ग्राम-ज्ञान व्यवहार : अयाची, लोक और सरिसब
सविता खान
आजादी पूर्व जब
हम भारत की ज्ञान परंपरा की तहकीकात करते हैं तो भारत के गिने चुने नवोदित शिक्षा
केंद्रों से कहीं व्यापक और प्रशस्त परिवेश गांव-गांव में फलफूल रहा था। इसी
ग्रामीण सन्दर्भ में यहां उत्तर बिहार के
प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र मिथिला की
गिनती और जिक्र इसलिए आवश्यक है क्योंकि भारत के
प्रमुख दार्शनिक धाराओं जैसे न्याय और मीमांसा, वैशेषिक और वेदांत दर्शन परंपरा के साथ ही संकृत व्याकरण
वैकासिक दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण और विख्यात रहा है |
भारतीय दर्शन
परंपरा यहां की खालिस ग्रामीण क्षेत्रों से जन्मे थे उनका अस्तित्व न्याय की भूमि
और केंद्र रहे मिथिला में इसकी अधोगति जारी है| इसका जाहिरी असर सिर्फ
संस्कृत भाषा के विनाश में ही नहीं बल्कि
उससे उपजे समस्त ज्ञान परंपरा के विनाश में देखा जा सकता है| जर्मनी में हाय्डेलबर्ग विश्वविद्यालय में
इंडोलोजी विभाग के प्रमुख प्रोण् एक्सेल
मायकेल हैरत में दीखते हैं कि राजनीती और एक खास विचारधारा की आड़ में एक समस्त
ज्ञान परंपरा को ख़त्म कर देना कितना त्रासद है, साथ ही आजाद
भारत के खड़े हो रहे नये मंदिरों में गांव की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं की गई, उद्योग धंधों की सफलता के
इर्द गिर्द जिन शहरी विकास के प्रारूपों का निर्माण किया गया उसमें गांधी
के स्वराज के मूल कर्णधार गांव कहीं पीछे धकेल दिये गये, अब उन्हें मात्र कृषि क्षेत्र मान बाकी सारे सभ्यता मूलक
गतिविधियों यथा ज्ञान परंपरा और भाषाई विकास की परिकल्पना से बाहर कर दिया गया। यह
जिक्र करना भी यहां जरुरी होगा कि आखिर इस
ज्ञान परंपरा का स्वरूप लोकोन्मुखी था या नहीं, पुराण और उपनिषदों की व्याख्या यहां लोक धर्म के अनुसार
किया जाता रहा है इसका प्रमाण हमें याज्ञवल्क्य स्मृति(इसी पर लिखी टीका मिताक्षरा से आज भी संपत्ति सम्बन्धी
विवादों में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती है,निर्णय लिया जाता है, याग्यवलक्य की भूमि भी मिथिला ही मानी जाती है) में मिलती
है |
धर्मस्य निर्णयो
ज्ञेयो मिथिला व्यवहारतः दृ याज्ञवल्क्य स्मृति(धर्म के निर्णय को समझना हो तो मिथिला के व्यवहार को देखना
होगा, साबित करता है कि सामान्यतया इस प्रदेश में
प्रचलित ज्ञान परंपरा अंततः कोई निर्जीव वस्तु नहिं होकर लोक व्यवहार में
परिलक्षित थी और इसके लोकोन्मुखी होने के कई आख्यान हमें वहां की प्रचलित किस्सों
में मिलता है|
मिथिला के
कलेक्टिव विजडम, विपन्नता का विलास और
कॉमन रिसोर्सेज के स्वतः स्फूर्त लोक उत्पत्ति का बड़ा ही रोचक नमूना था, यह खिस्सा सरिसब गाँव
के दग्धरिध्चमैनिया पोखरि के उत्त्पति का था, कई परतों और
प्रतीकों से गुजरता यह किस्सा(अयाची मिश्र, शंकर मिश्र, चमैन, दान) अंततः जल के श्रोत पर ठहर गया कि कैसे एक चमैन ढेर
सारा धन मिलने पर चूँकि अपने मूल गुणों(स्किल) से च्युत होना नहीं चाहती, वह पोखरि खुदवा कर अंततः एक सर्वसामान्य के हित में निर्णय
