनाने के लिए जो व्यूह रचना चल रही है
उसमें यह हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिए, जो इस देश में संविधान और जनतंत्र को बचाए रखना चाहते हैं
और जो विभिन्न धर्मों और समुदायों की एकजुटता में विश्वास रखते हैं, चिंता की बात है।
आज मीडिया विभिन्न
समुदायों को आपस में लड़ाने, पड़ोसी देशों के
साथ संबंधों को जटिल बनाने, कॉरपोरेट घरानों
की लूट को आसान बनाने और पूरे देश में एक सांप्रदायिक माहौल तैयार करने में
जबर्दस्त भूमिका निभा रहा है। आज की तारीख में जनतांत्रिक दायरा कितना सिकुड़ गया
है इसे समझने के लिए ‘इंडिया टुडे
कॉनक्लेव’ में भाजपा अध्यक्ष अमित
शाह के साथ पत्रकार राहुल कंवल के उस संवाद की ओर मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा जिसमें
एक सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा, ‘‘अफजल गुरु की
फांसी के दिन इकट्ठा होना इटसेल्फ देशद्रोह है। इसमें नारे का सवाल ही नहीं कि
किसने लगाए किसने नहीं लगाए...’’। 2004 में अफजल के ही सह आरोपी एसएआर गिलानी के बचाव
के लिए जो आल इंडिया कमेटी बनी थी उसके अध्यक्ष प्रसिद्ध समाज विज्ञानी रजनी
कोठारी थे और अन्य सदस्य थे सुरेंद्र मोहन, अरुणा राय, संदीप पांडेय,
अरुंधति राय, प्रभाष जोशी, संजय काक, नंदिता हक्सर,
सईदा हमीद आदि। क्या ये सभी देशद्रोही माने
जायेंगे? राहुल कंवल के अंदर यह
पूछने का साहस नहीं था।
मीडिया आज क्यों इस
स्थिति में पहुंच गया है, इस पर हमें गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। इस
संदर्भ में मैं पिछले चार-पांच दशकों के दौरान मीडिया के विकास और इसके अधःपतन
का संक्षेप में जिक्र करना चाहूंगा।
आप सब लोगों को पता है कि
जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब पूरे देश में आपात स्थिति की घोषणा की और अखबारों पर
सेंसरशिप लगायी तो यह आजादी के बाद की पहली घटना थी। 1977 में इमरजेंसी के समाप्त होते ही और सेंसरशिप हटते ही
अखबारी दुनिया में ऐसी हलचल मची जैसे किसी स्प्रिंग को जबर्दस्ती नीचे तक दबाकर
अचानक छोड़ दिया गया हो। इसके बाद अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं और पाठकों की संख्या में न केवल अभूतपूर्व वृद्धि हुई बल्कि
राजनीतिक विषयों में भी लोगों की दिलचस्पी बढ़ी। अनेक ऐसी पत्रिकाएं, जो रहस्य रोमांच और अपराध कथाओं से भरी होती
थीं उन्होंने भी अपना तेवर और कलेवर बदल दिया और राजनीतिक खबरें छापने लगीं। इसी
के साथ पत्रकारिता में खोजी पत्रकारिता या इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की शुरुआत
हुई। इस खोजी पत्रकारिता ने लोगों का ध्यान तेजी से आकृष्ट किया और कुछ अच्छी
स्टोरी भी पाठकों को पढ़ने को मिली। लेकिन इसका एक घातक पहलू इस रूप में सामने आया
कि अखबारों से गंभीर और विश्लेषणात्मक सामग्री का सफाया होता गया। पाठकों की रुचि
बदलती गयी और फिर उसे मसालेदार सामग्री की तलाश होने लगी। धीरे- धीरे खोजी पत्रकारिता
ने राजनीतिक विषयों पर सनसनीखेज सामग्री देनी शुरू की और इसी को उपलब्धि मान लिया
गया।
इस दौरान एक और
महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली कि अखबारों की बढ़ती पाठक संख्या और जनमत तैयार
करने की इनकी अद्भुत क्षमता ने राजनेताओं का ध्यान पहली बार हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय
भाषाओं के अखबारों और पत्रकारों की ओर आकृष्ट किया। नतीजतन इस ‘चौथे स्तंभ’ को ग्लैमर मिल गया। इस ग्लैमर से आकर्षित होकर बड़ी संख्या
में ऐसे लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए जिनके दिमाग में न तो कोई मिशन था और न
कोई उद्देश्य। इस स्थिति ने उन पत्रकारों के अंदर बड़ी निराशा पैदा की जो सामाजिक
परिवर्तन की प्रक्रिया में अपनी भूमिका ढूंढ रहे थे और जो अपनी कलम के जरिए
सामाजिक न्याय की लड़ाई में योगदान करना चाहते थे। वैसे देखा जाय तो 1977 से 1980 का दौर पत्रकारिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।
1980 में जनता पार्टी की
सरकार गिर गयी और श्रीमती गांधी दोबारा सत्ता में आ गयीं। इस बार वह एक नए तेवर के
साथ सत्तासीन हुई थीं। जनता पार्टी में पुराने भारतीय जनसंघ के शामिल हो जाने से
उन्होंने महसूस किया था कि देश का हिंदू वोट कांग्रेस के खिलाफ चला गया था और यह
उनकी चिंता का एक कारण बना। अब उन्होंने भी सांप्रदायिकता को हवा देनी शुरू की और
