02 October 2017

गांधी की खोज में : मणीन्द्र नाथ ठाकुर

गांधी की खोज में

मणीन्द्र नाथ ठाकुर


समाज किसी नदी की तरह अविरल कैसे प्रवाहित रहता है? हज़ारों वर्षों से नाते-रिश्ते, ज्ञान, अज्ञान, सामाजिक संस्थाएँ, कैसे चलती रहती हैं? यह सवाल बचपन से मेरा पीछा करता रहा है। ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आता है, लेकिन सभ्यता के मूल्य समाज में बने रहते हैं। हाल में जब मारियो लोसा का उपन्यास ‘स्टोरी टेलर’ पढ़ने का मौक़ा मिला तो बात समझ में आयी कि हर समाज अपनी कहानी आनेवाली पीढ़ी को कहता है। संगीत, साहित्य, कला, क़िस्सा, कहानी, गप्प, चटकुला, नाटक, उपन्यास, धर्म ग्रंथ, ये सब के सब मनुष्य के उन प्रयासों के परिणाम हैं जो वह समाज की निरंतरता को बनाए रखने के लिय करता है। हम में से हर किसी को अपनी कहानी कहने का हक़ है। अपने नज़रिए से समाज की कहानी कहना हमारा दायित्व भी है। अपने इसी दायित्व बोध के कारण मैन गांधी की एक कहानी कहना चाहता हूँ। इस कहानी कि शुरुआत मैं इस सवाल से करना चाहता हूँ कि क्या गांधी भारतीय समाज की सामूहिक चेतना में गहरे उतर गए थे या फिर सामूहिक चेतना ने अपने अमूर्त गांधी को मोहन दास में मूर्त रूप दे दिया था?
अमूर्त और मूर्त के तर्क को थोड़ा और खोल देना ठीक रहेगा। गीता में एक श्लोक है “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम !!” इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि अधर्म से मुक्ति दिलाने वाले एक महापुरुष की कल्पना इस समाज के सामूहिक चेतना में रहती है। धर्म का अर्थ किसी रिलिजन से नहीं होकर प्रकृतिक नियमों पर आधारित नीतियों से है, जिससे समाज का बेहतर संचालन हो सकता है। एसा भी कह सकते हैं कि धर्म का अर्थ उन सामन्य सर्वमान्य नीतियों से हैं जिससे व्यक्ति के जीवन में संतुलन बना रहे और समाज सुचारू रूप से चल सके। श्लोक के अनुसार ऐसे धर्म की हानि या अधर्म के बढ़ जाने से समाज उस महपुरुष के अमूर्त रूप को एक मूर्त रूप दे देता है। महपुरुष कोई अवतरित नहीं होते हैं, बल्कि बनते हैं और समाज लगातार अपने समर्थन से उसे प्रेरित कर उस ओर आगे बढ़ाता है। अनायास ही महापुरुष की पहुँच आम जन तक हो जाती है, क्यंकि उसकी चेतना भी उस सामूहिक चेतना का हिस्सा है। समाज ऐसे व्यक्ति को लगातार उस अमूर्त महापुरुष की कसौटी पर कसता भी रहता है, उसकी आलोचना भी करता रहता है।

हम जब भी अपनी अपने जीवन से जोड़कर किसी महापुरुष की कहानी कहते हैं तो एक तरह से वह मूर्त महापुरुष की समाज की सामूहिक चेतना में उपस्थिति को दर्ज करने का प्रयास ही होता है। निश्चित रूप से इसकी सीमा यह होगी कि हम जिस समाज में से होते हैं वही हमारे देखने के नज़रिय को तय करता है। लेकिन ये बातें सार्वभौमिक न भी हों तो काम से कम सर्वजानिक तो हैं ही। ऐसी कहानियों से एक उम्मीद यह होती है कि यदि भविष्य में कुछ लोग इसे पढ़ कर यह जान पाएँ कि हमारे समाज में गांधी किस तरह से रच बस गए थे तो शायद उनमें गांधी से संवाद करने की इच्छा भी जग जाए। ऐसे महापुरुषों की जो ख़ूबियाँ या ख़ामियाँ रहीं हो उनको समझने में कुछ सहायता मिल जाए। कई बार ऐसा लेखन अपने समाज के साथ संवाद में भी हमारी सहायता करती है। मैंने गांधी नहीं देखा है, लेकिन मेरे समय के समाज में गांधी की उपस्थिति व्यापक तौर पर थी। गांधी एक विचार बन गए थे, एक जीवन पद्धति का नाम था। कुछ बदलाव के साथ गांधी अभी भी हमारे साथ हैं, शायद ज़्यादा व्यापक फलक के साथ।