लेती हैप् आखिरकार दर्शन का इससे उजागर चरित्र हम कहाँ और किनप्रकरणों में तलाश सकते हैं जहाँ जनसामान्य
का जीवन एक दर्शन, नीति(एथिक्स) से चलता होघ् संभवतः इतनी स्वायत्तता
बिरले ही आज कोई विश्वविद्यालय वा शैक्षणिक संस्था सीखा पाए प् मसला यह है कि यह
लेयर्ड विजडम गया कहाँघ् तालाब कहाँ गए और जातिगत प्रपंचों को इन जैसे प्रकरण
क्यूँ नहीं दिशा दिखा पाएघ् कभी पौराणिक ग्रन्थ देवी भागवत मे मिथिला के प्रजा के
सदाचारऔर समृद्धि का मनोरम वर्णन किया गया है :-
प्रविष्टो मिथिला
मध्ये पश्यन् सवर्द्धिमुत्तमाम्।
प्रजाश्च
सुखिताः सर्वाः सदाचाराः सुसंस्थिता ॥
आज जब इस कृषिप्रधान, श्कृषिश्क्रांतिश् वाले दार्शनिक देश में कृषि, कृषक और विद्या तीनों ही अपनी अत्यंत अधम दशा में हैं तो
सवाल लाज़िमी है कि यह ह्रास कहाँ और कब से आया। जिस देश में जनक और विदेह जैसे
अद्भुत नामकरण रहे हों, जनक जो हर किसी
को जन्मने जैसा दायित्व बोध से प्रेरित हो और विदेह, जिसका अपनाए स्व
कुछ भी न हो और वो राजा हो, हल तक चलाता हो, बेटी को ज़िंदा खेत में गारता न हो, बचाता होप्कुछ परिवर्तन जो बुद्धिजीवियों ने षड्यंत्र के
तहत किये जैसे ग्यारह्न्वीं शताब्दी से धर्मशास्त्र का पक्ष प्रबल होता चला गया, ऐसे में 13-14 वि शताब्दी तक विद्याओं का वर्टीकल वर्गीकरण कर दिया गया, हॉरिजॉन्टल वर्गीकरण तो प्राचीनकाल से था मगर उसमें कोई भी
व्यवसाय वा विद्या मुख्य या गौण नहीं था, पर अब कृषि और
अन्य सेक्युलर वृत्तियों को गौण कर दिया गया, इसी काल से एक
संस्कृत कहावत भी हैरू ष्शाश्त्रेषु नष्टः कव्यो भवन्ति, काव्येषु नशटाश्च पुराण प्रथाःए तत्रापि नष्टाः कृषिम
अश्रायन्तेह, नष्टाः क्रिष्टेर भागवत
भवन्तिष् अर्थात वर्गीकरण में शाष्त्र, काव्य शाष्त्र, पुराण प्रवचन, कृषि कार्य और
जो कुछ भी ना कर सकें वो साधू बनेंगे, जब कृषि पर ही
पूरा समाज टिका हो ऐसे में इस विद्या को ही गौण कर देना रुग्णता ही थी, जबकि जनक का स्वयं हल चलाने का लीजेंड इस बात का द्योतक है
कि कृषि विद्या का सम्मान अन्य विद्याओं के समान ही था जो मध्य युग आते आते हल
छूना भी ब्राह्मण का पाप मान लिया गया, कृषि विद्या
आधारित ग्रंथों में कृषि पराशर( दसवीं सदी)
केपश्चात् शायद ही कोई ग्रन्थ की भी रचना हुई होए पर जनक का हल प्रकरण एक अद्भुत
मैसेज है आज के सिंघासनाधीन राजाओं केलिएप् साथ ही एक उ)रण से समझा जा सकता है कि
आखिरकार इन राज्यों में किसी विद्या का पोषण था या नहीं यदि था तो उसका स्वरुप
कैसा थारू
इत्येते
मैथिलारू। प्रायणैते आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति।
अर्थात् (यह समस्त मैथिल भू-पालगण हैं ए प्राय: ये
समस्त वर्ग ष्आत्मविद्याष् को आश्रय देनेवाली प्रवृत्ति के हैं ) तो आखिकार
यह समझना होगा की यह आत्मविद्या क्या थी, कहाँ लोकेटेड थी
और क्या इसका स्वरुप इतना लिबेरेटिंग था कि समस्त विश्व में चल रहे आत्मा-शरीर के
द्वैधता समझ से उपजे क्राइसिस(कार्तेसियन
द्वैधता) को एक समाधान दे सके और क्या इस सबके केंद्र रहे मिथिला और उसके ज्ञान
परंपरा, व्यवहार विज्ञान और लोकोन्मुखी प्रवृत्तियों