इस सिलसिले में नवंबर 1983 में अजमेर में
आर्यसमाज के एक सम्मेलन का उनके द्वारा उदघाटन किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। इसके
साथ ही उन्होंने अपने इर्द-गिर्द अवसरवादी, लंपट और अपराधी तत्वों को भी अच्छी खासी संख्या में बसा
लिया। 1980 के दशक की राजनीति को
याद करें तो पाएंगे कि इसी दौर में तस्करों, माफिया सरगनाओं और आपराधिक तत्वों ने बड़ी तेजी के साथ कांग्रेस तथा अन्य
पार्टियों में प्रवेश किया। इन सब चीजों का असर पत्रकारिता पर भी पड़ा। अब अखबारों
में कुख्यात अपराधियों के जीवनवृत्त छपने लगे और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठों पर
तस्करों और माफिया गिरोह के सरदारों की तस्वीरों को स्थान मिलने लगा और उनके
लंबे-लंबे इंटरव्यू प्रकाशित होने लगे। दिवंगत पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह के
संपादन में ‘रविवार’ का पहला अंक 1977 में प्रकाशित हुआ था और इसके आवरण कथा के रूप में प्रसिद्ध
लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की तस्वीर छपी थी। लेकिन 1984 आते-आते हालात इतने बदतर हो गये कि तस्कर के रूप में
कुख्यात हाजी मस्तान पर इसी पत्रिका में आवरण कथा प्रकाशित हुई और उस तस्कर की फोटो
कवर पर छपी। यही वह दौर था जब खास तौर पर हिन्दी पत्रकारिता का अधःपतन शुरू हुआ जो
आज तक जारी है। आज स्थिति यह है कि जनपक्षीय पत्रकारिता पूरी तरह हाशिए पर चली गयी
है और जनपक्षीय पत्रकार अपने को बेहद असहाय महसूस करने लगे हैं।
1980 के दशक की पत्रकारिता कई
अर्थों में इसलिए याद की जाएगी क्योंकि समूचा दशक उल्लेखनीय घटनाओं से भरा था।
पंजाब में ब्लू स्टार ऑपरेशन से लेकर शाह बानो केस और फिर बाबरी मस्जिद का ताला
खोले जाने, आडवाणी की रथयात्रा और
अयोध्या में बार-बार होने वाली कारसेवा ने न केवल समूचे सामाजिक ताने-बाने को
छिन्न-भिन्न कर दिया बल्कि पत्रकारिता में भी एक नए तरह का ध्रुवीकरण शुरू हो गया।
ब्लू स्टार ऑपरेशन के समय पहली बार यह महसूस हुआ कि हिन्दी पत्रकारिता ‘हिन्दू पत्रकारिता’ हो गयी है। बिना किसी अपवाद के हिन्दी
के सभी अखबारों ने पंजाब की
घटनाओं पर वही रवैया अख्तियार किया जो राजनीतिक समस्या के सैनिक समाधान में यकीन
करती है। उस समय श्रीमती गांधी की नीतियों का आंख मूंदकर समर्थन करने की
जिम्मेदारी लगभग सारे अखबारों ने संभाल ली। अयोध्या में कार सेवा तक यह प्रवृत्ति
इतना गंभीर रूप ले चुकी थी कि इसके खिलाफ प्रेस परिषद को भी कदम उठाना पड़ा। 1987 में राजस्थान के दिवराला में रूपकुंवर नामक एक
महिला सती हुई थी और उस पर ‘जनसत्ता’ में जो संपादकीय प्रकाशित हुआ था उसके विरोध
में ढेर सारे लेखकों पत्रकारों ने जनसत्ता का बहिष्कार किया था। आज हम जिन
प्रवृत्तियों को मीडिया में एक घातक रूप लेते हुए देख रहे हैं उनके बीज 1980 के दशक में पड़ चुके थे लेकिन उन बीजों के
विकसित होने के लिए जिस आबोहवा की जरूरत थी उसका अभाव था। नरेन्द्र मोदी की मौजूदा
सरकार ने वह आबोहवा मुहैया करा दी और वे बीज जो अंकुरित होने के लिए बेचैन थे
अचानक प्रस्फुटित हो गए।
उन दिनों हिन्दी में ‘जनसत्ता’
को बहुत अच्छा अखबार माना जाता था और इसके पाठकों की संख्या भी अच्छी थी। पत्रकारों
की बहुत शानदार टीम होने के बाजवूद संपादक सहित संपादकीय विभाग के प्रमुख लोगों के
कट्टरपंथी विचार अखबार के पन्नों पर तमाम अच्छी रपटों के बीच पड़े रहते थे। खुद
संपादक प्रभाष जोशी भाषा के मामले में अद्भुत थे लेकिन वैचारिक गड़बड़ी की वजह से
उनकी बातों का जो असर होता था वह उन्हीं बीजों के लिए खाद-पानी का काम करता था
जिनका जिक्र ऊपर किया गया है। अपने विचारों को किसी न किसी रूप में प्रकट करने से
वह बाज नहीं आते थे। अगर क्रिकेट पर उन्होंने कोई लेख लिखा तो उसमें भी उनके वे
विचार जगह पा ही लेते थे। मिसाल के तौर पर 12 फरवरी 1987 के उनके लेख का
यह अंश देखें जो उन्होंने भारत-पाक क्रिकेट मैच के बाद लिखा थाः ‘‘भारतीयों को पाकिस्तान से हारना जितना बुरा
लगता है उतना किसी देश की टीम से किसी खेल में हारना नहीं। और पाकिस्तान तो मानता
है कि मांस, मच्छी, अंडे आदि खाने वाले जो मुसलमान हमलावर खैबर के
दर्रे से आये इसीलिए तो जीते और राज करते रहे कि दाल-चावल खाने वाले हिंदुओं से
ज्यादा ताकतवर थे और इसलिए उन पर राज करने के लिए ही बने थे...भारत के विरोध में