इस संदर्भ में एक वाक़या मुझे याद है। पिछली गर्मी में मैं लंदन पार्लियामेंट स्क्वेर के पार्क में बैठकर कुछ दोस्तों से बातें कर रहा था। तभी किसी स्कूल के बच्चे अपने शिक्षकों के साथ वहाँ आए। उस पार्क में चर्चिल, नेलसन मंडेला, रोबार्ट पील, अब्राहम लिंकन जैसे महान लोगों की मूर्तियाँ लगी हुई हैं। उनमें एक मरती गांधी की भी है और शायद अकेली मूर्ति है जो किसी सत्ता से जुड़ी न हो। मेरे आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि सारे बच्चे गांधी की मरती के आस-पास जमा हो गए। मैंने शिक्षक से जानना चाहा कि क्या ऐसा कोई निर्देश था उनके लिय। बिना किसी पूर्व निर्देश के ब्रिटेन के बच्चों का गांधी में रुचि होना मेरे लिय एक सुखद आश्चर्य था। शायद यह गांधी के बड़े सम्भावना का सूचक है; दुनियाँ की ज़रूरत का सूचक है।

इस घटना ने मुझे अपने गाँव और शहर के बच्चों की याद दिलाने लगा और मुझे लगा कि शायद ही कोई है उन्हें यह बताने के लिय कि गांधी हमारे समाज का एक आदमी था जिसने कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। इसलिय मैं ने अपने अनुभव को सहेजने का तय किया। अकादमिक तौर पर शायद इतना महत्वपूर्ण न भी हो, लेकिन यदि इसे पढ़ कर गांधी को खोजने का मन करने लगे तो मैं संतुष्ट हो जाऊँगा।

वैसे एक अकादमिक महत्व की बात भी इस पुस्तक से जुड़ी है। मुझे यह लगने लगा है कि हमारा समाजशास्त्र एक छलावा है। इसका आधार मनुष्य के अवास्तविक अवधारणा पर टिका है जिसके मूल में डेकर्त के मानस और शरीर का द्वंद्ववादी दर्शन है और वास्तविकता को भौतिक और आध्यात्मिक में बाँट कर देखे जाने की परम्परा है। इस दर्शन पर टिका है आधुनिक विज्ञान का दर्शन और उस पर टिका है समाजशास्त्र का दर्शन। ऐसा समाजशास्त्र न हमें समाज की सही समझ दे सकता है न ही समाज में कुछ मानवतापरक बदलाव ही ला सकता है। ऐसे समाजशास्त्र केवल राज्य को ताक़तवर बनाता है, क्योंकि उसे समाज पर अंकुश लगने का ज्ञान देता है।इसका क्या कारण हो सकता है? ऐसी बिडंबना क्या है कि भारत के जिन चिंतकों ने समाज के अपने समझ के द्वारा उपनिवेश्वादी ताक़तों से लड़ाई की, सामाजिक सुधार आंदोलन चलाया, लोगों के सोचने के तरीक़ों में भारी परिवर्तन लाया, स्वतंत्रतापूर्व के विश्वविद्यालयों के ज्ञान विमर्श में उन्हें सही जगह नहीं मिली? जिनके दर्शन ने विशाल सामाजिक परिवर्तन लाया क्या उन्हें समझे बिना हम किसी रचनात्मक समाजशास्त्र की बात भी कर सकते हैं? इन सवालों के उत्तर कई तरह से दिए जा सकते हैं। मेरी समझ में, उपनिवेश्वाद ने हमारे समाज को बौद्धिक तौर पर ग़ुलाम बनाने का प्रयास किया। स्वतंत्रता संग्राम में इस प्रकिया की एक समझ बन पायी और इसके विरोध में विचारों के स्वराज की घोषणा की गई। लेकिन स्वतंत्रता के बाद ज्ञान सृजन की प्रकिया की मुक्ति के लिय संघर्ष का सम्बंध विच्छेद हो गया। हम राजनैतिक स्वतंत्रता की लड़ाई तो जीत गए लेकिन बौद्धिक स्वराज की लड़ाई हार गए। हम अभी भी उपनिवेश्वादी ताक़तों को अपने से ज़्यादा विकसित और बौद्धिक तौर पर प्रबुद्ध मानते रहे।