से ही गाँधी का उपनिवेश को दिया जा रहा ग्राम स्वराज जैसा इंक्लूसिव, सभ्यतामूलक डिस्कोर्स अपनी नियति को प्राप्त कर पायेगाघ्
संभवतः मिथिला के गांवों में पिछले सदी तक फल फूल रही, स्वायत्त ज्ञान परंपरा जो कुछ खास गाँव में कम से कम
संसाधनों में नैयायिकों और मीमांसकों के घरों से चलती थी उसमें राज्य वा कोई अन्य
सत्ता न तो पाठ्यक्रम तय कर रहा था न ही डिग्री और परीक्षा का यह विकृत, जानलेवा, बाजारोन्मुखी, भौतिकवादी स्वरुप
कहीं से भी ग्रामीण लोक समाज पर इस कदर हावी था कि आज की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी
को महामारी बना दे, अपेक्षा ज्ञान संकलन और
आत्मविद्या से परिमार्जन की थी महज रोजगार की नहीं ए मनुष्य को, युवा को महज रोजगार का माध्यम नहीं समझा जा रहा था, इसी ज्ञान परंपरा के ह्रास से संभवतः राज्य, रोजगार और शिक्षा को आवंटन करने वाली प्रबल शक्ति बनती चली
गयी और लोक की, गांवों की स्वायत्तत्ता
अपनी आत्मविद्या के बल पर कभी एक पुख्ता रिस्पांस नहीं खड़ा कर
पायी जो राज्याश्रय के बिना भी अपनी ज्ञान परंपरा को अक्षुण्ण रख सकता था और आज हालत यह है कि हम दान नहीं अनुदानों के कुचक्र में अपनी स्वयत्तता को तलाशने
का भागीरथ और असफल प्रयास कर रहे हैं|
पर इन्हीं विषम परिस्थितियों में
जब मिथिला के एक गाँव सरिसब-पाही और उसकी संस्था अयाची डीह विकास समितिए कुछ
ग्रामीण नैयायिक विद्वान और वहां के आम लोग जब अपने ज्ञान परंपरा के मूल को लेकर ,क भागीरथ प्रयास (कार्यक्रम का आयोजन सरिसबपाही गाँव की संस्था
ष्अयाची डीह विकास समितिष् ने किया था,भारतीय दर्शनों
के प्रसिद्ध विद्वान पंडित किशोर नाथ झा
इसके अध्यक्ष थे और श्री नविन जायसवाल
और श्री अमल कुमार झा संयोजक)करने को अग्रसर हुए जिसमें उन्होंने भारत भर से न्यायशाष्त्र से
प्रकांड विद्वानों को इकठ्ठा कर चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध मैथिल विद्वानों अयाची(भवनाथ मिश्र) और शंकर मिश्र( इनके गाँव सरिसब में इनका चौपाड़ी(गाँव के बीच बसा एक ओपन स्पेस) ही इनका ज्ञानकेंद्र था, किसी भवन, राजभवन और राज्य
के इंफ्रास्ट्रक्चर पर आश्रित हो इनकी ज्ञान परंपरा ने दम नहीं तोडा बल्कि गाँव के
खुले परिवेश में बिना किसी बंधन, भेदभाव की बाध्यता के बगैर उनके ज्ञान का विमर्श चलता रहा) पर परिचर्चा और चमैनिया डाबर(तालाब) पर सितम्बर(9-10 सितम्बर) माह में
विमर्श का केंद्र बना तो आशा जरूर
बनती है कि न तो भारत के गाँव मरेंगे, न उसकी लोक
उर्जा कम होगी और न ही वहां की ज्ञान परंपरा के आत्मविद्या तत्त्व के प्रति विश्व
का रुझान कभी कम होगा क्यूंकि गांधी का भारत वहीँ साकार है और इसी ज्ञान परंपरा को
गाँधी ने ष्सुन्दर वृक्षष्(अ ब्यूटीफुल ट्री)
कहा था जिसमें उपनिवेश के प्रतिरोध का भरपूर बीज छुपा था और जो आज के भी नव
उपनिवेशवाद का एक व्यापक रिस्पांस(प्रत्युत्तर)
देने की माद्दा रखता है बशर्ते कि ज्ञान परंपरा को उसके मूल ग्राम्य परिवेश से
जोड़कर ही किसी विकास का मॉडल तैयार होप् सवाल यह भी है कि पंद्रहवीं सदी के शंकर
मिश्र के चौपाड़ी जैसे ज्ञान परंपराए शिक्षा के
प्रारूप पर अभी तक विमर्श क्यूँ नहिं हो रहा, क्यूँ आज के
