बुद्ध, गांधी और हाशिए की आवाज
ईश्वर दोस्त
भारत की जिन शख्सियतों ने सारी दुनिया को प्रभावित किया,
उनमें निर्विवाद रूप से दो नाम उभरते हैं। ये हैं गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी। बुद्ध
के बाद जिस भारतीय ने बड़े पैमाने पर दुनिया को अभिभूत किया, वेमहात्मा गांधी हैं।
नेल्सनमंडेला, मार्टिनलूथरकिंग जैसे उनके अनुयायियों की विश्व इतिहास में अनूठी
जगह है। मनुष्य और मनुष्य के बीच की हिंसा तथा प्रकृति और मनुष्य के गड़बड़ाते
संबंधों के बीच गांधी आज भी उम्मीद हैं। गांधी के प्रति दुनिया के राजनीति
विज्ञानियों, इतिहासकारों और दर्शनशास्त्रियों का आकर्षण तो बढ़ा ही है, सामाजिक व
राजनीतिक कार्यकर्ता और लेखक, कलाकार भी गांधी की छवि की ओर खिंचे हैं।
बुद्ध और गांधी दोनों ने करूणा और अहिंसा के संदेश दिए। दोनों
अकादमिक अर्थ के विचारक नहीं थे, बल्कि साधारण जन-जीवन को बड़े पैमाने पर प्रभावित
कर रहे थे। दोनों ने जो कहा उसे जिया भी। दोनों ने नैतिक जीवन कैसा होना चाहिए, इस
प्रश्न को एक सार्वजनिक आंदोलन में तबदील कर दिया। बुद्ध और गांधी सैंकड़ोंसालों
के अंतराल में पैदा हुए। मगर दोनों के बीच समानताओं का सिलसिला सिर्फ यहीं खत्म
नहीं होता!
दोनों के बीच एक बड़ी समानता यह भी है कि बुद्ध और गांधी भारत
के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में धीरे-धीरे किनारे कर दिए गए। बुद्ध धर्म पूरे एशिया
में फैल गया और पश्चिम को भी बुद्ध दर्शन और इसकी आध्यात्मिकता ने बड़े स्तर पर
प्रभावित किया। मगर भारत में बुद्ध विचार और धर्म हाशिए पर चला गया।जिस बुद्ध धर्म
और विचार को विश्व को भारत की देन के रूप में जाना जाता है, उसकी स्वयं भारत में
उपस्थिति सबसे क्षीण हो गई। हालांकि आजादी के आंदोलन के दौरान बुद्ध एक बार फिर
क्षितिज पर उभरते दिखाई दिए हैं। उसी दौरान धर्मानंदकोसांबी, राहुल सांस्कृत्यायन
और भदंत आनंद जैसे मनीषी पैदा हुए। और यह सिलसिला नवयान से होता हुआ आज तक जारी
है। मगर आज भी वैश्विक स्तर पर बुद्ध विचार पर जितने शोध हो रहे हैं और उन पर
विमर्श हो रहा है, उनमें भारत का अनुपात बेहद कम है।
इसी तरह गांधी की ख्याति भारत को लांघते हुए विश्व पटल पर
आजादी की लड़ाई के दौरान ही पहुँच चुकी थी। दुनिया के हजारों बुद्धिजीवियों,
महापुरूषों ने गांधी की आवाज को सुना और उसके मर्म को समझने की कोशिश की। मगर भारत
में गांधी पहले शारीरिक रूप से खत्म कर दिए गए। फिर उनकी मानसिक उपस्थिति भी
दीर्घकालीन दुरभिसंधियों के कुचक्र के हवाले होती गई। यहाँ यह साफ करना जरूरी है
कि गांधी से असहमत होना एक बात है, और उन्हें घृणा का पात्र बनाना एकदम दूसरी।
गांधी आलोचना के पात्र हों, यह स्वयं गांधी चाहेंगे। लेकिन गांधी वध क्यों जरूरी
था, इस संदेश का प्रचार-प्रसार करना गांधी से असहमत होना भर नहीं है।
आजाद भारत में गांधी सड़कों के नाम-पट्टों, जड़ी हुई
तस्वीरों और सरकारी रस्म-अदायगी में सिमटते चले गए। पूँजीवादी विकास के जिस रास्ते
पर आजाद भारत की सत्ता चली, उसमें आखिरी आदमी की बात करना अटपटा था भी। मध्यवर्गीय
भारत के लिए गांधी आदर का कम मजाक का विषय ज्यादा बनते गए। यह मध्यवर्ग जब उपभोग और