खड़े होकर मूंछ पर ताव देते रहना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए जरूरी है। जरूरी यह
भी है कि वह अपने को दाल-भात और इडली-डोसा खाने वाले हिंदुस्तानियों से ज्यादा
ताकतवर माने। आप देखिए इमरान खान तेज गोलंदाजी करते हुए कैसी पठानी दिखाते हैं और
जहीर अब्बास और जावेद मियांदाद के सामने कोई भी भारतीय गोलंदाज पाकिस्तान में टिक
क्यों नहीं पाता था।’’
अपने इसी लेख में
उन्होंने आगे लिखा- ‘‘इस बार भारत में
भारत को हराने के पक्के इरादे से इमरान खान घोड़े पर चढ़कर आये थे और अपनी गोलंदाजी
को बड़ी तोप बता रहे थे। पहले टेस्ट में मद्रास में श्रीकांत ने खुद इमरान खान और
उनके सबसे घातक गोलंदाज कादिर की गेंदों में भुस भर दिया। श्रीकांत ने इमरान की
ऐसी बेरहमी से धुनाई की है कि पहले किसी बल्लेबाज ने नहीं की थी। इडली डोसे ने
तंदूरी मुर्गे और गोश्त दो प्याजा में मसाले की जगह भूसा भर दिया।’’ यह तो है खेल प्रेम। अगर लेखक का बस चले तो वह
इन खिलाड़ियों का गला ही दबोच दे।
इस मामले में अंग्रेजी के
अखबार भी पीछे नहीं रहे। बांग्लादेश में भारत और पाकिस्तान के बीच खेले गए मैच पर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ (19 जनवरी 1998) के खेल संवाददाता की रिपोर्ट का यह अंश देखें:
‘‘ढाका के जिस स्टेडियम में
भारतीय टीम ने पाकिस्तान के 314 रनों के मुकाबले
धुंआधार बल्लेबाजी से जीत हासिल की, वह सुहरावर्दी उद्यान से महज दो किलोमीटर की दूरी पर है जहां पाकिस्तानी सेना
के जनरल नियाजी ने 1971 में जनरल जगजीत सिंह
अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया था।’’
पिछले दो दशकों के दौरान
मीडिया संस्थानों में संपादक के पद का लगभग लोप हो गया और संपादकीय विभाग के अन्य
पदों पर काम करने वालों की हालत दिनोंदिन खराब होती गयी। इनकी आर्थिक स्थिति सुधारने
के लिए जितने भी वेतन आयोग बने उनकी सिफारिशों पर मालिकों ने कभी अमल करने की
जरूरत नहीं समझी। जब से अखबारों में छोटे-छोटे पदों पर भी ठेके पर नियुक्ति का
प्रचलन बढ़ा स्थितियां बदतर होती गयीं। पत्रकारों की ट्रेड यूनियनें जो किसी जमाने
में बहुत मजबूत स्थिति में थीं अब नाममात्र के लिए रह गयी हैं। पत्रकार संगठनों के
शीर्ष पर बैठे लोग केवल सत्ता के साथ संबंध बनाने में लगे रहे। देश के सबसे पुराने
पत्रकार संगठन ‘इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट’ की हालत यह है कि पिछले तीन
चार दशकों से एक ही व्यक्ति के. विक्रम राव उसके अध्यक्ष पद पर है। यहां हर तीन वर्ष
पर चुनाव होते हैं लेकिन हर बार यही व्यक्ति निर्विरोध चुन लिया जाता है। पत्रकार
संगठनों के सम्मेलन बस मौज मस्ती के लिए आयोजित होते हैं। इन सम्मेलनों में न तो
पत्रकारों के संघर्ष को आगे ले जाने की कोई चर्चा होती है और न किसी गंभीर सामाजिक-राजनीतिक
विषय पर विचार विमर्श किया जाता है। मेरे पास एक पत्रकार संगठन के सम्मेलन का
निमंत्रण पत्र पड़ा है। उसके दो दिनों के कार्यक्रम को मैं सुनाऊंगा तो आप हैरान रह
जायेंगे। यह निमंत्रण पत्र ‘पत्रकार समन्वय
समिति’ द्वारा 12-13 दिसंबर 1987 को फैजाबाद में आयोजित पूर्वांचल पत्रकार सम्मेलन का है।
इसमें आमंत्रित अतिथियों में कुलदीप नैयर और सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम छपा है।
निमंत्रण पत्र के साथ दोनों दिनों के कार्यक्रम का ब्यौरा है जो इस प्रकार हैः
12 दिसंबर 1987--प्रातः 10-12 तक पंजीकरण। फिर मध्यान्ह भोज- श्री ओम प्रकाश
मदान, सोना बिस्कुट मैन्यु. कं,
फैजाबाद के सौजन्य से; उद्घाटन- 1 बजे दोपहर, केंद्रीय पेट्रोलियम गैस एवं राज्य मंत्री माननीय
ब्रम्हदत्त द्वारा, अपरान्ह चाय- 4 बजे, जिला प्रशासन फैजाबाद के सौजन्य से। द्वितीय सत्र प्रारंभ-4.30 बजे; हाई टी- 7.30 से 8.30 तक; रात्रि भोज-
8.30 से 10.30 तक बंसल प्रतिष्ठान फैजाबाद के सौजन्य से।
13 दिसंबर 1987 बेड टी- 7-8 बजे तक; नाश्ता, 9-10 बजे तक, गल्ला व्यापार
मंडल फैजाबाद के सौजन्य से; समापन सत्र-10.30 बजे; मध्यान्ह भोज- दोपहर 2.00 बजे श्री सीताराम निषाद राज्य मंत्री मत्स्य सिंचाई,
बाढ़ उ.प्र. शासन के सौजन्य से। कार्यक्रम के
अंत में एक फुटनोट है- ‘कृपया पंजीकरण
रसीद दिखाकर गिफ्ट पैक सम्मेलन कार्यालय से ले लें। ’
इस पत्रकार सम्मेलन के दो
दिन के कार्यक्रम को देखकर आप क्या कहेंगे--दोनों दिन केवल खाने पीने का कार्यक्रम