राज्य और लोक ऐसे ओपन स्पेस की स्वायत्तता को मूल्य नहीं दे रहेघ् आखिरकार एक गाँव
और उसके ग्रामीणों के कलेक्टटिव विजडम ने ही इतना बड़ा बीड़ा उठाकर यह साबित किया है
कि गाँव अभी मरे नहीं और शंकर मिश्र का चौपाड़ी अपना स्वरुप बदल कर ही सही फिर से
ज्ञान परंपरा का केंद्र बनने की क्षमता रखता है वहीँ कुछ अवलोकन हैं जो सरिसब
यात्रा (जिसमें जवाहर लाल नेहरू वि0 वि0 से प्रोफेसर
मनीन्द्र नाथ ठाकुर के साथ ही प्रोफ़ेसर
अख़लाक़ अहमद, ष्सेंटर फ़ोर
स्टडीज ओफ़ नॉलेज एंड ट्रेडिसनष् के अमित आनंद, पानी की समस्या पर काम करनेवाले और ष्वाटर मैन ओफ़
इंडियाष् के नाम से प्रसिद्ध राजेंद्र सिंह के संगठन से जुड़े पंकज कुमार भी हमारे
साथ थे) के उपरांत जन्मे, पहला यह कि इस
पूरे आयोजन ने ज्ञान प्रकरण की खोज और उत्सुकता में एक नए मॉडल की स्थापना की, जिसमें आयोजन का समस्त खर्च सरिसब और आस पास के ग्रामीणों
ने अपने संगृहीत पैसे से वहन कर यह साबित किया कि गाँव अभी भी संकल्प और स्व-निर्भरता
में काफी आगे खड़े हैं(सरिसब गाँव की ही साहित्यिकी नामक संस्था
साहित्य के प्रकाशन और प्रचार- प्रसार में
स्व-निर्भरता के मिसाल पहले कायम कर चुकी है), दूसरा कि
ग्रामीण स्तर पर अपनी ज्ञान परंपरा को रिक्लेम करने की चेतना और प्रयास दोनों ही
सफल दिशा में परिवर्तित हो सकते हैं, पर कुछ
बिन्दुयें हैं जो विचार- विमर्श योग्य हैं |
क्या ज्ञान परंपरा मात्र शाश्त्रीय अध्ययन तक
सिमित है, इसका कन्वर्जन क्या लोक मानस और चेतना तक हो
पा रहा है या फिर यह सिर्फ ज्ञान को ,क दूरस्थ आकर्षण
तक ही सिमित तक उसे अनुपयोगी बना देगाघ् फिर सवाल यह है कि इन शाश्त्रीय दर्शनों
की उपजाऊ भूमि में इस ज्ञान को लोकेट कहाँ किया जाए, क्या यह सचमुच
मर चूका है या महज अपने रूप-भाषा
सम्प्रेषण को अनुदित कर लोक के एक विशाल संसार में मुहावरा, फकरा,खिस्से, अन्य व्यवहारपरक कर्मों में दैनिक प्रचलन में अभी भी जिन्दा
है और हम उसे मरा समझ विलाप किये जा रहे हैं, ऐसा मुझे खासकर एक प्रसिद्द नैयायिक
की सहधर्मिणी के उस वक्तव्य से कौंधा जब वह यह कह रहीं थीं कि उन्हें दर्शन का कोई
ज्ञान नहीं, यह आश्चर्यजनक था जबकि
दर्शन उनके घर का दैनिक विमर्श-कर्म है, या तो जिस तरह से अप्रत्यक्ष तौर पर वह लौकिक व्यवहार में
उस दर्शन-समझ को प्रतिदिन उतार रहीं हैं वह भी दर्शन ही है यह समझ नहिं बन रही या
फिर दर्शन का व्यवहारिक पक्ष क्या और कैसा होगा यह तय किया जाना बाकी है | जब यह
व्यवहारिक पक्ष तय और लोकेट कर लिया जाएगा जिसमें लोक व्यवहार का एक विषदए जागता
संसार है फिर हम दर्शन चाहे वह न्याय हो या मीमांसा हम उसे बेहतर समझ पायेंगे और
वह मरा नहीं मात्र शाश्त्रीय अध्ययन के स्तर पर कमजोर हो गया है |
इस मंतव्य के साथ कि ज्ञान विमर्श अंततः लोक
और लोक दैनिक व्यवहार की ही थाती है सरिसब गाँव में मुख्यमंत्री के भाषण और अयाची, चमैन प्रतिमा अनावरण के बाद विद्वत समाज के भाषणों को
सुनने और समझने के लिए न्यूनतम भीड़ भी क्यूँ नहिं बचीघ् क्या विद्वान् और शाष्त्र
का लोक-कन्नेक्ट इस हद तक टूट चूका है, क्या हम अपने