नफरत की जुगलबंदी के आज के दौर तक पहुँचा, तब गांधी असहनीय होने लगे। इस बीच जिन
विचारों ने गांधी की शारीरिक हत्या की थी, वे ताकतवर हो रहे थे और अंतत: वे विकास के
झंडाबरदार भी हो गए। विडंबना यह है कि इन विचारों के कुछ समर्थक लंबे समय तक गांधी
विचार का मुखौटा ओढ़े रहे।
आशीष नंदी ने हाल ही में कहा था कि महात्मा गांधी अब
राष्ट्रपिता नहीं बल्कि सौतेले राष्ट्रपिता बन गए हैं। राष्ट्रपिता के रूप में
उनकी जगह सावरकर ने ले ली है। हमारे समय को समझने के लिए यह एक बड़ा रूपक है। गांधी
से सावरकरतक की यात्रा प्रेम व अहिंसा से घृणा व हिंसा की ओर की यात्रा ही नहीं
है, बल्कि यह ताकत के भौंडे प्रदर्शन और टेक्नोलॉजी के उन्माद की तरफ की यात्रा भी
है। एक तस्वीर के रूप में गांधी आज भी सरकारी विज्ञापनों, बैनरों और मुद्राओं पर
हैं, मगर उनकी आवाज म्यूट कर दी गई है या फिर उसे कर्कश कोलाहल में दबा दिया गया
है। सरकारी हलकों में गांधी एक बेजुबानतस्वीर हैं।
कहा जा सकता है कि भारतीय जन-जीवन में गांधी की जगह अब हाशिए
पर है। यह उल्लेखनीय है कियही गांधी हाशिए की आवाज हैं। गांधी विस्थापन, पर्यावरण,
नागरिक अधिकारों जैसे मुद्दों पर केंद्रित सैंकड़ों जन आंदोलनों की भीतरी ताकत
हैं।गांधी नर्मदा घाटी से लेकर कुडनकलमतक हैं। गांधी सांप्रदायिक घृणा अभियानों से
गहरा रहे अंधेरे के खिलाफ लामबंद होते लोगों के लिए एक टिमटिमाता दिया भीहैं।
भारत के जनमानस का गांधी से ओतप्रोत होना;फिर उनका हाशिए पर
चला जाना और अंतत: “गांधी वध क्यों’ वाले विचारों का गद्दीनशीं होना, यह सब काल के
एक छोटे खंड में घटित हुआ है। मगर जिस तरह बुद्ध विचार पूरी तरह विलोपित नहीं किए
जा सके, उसी तरह गांधी की उपस्थिति सतह पर भले ही नहीं, मगर सतह के कहीं नीचे भारत
के सांस्कृतिक मन की अंतर्धाराओं में लगातार बनी हुई है।
और यह उपस्थिति कभी भी उभड़ कर ऊपर आ सकती है, फिर से
जन-जीवन को आलोड़ित करने, एक नया नैतिक आंदोलन खड़ा करने। भारत के एक राष्ट्र के
रूप में नवनिर्मित होने की प्रक्रिया के ईंट-गारे में गांधी इतने ज्यादा रचे-बसे
हैं कि स्वाधीन व लोकतांत्रिक भारत की पक्षधर कोई भी विचार सरणीन तो गांधी से एकदम
निरपेक्ष हो सकती है और न उनकी कट्टर विरोधी। गांधी के विरोध में जाने का अर्थ
भारत के उस विचार के खिलाफ जाना है, जो राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दौरान पैदा
हुआ। एक अहिंसक, स्वावलंबी, न्यायपूर्ण और समावेशी भारत का विचार।
गांधी गांधीवाद की किसी चौहद्दी में नहीं समाते। न्याय,
शांति और बराबरी का सपना देखने वालों में हमेशा ही बहुत से मतभेद होंगे।
प्राथमिकताओं, कार्य पद्धतियों में भिन्नता होगी। यदि भारत के विचार से खुद को
जोड़ता है और फिर भी गांधी की किसी बात से असहमत होता है तो उसके विचार को गंभीरता
से लिया जाना चाहिए। इन असहमतियों को आपस में बतियाना चाहिए—बहुलता, भिन्नता,
सहिष्णुता जैसे मूल्यों को मजबूत करने के लिए भी।असहमति, संवाद और घृणा के फर्क को
हमें समझना होगा।
अक्टूबर 2017 में प्रकाशित |
अक्टूबर 2017 में प्रकाशित |
पेशे से व्याख्याता। लंबे समय तक पत्रकारिता की। जनसत्ता में रहे। सामाजिक आंदोलनों से जुड़ाव रहा। सम्पर्क - ishwardost@gmail.com
No comments:
Post a Comment