और वह भी मंत्रियों और व्यापारियों के सौजन्य से। न तो किसी राष्ट्रीय मसले पर
बातचीत और न अपने पेशे से संबंधित समस्याओं पर विचार विमर्श। यही स्थिति कमोबेश हर
पत्रकार संगठनों की है। ये संगठन अपने आयोजनों के लिए सरकार से कुछ लाख रुपये ले
लेते हैं और इसी तरह के कार्यक्रम करते हैं। पत्रकार संगठनों की जब ऐसी स्थिति हो
तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है।
1990 के दशक के साथ ही
भूमंडलीकरण का दौर शुरू हो गया। ग्लोबलाइजेशन का एक ‘बिल्ट-इन मेकेनिज्म’ है--जनआंदोलन की खबरों का ब्लैक आउट करना। इसके पीछे दलील
यह है कि अगर जनआंदोलन की खबरें ज्यादा प्रकाशित होंगी तो निवेश का वातावरण खराब
होगा। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में निवेश बहुत मायने रखता है और इसमें
जनआकांक्षाओं की भरपूर अनदेखी की जाती है जो आज भारत में हो रहा है। इसके लिए
राज्य की तरफ से तरह-तरह के बहाने ढूंढे जाते हैं। तीसरी दुनिया के देशों की समूची
अर्थनीति और राजनीति विश्वबैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा संचालित होने
लगी। 1990 के दशक में ही नोबल पुरस्कार
विजेता प्रमुख अर्थशास्त्री जोसेफ स्तिगलीज का एक दस्तावेज विश्व बैंक की ओर से
प्रकाशित हुआ। उस समय स्तिगलीज विश्व बैंक के उपाध्यक्ष थे। उस दस्तावेज का शीर्षक
था--‘री डिफाइनिंग दि रोल ऑफ
स्टेट’ अर्थात राज्य की भूमिका
को पुनर्परिभाषित करना। उन दिनों स्तिगलीज भूमंडलीकरण की नीतियों के समर्थक थे
हालांकि बाद के दिनों में वे इसके घोर विरोधी हो गये और विश्व बैंक की नीतियों के
खिलाफ उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। इस दस्तावेज में विभिन्न देशों को
सलाह दी गयी थी कि वे सभी जनकल्याणकारी काम निजी कंपनियों को सौंप दें और राज्य एक
सहजकर्ता (फेसीलिटेटर) की
भूमिका निभाये। कहने का तात्पर्य यह कि शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य,
परिवहन आदि का निजीकरण कर दिया जाय और उन्हें
अपने ढंग से काम करने दिया जाय। देश का जो कार्यकारी प्रधान हो अर्थात प्रधानमंत्री
या राष्ट्रपति, वह अपनी एक कमेटी
बनाकर इस निजीकरण की निगरानी करे। इस दस्तावेज को तीसरी दुनिया के देशों ने बाइबिल
की तरह स्वीकार किया। इसी के नतीजे के तौर पर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘प्राइम मिनिस्टर्स काउंसिल ऑन ट्रेड ऐंड इंडस्ट्री’ का गठन किया जिसमें देश के प्रमुख उद्योगपतियों
को शामिल किया गया। ये थे--रतन टाटा, मुकेश अंबानी, आर पी गोयनका,
पी. के. मित्तल, कुमार मंगलम बिड़ला, नुस्ली वाडिया आदि। इन लोगों को विभिन्न क्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी गयी।
प्रधानमंत्री कार्यालय से विभिन्न मंत्रालयों को इस आशय का पत्र भेज दिया गया कि
इनके नेतृत्व में बनी समितियां संबद्ध मंत्रालय की सर्वोच्च निकाय होंगी और इन्हें
सारी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करायी जायं। इस घटना की खबर अखबारों में नहीं छपी।
अंग्रेजी अखबार ‘दि हिंदू’
में एक सिंगिल कॉलम की खबर दिखायी दी लेकिन प्रधानमंत्री
कार्यालय की वेबसाइट पर इसकी जानकारी विस्तार
से उपलब्ध थी। उन दिनों सोशल मीडिया भी नहीं था लिहाजा यह खबर व्यापक प्रचार नहीं
पा सकी तो भी कुछ उत्साही पत्रकारों ने इस बात पर चिंता जाहिर की कि अगर शिक्षा और
स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मामलों की देखरेख अंबानी और टाटा करेंगे तो जनता के लिए
ये सुविधाएं कितनी मंहगी साबित हो सकती हैं। धीरे धीरे विरोध के स्वर मुखर होते
गये और तब पूरी योजना को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
अप्रैल 2000 में शिक्षा में सुधार पर बनी समिति के संयोजक
मुकेश अंबानी और समिति के एक और सदस्य कुमारमंगलम बिड़ला ने अपनी रिपोर्ट सरकार को
सौंपी जिसका शीर्षक था--‘ए पॉलिसी फ्रेमवर्क
फॉर रिफार्म्स इन एजुकेशन।’ इसमें कहा गया था
कि उच्च शिक्षा को दी जा रही सब्सिडी में सरकार को कटौती करनी चाहिए और इसकी भरपाई
फीस बढ़ाकर की जा सकती है। इसमें यह भी कहा गया था कि एक ऐसा प्राइवेट
विश्वविद्यालय होना चाहिए जो बाजार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम
तैयार करे। यह भी कहा गया था कि विश्वविद्यालय परिसरों और शिक्षण संस्थाओं में किसी