इस छोटे से क्षेपक के बाद वापस भारतीय विश्वविद्यालयों में गांधी जैसे चिंतकों से संवाद के अभाव के कारणों के विचार पर आया जाए। इसी संदर्भ में मैंने यह बात कही है कि हम एक तरह से पश्चिमी जगत के ज्ञान के चकाचौंध में जी रहे हैं। विज्ञान के क्षेत्र के उनके विकास को उनका सर्वांगीन विकास मान ले रहे हैं। उनके उपलब्धियों को तो सही मानते ही हैं, उनकी कमियों को भी अनुकरणीय मान लेते हैं।ऐसा मनना बहुत ग़लत भी नहीं है कि आधुनिक भारतीय विश्वविद्यालयओं में एक तरह के नक़ल की परम्परा चल पड़ी है। इस नक़ल से विज्ञान में तो कुछ हासिल हो भी सकता है, दर्शन और समाजशास्त्र में बहुत कुछ मिल पाना मुश्किल ही लगता है। नक़ल की इसी परम्परा ने गांधी, अम्बेडकर, टैगोर जैसे चिंतकों को विश्वविद्यालीय व्यवस्था से दूर रखा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन चिंतकों ने भारतीय समाज की आत्मा को समझने का प्रयास किया और उसमें आ गए ठहराव से निकाल कर उसे गतिशीलता प्रदान की। इस गतिशीलता ने भारतीय सामज को उपनिवेशवाद के विरोध में संघर्ष के लिय ऊर्जा प्रदान किया और साथ ही अपने इतिहास से निकाल कर नए वर्तमान की ओर अग्रसर किया। लेकिन स्वतंत्रता के बाद के ज्ञान सृजन की प्रक्रिया उस सामज़िक परिवर्तन के उद्देश्य से भटक गया जिसने इन चिंतकों को आंदोलित किया था। ऐसे में जब समाजशास्त्री इन चिंतकों को पश्चिमी मापदंड पर परखने की कोशिश करते हैं तो इनके विचारों से उनका प्रभावित होना मुश्किल हो जाता है।


विश्वविद्यालयों में भले ही गांधी को महत्व नहीं दिया गया हो, लेकिन क्या समाज में गांधी की उपस्थिति रही है? क्या गांधी ने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया है? क्या इस प्रभाव को देखपाना सम्भव है? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का एक तरीक़ा तो यह हो सकता है कि हम कोई सर्वे करें, लोगों से बातचीत करें और फिर प्राप्त उत्तर को कुछ प्रामाणिक तौर सामने रखें। ऐसा किया तो जा सकता है और मैं करना चाहता भी हूँ क्योंकि तभी हम गांधी बनने और उसके प्रभावकारी होने की प्रक्रिया को ठीक से समझ सकते हैं। लेकिन इसके लिय समय और साधन की जो आवश्यकता है, अभी मेरे पास नहीं है। इसलिय मैंने यह तय किया है कि मेरी अपनी ज्ञान यात्रा के अलग-अलग पड़ाव पर जिस तरह से गांधी से सामना हुआ है पहले उसे ही समझ लिया जाए। गाँव के एक छोटे से विद्यालय में अध्ययन से लेकर दिल्ली विश्व वदयालय में अध्ययन और अध्यापन और अंत में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में अध्यापन तक की मेरी यात्रा बहुत छोटी भी नहीं रही है। लगभग पचास साल की इस यात्रा में आसप्पस गांधी की उपस्थिति से जिस तरह मेरा अपना ही सामना हुआ है उसे भी एक तरह के शोध सामग्री की तरह देखा जा सकता है। इस सामग्री का उपयोग मेरे लिय सहज भी है और प्रामाणिक भी।