सम्प्रेषण में इतने कमजोर हो चुके हैं कि ज्ञान विमर्श एक बोझिल, अबूझ प्रकरण बन कर रह गया हैघ् क्या संवाद के मोड बदलने
होंगेघ् या फिर अयाची और शंकर मिश्र के
न्याय, नब्न्याय शाष्त्र का
प्रकांड ज्ञान संसार सिर्फ रिक्लेम करने
के रिचुअल तक सिमट कर रह गया हैघ् क्या
शंकर मिश्र के चौपाड़ी जैसे खुले सार्वजनिक स्पेस को हमने इस कदर बंद कमरों में
समेट कर रख दिया कि उसका आकर्षण और समझ ही ख़त्म हो गयाघ्
सार्वजनिक हित में डाबर खुदवाने वाली चमैन जो इस आयोजन और अयाची ओरल ट्रेडिशन की एक
प्रमुख बिंदु है, की प्रतिमा का अनावरण
डाबर के घाट पर कुछ स्थानीय एन्क्रोचमेंट की वजह से नहीं हो सका, क्या यह इस ज्ञान भूमि में मर रहे पारस्परिक संवाद का
परिचायक नहीं हैघ् क्या ज्ञान और ज्ञानी विद्वान् स्थानीय, दैनिक स्तर पर संवाद करने में सक्षम नहीं हैंघ् क्या न्याय
के शाश्त्रार्थ की वाइब्रेंट परंपरा पंडितों के एक वर्ग तक ही सिमट कर मात्र ज्ञान
प्रदर्शन और पारितोषिक संकलन मात्र का जरिया बन कर रह गईघ् एक बात और भी समझना
होगा कि चमैनिया डाबर का जल किसी भी मांगलिक कार्य के लिए प्रयोग में नहीं लाया
जाता है क्यूंकि उसकी स्थापना में यज्ञ और जाठी का प्रयोग नहीं हुआ था, यह मांगलिकता मात्र एक मिथ का निर्माण है, तो क्या अपने जल संसाधन जैसे उपयोगी प्रकरणों को भी हम
मात्र मिथ निर्माण में ही भसा देंगेघ् जबकि आज वह डाबर लिढ(लिधि) से भरा किसी
भी उपयोग में नहिं रह गया है मात्र मिथ निर्माण कर रहा हैण्
और आखिरी चिंता यह कि इस पुरे ज्ञान विमर्श का
इस वृहत आयोजन के बाद क्या दिशा होगीघ् क्या राज्य अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन
लोक कल्याण में ज्ञान के पुनर्जागरण के लिए कर पायेगाघ् साथ ही मिथिला में ही
दरभंगा के मिथिला रिसर्च इंस्टिट्यूट जैसे समृद्ध संस्था जो १९५२ के बाद से ही
न्याय और तंत्र के मौलिक मैनुस्क्रिप्ट से भरा पड़ा धुल फांक रहा है, की गति को देखते हुए राज्य से हम क्या अपेक्षा रख रहे हैं
और क्यूँ रख रहे हैंघ् क्या स्थानीय ज्ञान परंपरा का वह स्वायत्त काल जिसमें अयाची
और शंकर मिश्र का स्व-निर्भर स्वरुप इतनी समृद्ध न्याय शाष्त्र इतनी सहजता से गढ़, रच गया, राज्य उसे समझ पायेगा, आदर कर पायेगा
या फिर राज्य का थिंकिंग क्लास से खतरा और डर कभी भी इस वर्टीकल आर्डर को नहीं
टूटने देगा जिसमें सरिसब गाँव मुख्यमंत्री के भाषण के उपरान्त अपनी पीठ विद्वानों
की तरफ मोड़ लेता है, आखिरकार यह संरचना राज्य
के काम का है यह उसे क्यूँ तोडना चाहेगाघ् लोगों की निर्भरता जितनी बनी रहे दोहन
उतना आसां होगा क्या ज्ञान परंपरा के संवाहक गाँव इसे नहीं समझ पा रहे कि जैसे
आयोजन उनकी संगठित बल और प्रयास का सफल परिणाम साबित हुआ वही स्थानीयता ही उन्हें
ज्ञान विमर्श को आगे ले जाने में अहम् साबित होगी जिसमें लोक व्यवहार में ज्ञान को
पकमदजपलि करना और समझना मुख्य बिंदु हो |
लेखिका जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज, दिल्ली में इतिहास की प्राध्यापिका हैं |
सम्पर्क - +919871987471 , savita.khan@gmail.com
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