भी तरह की राजनीतिक गतिविधि पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। विश्वविद्यालयों में
यूनियनबाजी को रोकने के उपाय किये जाने चाहिए।
यहां से कॉरपोरेट घरानों
के लिए, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सरकार से भी बड़ी भूमिका निर्धारित करने का
जो सिलसिला शुरू हुआ वह अबाध गति से चलता रहा और इसने धीरे धीरे मीडिया पर भी अपना
शिकंजा कस लिया। पिछले वर्ष इसी हॉल में पत्रकार पी साईनाथ ने कहा था कि ‘अगर हम लोग पांच साल और पत्रकारिता में टिक गये
तो यकीन मानिये हम सबका मालिक मुकेश अंबानी होगा।’ आज लगभग सारे चैनल मुकेश अंबानी के पास हैं। अभी इसी वर्ष
अंबानी द्वारा हिंदुस्तान टाइम्स को भी पांच हजार करोड़ रुपये में खरीदने की खबर आ
चुकी है। जो चैनल अंबानी के पास नहीं हैं उन पर दूसरे कॉरपोरेट घरानों का कब्जा
है। इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली के संपादक परंजय गुहा ठकुराता ने अपने एक लेख में
बताया है कि किस तरह भारत के सबसे बड़े कॉरपोरेट घराने के मालिक मुकेश अंबानी और
उनके रिलायंस इंडस्ट्रीज ने देश के ढेर सारे चैनलों पर अपना कब्जा कर रखा है। उनके
इस खोजपूर्ण लेख के बारे में मैं इतना ही कहूंगा कि मीडिया पर कॉरपोरेट घरानों का
कब्जा कितना मजबूत हो चुका है इसे जानने के लिए हर मीडियाकर्मी को यह लेख पढ़ना
चाहिए। प्रिंट मीडिया हो अथवा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया आज इनमें से कोई ऐसा नहीं है जो
कॉरपोरेट घरानों से अलग हो और जिसके सरोकार आम जनता से जुड़े हों। ऐसी स्थिति में
मीडिया से यह उम्मीद करना कि वह जनता के हित की बात करेगा बिलकुल बेमानी है।
प्रायोजित खबरों की एक
अलग ही कहानी है। प्रायः आपको ऐसी खबरें ‘विश्वस्त सूत्रों’ के हवाले से दी
जाती हैं। पोकरण परमाणु परीक्षण के एक साल पूरा होने पर समाचार एजेन्सी ‘वार्ता’ ने एक रिपोर्ट प्रसारित की। इस रिपोर्ट के अनुसार--‘परमाणु विस्फोट के एक साल बाद पोकरण और खेतोलाई
गांव अकाल की छाया से निकल आया है। परमाणु परीक्षण के बाद यहां रिकार्ड बारिश हो
रही है। विस्फोटों के बाद पोकरण से जैसलमेर तक भू-जल के अथाह भंडार ही नहीं मिले,
बल्कि मीठा जल मिल जाने
से लगभग 100 किलोमीटर के क्षेत्र में
बंजर भूमि हरी-भरी हो गयी है।’ इस रिपोर्ट में
परीक्षण के बाद इस इलाके की खुशहाली के बारे में कुछ ‘सूत्रों’ के हवाले से बहुत
सारी जानकारी दी गयी है। ये ‘सूत्र’ कौन से हैं, यह नहीं बताया गया है। इसमें किसी संवाददाता का नाम नहीं है
लेकिन जिसने भी यह रिपोर्ट तैयार की है उससे गांव वालों ने बताया कि इस विस्फोट से
‘जहां देश सामरिक दृष्टि
से मजबूत हुआ है वहीं पोकरण का नाम एक बार फिर ऊंचा हो गया है।’
उसी दिन यानी 11 मई 1999 को देश के लगभग सभी अखबारों में अलग-अलग संवाददाताओं की
रिपोर्टें एक अलग तस्वीर ही प्रस्तुत करती थीं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा कि ‘विस्फोट के बाद
से ही लोगों की आंखों में काफी तकलीफ है, नाक से खून बह रहा है, कुछ को चमड़ी के
रोग हो गए हैं और कइयों ने गुर्दे और दिल की बीमारी की शिकायत की। विस्फोट का सबसे
ज्यादा असर यहां की गायों पर पड़ा। कई गायों के थन में से दूध की बजाय खून की बूँदें
निकलीं और कुछ तो अंधी भी हो गयीं।’
‘स्टेट्समैन’ की एक रिपोर्ट ने बताया कि ‘खेतोलाई गांव के 700 लोगों के लिए यह एक ऐसा अनुभव रहा है जिसकी यंत्रणा वे पूरे साल झेलते रहे।
उनके मकानों में दरारें पड़ गयीं। पोकरण-1 के विस्फोट के बाद कैंसर, जिगर, गुर्दे तथा दिल की बीमारी से 12 लोग मरे थे। वे भयभीत हैं कि इस बार अभी कितने
लोगों पर रेडियोधर्मिता का असर पड़ा होगा।’
‘इंडियन एक्सप्रेस’
ने लिखा कि ‘अकेले अप्रैल माह में चार लोगों की कैंसर से मौतें हुई है
और कई लोग कैंसर से पीड़ित हैं।’
कारगिल युद्ध के समय इस
तरह की खबरों की भरमार दिखायी देती थी। 3 जून 1999 को चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने प्रथम पृष्ठ
पर एक खबर दी जिसका शीर्षक था ‘घुसपैठियो पर
नापाम बमों से हमले’। यह समाचार किसी
और अखबार में दिखाई नहीं दिया। ‘दैनिक ट्रिब्यून’
ने इस खबर के स्रोत का जिक्र नहीं किया था
हालांकि यह महत्वपूर्ण खबर थी और इसके साथ यह जानकारी दी जानी चाहिए थी कि यह खबर
कहां से मिली। अगले दिन 4 जून को ‘जनसत्ता’ ने भारतीय वायुसेना के हवाले से बताया कि यह खबर गलत