इस यात्रा के कई पड़ाव हैं। यहाँ उनका संक्षेप में ज़िक्र करना उचित होगा, ताकि इस यात्रा के एक झलक मिल जाय। मैं अपनी यात्रा के शुरुआत छोटे से विद्यालय से करना चाहता हूँ। सत्तर के दशक में इन विद्यालयों में गांधी जयंती एक ख़ास तरीक़े से मनाया जाता था। उसी समय इसमें बदलाव भी आना शुरू हो गया था। शायद पहले शिक्षकों और बच्चों में गांधी जयंती एक आंतरिक उत्साह पैदा करता था, लेकिन धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता रह गई।

कक्षा छह में मुझे एक गाँव के विद्यालय के छात्रावास में डाल दिया गया। यहाँ गांधी न केवल दैनिक जीवन में उपस्थित थे बल्कि शिक्षकों की प्रतिबद्धता में गांधी को आप देख सकते थे। यह अद्भुत विद्यालय था गाँव से दूर खेतों के बीच बने इस विद्यालय को आदर्श विद्यालय की संज्ञा दी गई थी। अद्भुत प्रतिबद्धता थी शिक्षकों में। अपने गणित के शिक्षक मौलवी वसारत क़रीम की मुझे बहुत याद आती है। औपचारिक पढ़ाई ख़त्म होने के बाद उनका काम फिर शुरू हो जाता था। चुने हुय छ्त्रों के पीछे लग जाते हटे। ‘चक्रवर्ती’ के नाम से प्रसिद्ध गणित की किताब जैसे उन्हें याद हो और उस हमारी बुद्धि में घुसा देना चाहते हों। लगे रहते थे लगातार। उनके प्रतिबद्धता के पीछे प्रेरणा क्या थी? उस वक़्त तो हमें पता ही नहीं चला। आब सोचता हूँ कि शायद गांधी उन्हें प्रेरित करते हों। खादी का सफ़ेद कुर्ता और पजामा, गले में एक चेक ग़मछा। हमेशा सवालों को बताने के लिय तत्पर, जैसे राष्ट्र निर्माण का उनका यही तरीक़ा था। और भी कई शिक्षक थे, अवकाशप्राप्त कर घर नहीं जाते थे। वहीं गांधीवादी तरीक़े से रहते थे। अब हमें लगता है कि जिसने भी इस विद्यालय की कल्पना की होगी निश्चितरूप से गांधी के दर्शन से प्रभावित थे।


फिर इस विद्यालय से एक और सरकार द्वारा संचालित पब्लिक स्कूल के छात्रावास में गया। इस विद्यालय की स्थापना ही गांधी-नेहरु के वैचारिक पृष्ठभूमि में हुआ था और इसलिय उन मूल्यों का आभास मिलना मुस्किल नहीं था। होस्टल की जगह आश्रम थे, आश्रमाध्यक्ष श्रीमान जी और उनकी पत्नी माता जी थीं। खादी पहनना, आश्रम की सारी सफ़ाई ख़ुद करना, बिलकुल गांधीवादी जीवनचर्या, काहसियत थी इस विद्यालय की। इसकी स्थापना में एक अंग्रेज़ एस0 जी0 पीयर्स0 का अबड़ा योगदान था। उन्होंने भारत के अन्य विद्यालयों को भी बनाया था, जैसे: सिंधिया, कृष्णमूर्ती फ़ाउंडेशन, दूँ स्कूल आदि। लेकिन सुना है कि यह विद्यालय उनका सपनों का साकार होना था। शुरू में जितने शिक्षक यहाँ आए उसमें नेहरु जी का बड़ा सहयोग था। जीवन नाथ दर ने तो असी के उम्र में आकर हमें छाओ ‘चले गाँव की ओर’ का नारा दे कर हमें आंदोलित ही कर दिया था।