है। इसी प्रकार मुंबई से प्रकाशित
अंग्रेजी दैनिक ‘फ्री प्रेस जर्नल’ ने 14 जून को प्रमुखता के साथ
एक खबर प्रकाशित की--‘गौरी और शाहीन को
नियंत्रण रेखा पर तैनात कर दिया गया है।’ इस खबर का भी कोई स्रोत नहीं दिया गया था। फिर 25 जून को ‘राष्ट्रीय सहारा’
ने सुर्खियों में छापा--‘गुलाम कश्मीर और पंजाब की सीमा पर पाक के परमाणु हथियार
तैनात’। इस खबर का स्रोत क्या
है इसकी भी कोई जानकारी नहीं दी गयी।
कारगिल के मामले में
मीडिया ने पूरे देश में जिस तरह का युद्धोन्माद फैलाया वह अभूतपूर्व है। इस काम
में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया दोनों में होड़ लग गयी थी कि कौन कितना ‘देशभक्त’ है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया निश्चय ही बाजी मार ले गया क्योंकि
उसे पहली बार युद्ध के मोर्चे को जीवंत रूप में लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंचाने
का अवसर मिला था। यहां यह गौर करना काफी दिलचस्प होगा कि उस वर्ष 12 जून तक, जबतक विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता से भारत बाहर नहीं हो
गया, मीडिया की सारी देशभक्ति
क्रिकेट पर न्यौछावर हो रही थी। यहां तक कि 9 जून को पाकिस्तान के मुकाबले भारतीय क्रिकेट टीम की जीत के
समाचार को लगभग सारे अखबारों में पहला स्थान मिला जबकि उस दिन बटालिक और द्रास
क्षेत्र में घमासान युद्ध चल रहा था। दरअसल क्रिकेट के बहाने तमाम बड़ी कंपनियां
कारोबार कर रही थीं और इसके लिए विश्वकप को उन्होंने ‘राष्ट्रीय गौरव’ से जोड़ दिया था। 12 जून के बाद
क्रिकेट का स्थान कारगिल ने ले लिया और फिर उन्हीं कंपनियों ने, जो कल तक क्रिकेट के जरिए देशभक्ति का स्वांग
कर रही थीं, तुरंत क्रिकेट की
जगह कारगिल को बैठा दिया और अब कारगिल के नाम पर व्यवसाय होने लगा। इस काम में
व्यापारियों को मीडिया से भरपूर सहयोग मिला।
ये खबरें 1999 की हैं।
अब एक दूसरी खबर देखिए जो
अप्रैल 2017 की है। इस खबर का संबंध
ईवीएम मशीनों से है। 13 अप्रैल 2017 को सभी अखबारों में और इससे पहले की रात में
सभी टीवी चैनलों पर यह खबर दिखायी दी कि ‘चुनाव आयोग ने मई के पहले सप्ताह में ईवीएम को हाईजैक करने की खुली चुनौती दी
है।’ किसी अखबार ने लिखा कि
चुनाव आयोग ने यह चुनौती अरविंद केजरीवाल को दी है तो किसी ने कहा कि सभी विपक्षी
दलों को चुनौती दी गयी है कि वे आवें और ईवीएम मशीन की गड़बड़ी को साबित करें। बाद
में पता चला कि यह खबर प्लांट करायी गयी थी। खबर पीटीआई द्वारा जारी की गयी लेकिन
इसमें किसी स्रोत का उल्लेख नहीं है--केवल ‘आधिकारिक सूत्रों’ के हवाले से यह खबर जारी हुई है। न तो चुनाव आयोग ने इस आशय का कोई प्रेस
रिलीज जारी किया और न कोई प्रेस कांफ्रेंस आयोजित किया। जाहिर सी बात है कि ईवीएम
मशीन की साख पर जो लोग सवाल उठा रहे हैं उनकी आवाज को बेअसर करने के लिए सरकार की
ओर से यह खबर प्रचारित करवाई गई। इसे आप आसानी से डिसइनफॉर्मेशन या मिसइनफॉर्मेशन
अभियान का नमूना कह सकते हैं।
चुनाव के दिनों में पेड
न्यूज के रूप में इस तरह की खबरें काफी चर्चा में रह चुकी हैं। पेड न्यूज के खिलाफ
जबर्दस्त आवाज भी उठ चुकी है और भारतीय प्रेस परिषद ने भी इस पर कड़ा रुख अपनाया
लेकिन प्रेस परिषद को बगैर दांत का शेर कहा जाता है क्योंकि इसके पास कोई अधिकार
हैं ही नहीं।
अभिषेक श्रीवास्तव ने
अपनी एक रिपोर्ट में 7 सितंबर 2012
को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक खबर के
हवाले से बताया था कि किस तरह टीवी चैनलों
और छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क विभाग के बीच एक समझौता हुआ जिसके तहत मुख्यमंत्री रमन
सिंह की रैलियों और सरकार समर्थक खबरों को प्रस्तुत करने के लिए एक निश्चित रकम ली
गयी। जी न्यूज और जिंदल के बीच जो टकराव हुआ और जिसके नतीजे के तौर पर इसके दो
संपादक सुधीर चौधरी और समीर अहलुवालिया
जेल भी गए उसकी पृष्ठभूमि में भी छत्तीसगढ़ ही है जहां कि रायगढ़ जिले में लंबे समय से
जिंदल के स्टील संयंत्र के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। उस रिपोर्ट के अनुसार चूंकि
कोयला घोटाले से भास्कर समूह के हित गहराई से जुड़े हैं लिहाजा इस घोटाले के समूचे
प्रकरण में ‘दैनिक भास्कर’
इकलौता अखबार रहा जिसने किसी भी संस्करण में इस
घोटाले से जुड़ी एक भी खबर नहीं छापी। अभिषेक का कहना है कि हाल के दिनों में
मीडिया में तीन तरह के लोगों ने उद्यम शुरू किया है--रीयल स्टेट, चिट फंड और नेता तथा उनके सगे संबंधी। सत्ता,
मीडिया और निजी पूंजी के इस घालमेल का सबसे बड़ा असर जनता के असल मुद्दों और अधिकारों
पर पड़ा है। मुख्यधारा का मीडिया, जिसका काम जनता की समस्याओं और अधिकारों के दमन
को सामने लाना था, वह पूरी तरह
सत्ता और पूंजी के हितों के आगे बिक चुका है।
जनता के बीच भ्रम फैलाने
और एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत फैलाने के मकसद से आये दिन खबरें प्लांट होती
रहती हैं। यहां मैं एक खबर का उल्लेख करना चाहूंगा जिससे पता चलता है कि इनका
स्वरूप कितना खतरनाक हो सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार के धार्मिक स्थल विधेयक के
विरोध में 21 अप्रैल 2000 को नयी दिल्ली के रामलीला मैदान में मुसलमानों
की एक विशाल रैली हुई। ‘मजहब बचाओ’
रैली को जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला
बुखारी के अलावा अनेक मुस्लिम नेताओं ने संबोधित किया। लगभग सभी अखबारों में इस
रैली की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इन अखबारों ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य को
रेखांकित किया कि रैली में संविधान समीक्षा तथा धर्मस्थल विधेयक के खिलाफ देश के
मुसलमानों ने संघर्ष छेड़ने की घोषणा की। लेकिन ‘दैनिक जागरण’ ने जो समाचार प्रकाशित किया, उसमें एक खास तरह
का कौशल दिखायी देता है। इस अखबार ने अपने शीर्षक में लिखा--‘बुखारी का बाबरी मस्जिद बनाने का ऐलान’ और इसी के नीचे उपशीर्षक था-‘मैं आई एस आई का सबसे बड़ा एजेंट, सरकार में दम हो तो गिरफ्तार करे।’ यह उपशीर्षक बुखारी के किस वक्तव्य से लिया गया
इसके लिए राजधानी से प्रकाशित हिंदी और अंग्रेजी के सभी अखबारों को देखना जरूरी
लगा। अन्य अखबारों की खबरों के अनुसार ‘शाही इमाम ने कहा कि आई एस आई एजेंटों की गतिविधियों को रोकने की आड़ में यह
बिल लाकर सरकार देश के मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश कर रही है।
उन्होंने चुनौती दी कि सरकार अगर एक भी ऐसी मिसाल पेश कर दे जबकि कोई आई एस आई
एजेंट किसी मस्जिद या मदरसे में पकड़ा गया हो तो वे खुद को हिंदुस्तान में आई एस आई
का सबसे बड़ा एजेंट घोषित कर देंगे।’
इस अखबार ने अगले दिन
बुखारी के ‘आई एस आई के सबसे बड़े
एजेंट’ से संबंधित बयान के विरोध
में इंद्रप्रस्थ विश्व हिंदू परिषद, अखंड हिदुस्थान मोर्चा, अखिल भारतीय
ब्राह्मण संघ, शिवसेना पूर्वी
दिल्ली, भारतीय विद्यार्थी सेना
जैसे ढेर सारे संगठनों के बयान प्रकाशित किये जिसमें मांग की गयी थी कि बुखारी को
गिरफ्तार किया जाय और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाय। इसके बाद 25 अप्रैल को ‘दैनिक जागरण’ ने पांच कालम में फैला एक शीर्षक लगाया--‘अब्दुल्ला बुखारी को गिरफ्तार करने की मांग जारी’। इस शीर्षक के अंतर्गत एक दर्जन संक्षिप्त
समाचार थे। जिस समाचार से यह शीर्षक बनाया गया था वह किसी ‘भारत हितैषी’ नामक संगठन के अध्यक्ष कमल कुमार का वक्तव्य था। खबरों के साथ इस तरह का
खिलवाड़ ‘दैनिक जागरण’ पहले भी करता रहा है और अयोध्या में कारसेवा के
दौरान इसे इसके लिए ख्याति भी मिल चुकी है। रिपोर्टर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि
‘उम्मीद से ज्यादा भीड़
देखते ही बुखारी पहले से तैयार अपना भाषण पढ़ना भूल गये और रामलीला मैदान से संसद
की तरपफ इशारा करते हुए कहा कि मारो इसे। उनके यह जोशीले अल्फाज सुनते ही मैदान
में जमा हजारों मुसलमान भी मारो मारो कहकर संसद की तरफ निहारने लगे।’ यह एक खास तरह की रिपोर्टिंग थी जो किसी और
अखबार में नहीं दिखायी दी।
कांग्रेस के पी वी
नरसिंहाराव ने 1991 से जिस नवउदारवादी आर्थिक नीति की शुरुआत की वह प्रधनमंत्री अटल
बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह से होती हुई नरेंद्र मोदी तक जारी है। सितम्बर 2006
में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद और आतंकवाद की समस्या से
निपटने के लिए विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन बुलाया था जिसमें
उन्होंने मुख्यमंत्रियों को सलाह दी कि वे मीडिया को ‘कोऑप्ट’ करने की कला सीखें। अब आज अगर नरेन्द्र मोदी की
सरकार ने समूचे मीडिया को अपने अनुकूल कर लिया है तो इसमें आश्चर्य क्या। इसीलिए