यहाँ से निकलने के बाद फिर कॉलेज में आया, जहाँ गांधी दिखते ही नहीं थे और न ही उनके मूल्य दिखते थे। लगता था जैसे गांधी कभी हुए ही नहीं। बहुत ही हिंसक समय था, छात्रों और शिक्षकों में अविश्वास भरा था। यहाँ से दिल्ली विश्वविद्यालय आना हुआ, और फिर गांधी की जगह मार्क्सवाद ने ले लिया। यहाँ तक नक्सलवादी तर्क भी प्रभावित करता रहा। लगभग रोज़ बहस होता था शिक्षकों और दोस्तों के बीच। पूरा कन्फ़्यूज़न था। उसे विश्व विद्यालय के एक कॉलेज में शिक्षक भी हो गया। यहाँ तक कि वहाँ पढ़ाने के क्रम में भी गांधी ने कभी आकर्षित नहीं किया। हाँ एक शिक्षक थे रणधीर सिंह। कट्टर मार्क्सवादी थे। अद्भुत शिक्षक थे और दिल्ली विश्वविद्यालय में लोकप्रिय होने के साथ-साथ बहरत के बड़े बुद्धिजीवियों में गिने जाते थे। गांधी की आलोचना तो करते थे लेकिन उन्हें महत्वपूर्ण मानते थे। उनहिने संवाद पर ज़ोर दिया। किसी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या गांधी मार्क्सवादी था? क्या वह उदारवादी था? क्या आज के संदर्भ में गांधी का कोई महत्व है?’ उनका उतार अद्भुत था: ‘गांधी न तो मार्क्स वादी थे, न ही उदारवादी थे और इसलिय आज के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण हैं।” यहाँ से गांधी को और समझने की इच्छ जागृत हुई।

तभी संयोग से आख़िरी पड़ाव, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आना हुआ। यहाँ थोड़ा ठहराव आया। यहाँ तो मार्क्स और गांधी के अलावा अम्बेडकर भी उपस्थित थे। अब तक अम्बेडकर कोई ख़ास पाला नहीं पड़ा था। दिल्ली विश्वविद्यालय में आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान थोड़ा पढ़ना तो शुरू किया था, लेकिन कोई ख़ास प्रभावित हुआ हो ऐसा नहीं कहा जा सकता है। यहाँ आकर तो भारतीय राजनीतिक चिंतन और भारत में जनांदोलन जैसे पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के दौरान चिंतन का मौक़ा मिला और दृष्टिकोण बदलने लगा। फिर गांधी, मार्क्स और अम्बेडकर को एक साथ पढ़ाने के लिय एक कोर्स पढ़ाने लगा। यह तो पढ़ने-पढ़ाने की यात्रा थी। लेकिन इसके साथ ही शोध यात्रा की भी शुरुआत हुई, संयोग से कई ऐसे छात्र मेरे साथ आए जिन्हें गांधी में रुचि थी। और फिर सिलसिला शुरू हुआ गांधी को नज़दीक से देखने का। विज्ञान, पानी, हिंसा, धर्म, किसान आदि कई मुद्दों पर मेरे साथ शोधकर्ताओं ने मेरा बहुत ज्ञानवर्धान किया। मैं अपनी इस यात्रा के कहानी कहना चाटा हूँ, ताकि पढ़नेवालों को भी यात्रा का आनंद मिल सके। विचार यात्रा में यदि कहीं बहस की गुंजाइस है तो वहीं से गांधी पर नए शाइअर से सोचने के लिय ऊर्जा भी मिल सके।

अक्टूबर 2017 में प्रकाशित


लेखक समाजशास्त्री और जेएनयू में प्राध्यापक हैं |
सम्पर्क - +919968406430 , manindrat@gmail.com

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