मुझे 2015 में अरुण शौरी की कही बात बहुत सही लगती है जिसमें उन्होंने मोदी सरकार
को ‘कांग्रेस प्लस काऊ’ कहा था। लेकिन यह ‘काऊ’ वाला तत्व बेहद खतरनाक है।
ऐसी हालत में चौथे स्तंभ
का मर्सिया पढ़ने का समय आ गया है। अब यह तथाकथित चौथा स्तंभ आम जनता के लिए दुश्मन
के रूप में दिखायी दे रहा है। इसकी जब स्थापना हुई थी तो इसका मकसद लोकतंत्र के
तीनों स्तंभों--कार्यपालिका, न्यायपालिका और
विधायिका पर निगरानी रखना था। लंबे समय तक इसने अपने दायित्व को पूरा भी किया।
लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया, इसका क्रमशः अधःपतन
होता गया और आज ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि अब इससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
चूंकि इसपर किसी की निगरानी नहीं है इसलिए यह निरंकुश और बेलगाम हो गया है ओर अपने
को जनता का नहीं बल्कि अपने कॉरपोरेट मालिकों का जवाबदेह मानता है।
जाहिर है कि ऐसे में इन
तीनों स्तंभों के साथ साथ चौथे स्तंभ पर भी निगरानी रखने की जरूरत है और हमें इस
पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या एक परिकल्पना के तौर पर ही सही हम किसी ‘पांचवें स्तंभ’ को खड़ा कर सकते हैं? यह पांचवां स्तंभ अन्य स्तंभों के साथ साथ विशेष रूप से
चौथे स्तंभ पर निगरानी रखेगा। आप यह सवाल उठा सकते हैं कि अगर चौथा स्तंभ भ्रष्ट
हो गया तो क्या गारंटी कि पांचवां स्तंभ भी भ्रष्ट नहीं होगा। बात सही है। यह भी
भ्रष्ट हो सकता है लेकिन इस काम में इसे भी कई दशक लग जायेंगे जैसा कि चौथे स्तंभ
के संदर्भ में हुआ। यह पांचवां स्तंभ मुख्य रूप से पत्रकारों को लेकर बनाया जाएगा
क्योंकि इसका काम पत्रकारिता पर निगरानी रखना है। बावजूद इसके इस स्तंभ के साथ उन
सभी लोगों को घनिष्ठ रूप से जोड़ना होगा जो राजनीति, स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थशास्त्र आदि अलग अलग क्षेत्रों में किसी
विकल्प के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनके सहयोग के बिना न तो इस प्रयास को हम जिंदा
रख सकेंगे और न इसे भ्रष्ट होने से बचा सकेंगे। यहां जवाबदेही का भी सवाल है।
हमारी जवाबदेही उस व्यापक जनसमुदाय के प्रति होगी जो मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक
स्थिति से क्षुब्ध है और किसी विकल्प की तलाश में है। इसे एक आंदोलन की तरह लेकर
आगे बढ़ना होगा। केवल घोषणापत्र छाप देने और कमेटियां बना देने से इसे नहीं चलाया
जा सकता। जब मैं आंदोलन की बात करता हूं तो हमें यह तय करना होगा कि हम किन्हें
लेकर, किनके खिलाफ आंदोलन करना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें पांचवें
स्तंभ की मित्र शक्तियों की शिनाख्त करनी होगी। इसी को ध्यान में रखकर मेरा मानना
है कि समाज में विभिन्न क्षेत्रों में विकल्प के लिए संघर्षरत शक्तियों को साथ लेना
होगा क्योंकि यही हमारी मित्र शक्तियां होंगी। इनके जरिये ही हम एक समानांतर सूचना
व्यवस्था विकसित कर सकते हैं। जर्मनी में फासीवाद के खिलाफ बौद्धिक लड़ाई लड़ने वाले
मशहूर कवि और नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त ने अपने एक लेख में झूठ के खिलाफ लड़ाई लड़ने
के लिए कुछ तरीके बताए थे। उनका कहना था कि पांच बातों को ध्यान में रखना चाहिएः
1.सच को कहने का साहस 2.सच को पहचानने की क्षमता 3. सच को हथियार के रूप में
इस्तेमाल करने का कौशल 4.उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार
कारगर हो सकता है 5.व्यापक जनसमुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।
पी. साईनाथ ने अपने एक
वक्तव्य में एक बार कहा था कि आज मीडिया का झूठ बोलना उसकी संरचनागत बाध्यता
(Structural compulsion) है और इसे वह अपने सभी उपादानों सहित आत्मसात कर चुका है।
इससे सहमत होते हुए मैं अपनी बात जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन से समाप्त करूंगा जिसमें
उन्होंने कहा था कि ‘इन ए टाइम ऑफ यूनीवर्सल डिसीट, टेलिंग दि ट्रुथ इज ए रिवोल्यूशनरी ऐक्ट।’ अर्थात जिस समय चारों तरफ
धोखाधडी का साम्राज्य हो सच कहना ही क्रांतिकारी कर्म है। ‘मीडिया विजिल’ द्वारा 6 मई 2017 को आयोजित सम्मलेन में पढ़ा
गया आधार पत्र
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'समकालीन तीसरी दुनिया' के सम्पादक हैं. vermada@hotmail.com +919810720714
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